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आन्दोलन से मुक्ति की दरकार – अपनी सनक कब छोड़ेंगे..?

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कृष्णमुरारी त्रिपाठी

कृषि सुधार कानूनों पर सर्वोच्च न्यायालय की अस्थायी रोक एवं एक समिति के गठन के आदेश के पश्चात भी हाय-तौबा मचा हुआ है. विपक्षी दलों एवं आन्दोलन की बागडोर थामने वाले किसान नेताओं ने अब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित समिति के सदस्यों पर ही प्रश्नचिन्ह लगाना शुरु कर दिया है. आन्दोलन में विभिन्न कारणों से कृषकों की मृत्यु एवं सार्वजनिक जीवन अस्त-व्यस्त होने से बचाने के लिए न्यायालय ने समाधान का रास्ता निकालने के लिए कानूनों को स्थगित करते हुए इन कानूनों की कमियों को दूर करने के लिए समिति गठित की है. तब भी यदि किसान नेता सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से सहमति दर्ज नहीं करवा रहे तो उनकी मंशा पर प्रश्नचिन्ह उठना लाज़मी है.

यह ठीक है कि लोकतांत्रिक तरीकों से असहमति, धरना प्रदर्शन, आन्दोलनों के नाते अपना विरोध दर्ज करवाया जाना चाहिए. कृषि कानूनों पर न्यायालय ने हल निकालने की कवायद प्रारंभ की है, तब भी तथाकथित किसान नेता आन्दोलन को समाप्त करने के बजाय खेल खेलने की दिशा में आतुर दिख रहे हैं.

अब इसे क्या माना जाए? आप सरकार की नहीं सुनेंगे. सर्वोच्च न्यायालय नहीं सुनेंगे, तो आप किसकी बात सुनेंगे? किसी भी मुद्दे का हल बातचीत से ही होता है. संसद द्वारा पारित कानून ही विधिमान्य होता है तथा सरकार के पास शक्ति है कि वह कानूनों को कैसे लागू करेगी. हमारी न्यायपालिका केवल यह देखती है कि विधायिका द्वारा बनाए गए या संशोधित कानून के लिए विधिसम्मत तरीकों का पालन किया गया है या नहीं. न्यायपालिका इसी आधार पर कोई निर्णय सुनाती है.

पहले सरकार और अब न्यायालय ने समाधान निकालने का प्रयास किया है. लेकिन सरकार विरोध में मदान्ध ‘गैंग’ इस पर भी छद्म नैरेटिव की तोप चलाने को तैयार है. कह रहे हैं कि हम न तो सरकार की सुनेंगे, न सर्वोच्च न्यायालय की – जो हम कहेंगे, वही स्वीकार किया जाए. आखिर यह कैसी सनक है? कानूनों को वापिस लेने की जिद पर अड़े हैं, कानूनों में संशोधन के लिए न तो आप सुझाव दे पा रहे हैं, न ही समाधान के लिए तत्पर दिख रहे हैं. आप सरकार एवं न्यायपालिका की बातें नहीं सुनेंगे तो किसकी सुनेंगे..?

सवाल तो इन तथाकथित किसान नेताओं से भी है. क्या ये सम्पूर्ण देश के किसानों का प्रतिनिधित्व करते हैं? सभी लोग सहमत हैं कि कृषक हितैषी हल निकलना चाहिए. लेकिन किसान नेताओं के राजनैतिक स्टंट देखने पर तो यही प्रतीत होता है, जैसे कठपुतली को इशारों पर नचाया जा रहा हो. किसान नेता अपनी सनक कब छोड़ेंगे व आन्दोलन को समाप्त कर समाधान की ओर रुख करेंगे?

दूसरी ओर पैनी दृष्टि के साथ घटनाक्रमों एवं इन सबके पीछे के निहितार्थ को समझने का प्रयास किया जाए तो सब कुछ स्पष्ट सा दिख रहा है. किसान आन्दोलन के सहारे बौद्धिक नक्सलियों की फौज व भारतीयता के विरोधी तत्वों द्वारा उन कई सारे प्रयोगों को किया जा रहा है, जिन्हें प्रत्यक्ष तरीके से कर पाना असंभव एवं दुष्कर है. कृषकों के नाम की सहानुभूति हासिल कर उन एजेंडों को मूर्तरूप देने के प्रयास चल रहे हैं, जिनके पीछे राष्ट्रघात है. इस मुद्दे को भी ‘प्रयोग’ की तरह देखा जा रहा है, यदि सरकार झुके और कानूनों को वापस ले ले. तो इनकी गैंग कहीं भी ऐसे प्रायोजित धरना प्रदर्शन आन्दोलन कर देश की संसद के विभिन्न कानूनों को रद्द करने के लिए देश को आग में झोंकने के लिए तत्पर हो जाएंगे. ये एक ‘इको सिस्टम’ के तहत काम कर रहे हैं, जिसमें प्रमुख तोपची वही हैं जो देशविरोधी, हिन्दू विरोधी, कुकृत्यों, गतिविधियों को संचालित, प्रायोजित करने का दुस्साहस कर स्वयं को ‘विक्टिम’ की तरह पेश करते रहते हैं.

सरकार व समस्त देशवासियों की कृषकों के साथ सम्वेदनाएं, सहानुभूति है तथा कृषकों की खुशहाली के लिए सभी प्रतिबद्ध हैं.

पर, असल में किसान आन्दोलन की आड़ लेकर अपने मंसूबों को अमलीजामा पहनाने वाली गैंग यह चाहती ही नहीं कि कृषक आन्दोलन समाप्त हो व समाधान के रास्ते समन्वयपूर्ण कृषक हितैषी नीति के अन्तर्गत संशोधन के साथ कृषि कानून लागू हों. बस इसी कारण के चलते वे इस पर सरकार को घेरकर घेराबंदी करने की फिराक में हैं, जिससे उन्हें राजनैतिक-अकादमिक वॉक ओवर मिले और वे प्रभुत्व स्थापित कर सकें. 26 जनवरी के दिन कृषकों की परेड वाला नैरेटिव क्या है? वही न कि राजनैतिक स्टंट दिखलाकर सरकार के विरुद्ध विषवमन करते हुए अप्रिय घटनाओं की स्थिति निर्मित की जाए. पंजाब, हरियाणा इत्यादि से सटे इलाकों में सार्वजनिक स्थान विवरण बोर्डों के ‘हिन्दी’ में लिखे नामों को मिटाया जाना, सीएए, एनारसी वापस लो के नारे व पोस्टर…..क्या यह किसान आन्दोलन के मुद्दे हैं? इसी तरह विदेशों में सिक्ख समूह के लोगों द्वारा किसान आन्दोलन के नाम पर भारत विरोध के नारे. प्रधानमंत्री के मरने के लिए बद्दुआएं देती कम्युनिस्ट पार्टी की महिलाएं. क्या यह अराजकता नहीं है? ऐसा कौन सा देश है, जहां वहां की संसद द्वारा बनाए कानून के विरोध में इस तरह के कृत्य किए जाते हैं और वहां की सरकार सब आसानी से बर्दाश्त कर लेती है? यह सब सिर्फ़ भारत में लोकतंत्र की दुहाई देकर किया जा सकता है.

राममंदिर निर्माण के फैसले, धारा-३७० की समाप्ति, तीन तलाक कानून से उपजी छटपटाहट के बाद सीएए के विरोध के नाम पर दिल्ली को दंगों की आग में झोंककर नरंसहार का षड्यंत्र रचने वाले चेहरे कौन थे? किन लोगों ने दिल्ली की सड़क को कैद करने के लिए भड़काया? किस गैंग के लोग ‘हिन्दुत्व’ की कब्र खोदने की बात कह रहे थे? जब इन सभी प्रश्नों एवं घटनाक्रमों के उत्तर ढूंढ लेंगे तो सब कुछ दर्पण की तरह सुस्पष्ट हो जाएगा. किसान नेताओं को अब यह समझना चाहिए कि कहीं वे सचमुच में तो इसी गैंग की कठपुतली बनकर किसानों के साथ धोखा तो नहीं कर रहे?

इसलिए, यह देश हमारा है, किसान हमारे हैं. उसकी पीड़ा एवं दुर्दशा को दूर करने का कार्य सरकार एवं विधि का शासन स्थापित करने का दायित्व न्यायपालिका तथा सत्य मार्ग पर चलते हुए राष्ट्र निर्माण को गति देने के लिए ‘राष्ट्रघातियों’ का विनाश कर सभी को अपनी भूमिका निभानी पड़ेगी.

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