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सिनेमा में स्वत्व और संस्कार बोध की आवश्यकता – 1

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रमेश शर्मा

हम स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं. किसी भी राष्ट्र की स्वाधीनता का अमृत्व उसकी अपनी जड़ों के सशक्तिकरण से ही सम्भव होता है. राष्ट्र के अमृत्व के लिये आवश्यक है कि समाज जीवन में राष्ट्र के मूल वैचारिक आयामों का प्रस्फुटन हो, किन्तु राष्ट्र-जीवन की इस प्राथमिकता पर भारतीय फिल्में उतनी खरी नहीं उतरतीं. जो समय और समाज की आवश्यकता है, फिल्में उसकी पूर्ति नहीं करतीं.

स्वतन्त्रता के बाद क्या इस ओर गम्भीरता से विचार हुआ कि भारतीय फिल्में कैसी होनी चाहिए और उनकी सामग्री में केन्द्रीय तत्व क्या होना चाहिए.

किसी भी राष्ट्र की स्वाधीनता तभी अमृत्व की यात्रा करती है, जब उसके विभिन्न आयामों में स्वत्व का बोध हो. वे समस्त आयाम और विधाएं स्वत्व से ओतप्रोत होनी चाहिएं, जिनसे व्यक्ति और समाज के आचरण प्रभावित होते हैं. जो विधाएं समाज में आकर्षण का केन्द्र होती हैं, समाज उनके समीप जाता है. देखता है, सुनता है और समझने का प्रयत्न करता है. यह तीनों प्रक्रियाएं उसके मानस को प्रभावित करतीं हैं. व्यक्ति चाहे न चाहे उसके व्यवहार और आचरण में ये बातें आने लगतीं हैं. यह कहना अनुचित न होगा कि भारतीय समाज और जीवन, समझ और शैली पर फिल्मों ने बहुत प्रभाव डाला है.

भारत को स्वाधीनता एक लम्बे अन्धेरे के बाद मिली. परतन्त्रता से पहले भारत एक सर्व सम्मानित राष्ट्र रहा है, विश्वगुरु और सोने की चिड़िया रहा है. इन्हीं विशेषताओं के कारण विश्व भर के लुटेरों और विचारकों को भारत ने अपनी ओर आकर्षित किया था. आरम्भिक कालखण्ड में तो लुटेरे भारत की सम्पदा लूटने के लिये ही भारत आए, यह क्रम सिकन्दर से लेकर महमूद गजनवी के आक्रमणों तक मिलता है. किन्तु इसके बाद के आक्रमणों में लूट के साथ सत्ता की लालसा भी रही, जिसे धार्मिक परिवर्तन की आड़ में ढंकने का अभियान चला. किन्तु अंग्रेज इसके कई कदम आगे रहे. उन्होंने सत्ता और सम्पत्ति के साथ भारतीय संस्कृति, मूल्यों और परम्पराओं पर भी हमला बोला और विचारक अपनी आधी अधूरी सोच का प्रचार करने.

सम्भवतः उन्हें सत्ता को स्थायी करने और भारत के प्राकृतिक संसाधनों पर अपना अधिकार बनाए रखने के लिये यह आवश्यक भी लगा कि यदि वे भारत के मूल विचार के स्थान पर अपना मत और विचार स्थापित नहीं करेंगे तो भारतीय उन्हें कभी भी उखाड़ फेकेंगे. इसलिये उन्होंने भारत को भारत में ही समाप्त करने का अभियान चलाया. इसके लिये जितने भी प्रकार हो सकते हैं, अंग्रेजों ने उन सबको अपनाया. शिक्षा, संस्कृति और आस्था मार्ग को बदलने का अभियान चलाया गया. इस अभियान के लिये फिल्म एक सुगम सरल और प्रभावी मार्ग हो सकता है. इसलिये अंग्रेजों ने भारतीय फिल्म जगत की नींव रखी.

हम भारतीय सिने जगत के इतिहास पर दृष्टि डालें तो यह बात सरलता से समझ आ जाएगी. भारत में फिल्म जगत की नींव तीन नगरों में पड़ी. मुम्बई, कोलकाता और चैन्नई. ये तीनों नगर हैं, जहाँ से देश में अंग्रेजी शासन की शुरुआत हुई और शासन को मार्ग दर्शन के लिये चर्च को प्रभावी बनाया गया. अंग्रेजों के शासन की कमान पर्दे के पीछे चर्च के हाथ में रही है. जो विधाएं आरंभ हुईं, वे सब चर्च की सलाह और मार्गदर्शन में ही आरम्भ हुईं. इसीलिये १८९६ में मुम्बई में जिन फिल्मों का प्रदर्शन हुआ, उसका आयोजन चर्च के मार्गदर्शन में ही हुआ.

चर्च प्रमुख आयोजन में उपस्थित रहे. ये वे फिल्में थी जो इंग्लैंड में बनी थीं. फिर १८९७ में प्रोफेसर स्टीवेंसन कोलकाता आए. उन्होंने एक स्थानीय फोटोग्राफर को प्रशिक्षित किया और पहली भारत में निर्मित फिल्म पर्शियन फ्लावर का प्रदर्शन हुआ. फिर फिल्म जगत ने एक उद्योग का रूप लिया, लेकिन इसका केन्द्र कोलकाता, मुम्बई और चेन्नई ही रहा. इन तीनों नगरों का वैचारिक, सामाजिक और मानसिक जीवन आज स्वाधीनता के ७३ वर्ष बाद भी कैसा है, यह हम आसानी से समझ सकते हैं. इन तीनों नगरों में परतन्त्रता के अन्धकार में जन्मीं वह विचार शैली सशक्त होती रही, जिसका उद्देश्य भारतीय स्वत्व शैली में दोष ढूंढ कर तिरस्कृत करना रहा है, चिन्दी को सांप बनाकर प्रस्तुत करना था और कूटरचित प्रसंगों के प्रस्तुतिकरण से एक वितृष्णा भाव पैदा करना था.

साथ ही भारत की ज्ञान सम्पदा और शैली को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करने का काम करना था. परतन्त्रता के दिनों में अन्धकार में भटकते और तिरस्कृत होते कुछ भारतीय जनों के भीतर यह भाव भी जगाना था कि कहीं हमारी परम्पराओं में त्रुटियों के कारण तो ये दुर्दिन नहीं आए? इस विचार समूह के लोगों का विदेशी विचारकों और चर्च ने पूरा लाभ उठाया. कुछ को लोभ देकर और कुछ को भय दिखाकर अपने अनुरूप ढाला और अपनी योजनाओं के प्रचार कार्य में जुटा दिया. भय लालच और अदूरदर्शी सोच से ग्रस्त ऐसे लोगों का समूह न केवल अपनी ही परम्पराओं का तिरस्कार करने को उद्यत हो गया, अपितु आधी अधूरी बाह्य परम्पराओं को सिर-माथे लगाकर उन्हें महिमा मण्डित करने में जुट गया.

विचार और कार्य शैली का यह अन्तर हमें भारतीय फिल्मों में बहुत स्पष्ट दिखाई देता है. उनके प्रस्तुतिकरण में दिखता है. सिनेमा जगत में कुछ फिल्म निर्माताओं-निर्देशकों और कहानी लेखकों की एक ऐसी टीम खड़ी हो गयी, जिन्हें भारतीय विधाओं में दोष ही दोष नजर आते हैं और उन्होंने अपनी फिल्मों में इसका भरपूर प्रस्तुतिकरण भी किया है. कूटरचित कथानकों और प्रभावी संवादशैली से लोगों के गले भी उतारा है.

भारतीय सिनेमा की लगभग सवा सौ वर्ष की इस यात्रा में निःसन्देह कुछ फिल्मों ने समाज में राष्ट्रबोध का भाव जगाने का प्रयत्न भी किया है. परन्तु भारतीय परम्परा और संस्कृति पर तीखा आघात करने वाली फिल्मों की संख्या अधिक रही. फिल्मी संसार में ये दोनों प्रकार की अंतर्धाराएं स्पष्ट झलकतीं हैं. यदि हम मनोरञ्जन की सीमा से उठकर विचार करें तो हम पाएंगे कि भारतीय सिनेमा ने मनोरञ्जन, व्यंग या परिहास शैली में समाजिक मूल्यों और गरिमा का अधिक ह्रास किया है. भारतीय सिने जगत ने भारतीय समाज जीवन में स्वत्व को सशक्त नहीं बनाया, अपितु स्वत्व भाव से दूर करने का ही काम किया है.

यह ठीक है कि सिनेमा जगत से कुछ फिल्में मनोरञ्जन और देशप्रेम के लिये भी सामने आईं, पर इनकी संख्या सीमित रही. भारतीय प्रतीकों को लाँछित करने के प्रसंगों से भरी फिल्मों की संख्या अनगिनत रही है. जिस प्रकार खराब मुद्रा धीरे-धीरे अच्छी मुद्रा को प्रचलन से बाहर कर देती है, उसी प्रकार असत्य भी सत्य के प्रकाश को और स्वार्थ का भाव, परमार्थ को पीछे धकेल देता है. भारतीय फिल्म जगत में लगभग ऐसा ही कुछ हुआ. राष्ट्र और समाज जीवन को सकारात्मक सन्देश देने के लिये सामने आये फिल्म निर्माता, निदेशक और कलाकार सब ओझल होते चले गए और धाँसू धमाका करने वाले हावी होते चले गये.

यह काम एक षड्यन्त्र से होता हुआ प्रतीत होता है. आरम्भ में यदि हरिश्चन्द्र, तारामती या जाग्रति जैसी फिल्में आईं तो सही, पर इनका चलन आगे न रह सका. आगे तो ऐसी फिल्मों की भरमार रही, जिन्होंने गुस्से और प्रतिक्रिया में किये गए अपराध को भी औचित्य का आवरण देकर गले में उतारा. कुछ फिल्मों के बारे में यदि यह कहा जाए कि इनके मोहक आवरण में धीमा जहर छिपा था तो सम्भवतः यथार्थ ही होगा. इसके लिये एक फिल्म “संघर्ष” का उदाहरण लिया जा सकता है, जो मनोरञ्जन के लिये बनी थी. पर उसमें बनारस की पण्डा परम्परा का एक भयानक स्वरूप चित्रित किया गया था. इस फिल्म का सन्देश इस परम्परा को लाँछित करने वाला नहीं तो और क्या था?

……शेष अगले लेख में

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