करंट टॉपिक्स

सिनेमा में स्वत्व और संस्कार बोध की आवश्यकता – 2

Spread the love

रमेश शर्मा

मूक फिल्मों के बाद जैसे ही सस्वर फिल्मों का दौर आरम्भ हुआ, तब इनके अरम्भिक ५० वर्ष की यात्रा में मोटे तौर पर चार प्रसंग हुआ करते थे. एक सामाजिक विषय को लेकर बनाई गई फिल्में, दूसरा प्रेम प्रसंगों पर बनी फिल्म, तीसरा धार्मिक कथानकों पर बनीं फिल्म और चौथा इतिहास के प्रसंगों पर बनी फिल्में. यदि हम सामाजिक संदर्भों की फिल्म देखें तो उनमें से अधिकांश फिल्मों में ब्राह्मण या पुजारी को ढोंगी, क्षत्रिय को नशाखोर और स्त्रियों का हरण करने वाला, वैश्य को बही-खाता में हेरफेर करने वाला और अन्य समाज को शोषित पीड़ित दर्शाया गया है.

यह सीधे-सीधे अंग्रेजों की बाँटो और राज करो तथा साम्यवादियों की वर्ग और वर्ण संघर्ष कराने की घोषित नीति की ही झलक देता है. इन फिल्मों को देखकर मन के चेतन अवचेतन में इन वर्गों के प्रति क्या भाव उत्पन्न होते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है. ऐतिहासिक फिल्मों में तथ्यों को तोड़- मरोड़कर और असत्य प्रसंगों के साथ ही प्रस्तुत करके खलनायकों को नायक बनाने का प्रयास हुआ. इस विधा की सबसे मशहूर फिल्म मुगले आजम को ही लें. इतिहास में कोई जोधाबाई नहीं हुई.

आमेर की राजकुमारी सहित अकबर ने तमाम राजकुमारियों का एक प्रकार से हरण ही किया था, पर फिल्म में क्या दिखाया, यह सब जानते हैं. फिर राजपूत/क्षत्रिय फिल्म बनी. क्या भारतीय इतिहास में वे ऐसे ही हैं? यदि इतिहास के राजपूत और क्षत्रिय ऐसे थे तो किसने लोहा लिया सिकन्दर से और किसने लोहा लिया अकबर से. तब इतिहास के सच को तोड़ मरोड़ कर अलग दिखाने का आशय क्या है? अब धार्मिक विषयों की फिल्मों को ही लें. देवर्षि नारद भारतीय परम्परा और दर्शन में एक आदर्श पात्र हैं. पर फिल्मों ने इन्हें कैसा दिखाया. भारतीय फिल्म जगत ने अपनी अनेक फिल्मों में देवर्षि नारद को एक हास्यास्पद चरित्र के रूप में दर्शाया.

फिल्मों ने समाज में परम्पराओं की प्रेरणा देने वाले पुजारियों और ब्राह्मणों के चरित्र का जैसा नकारात्मक प्रदर्शन किया, वैसा अन्य धर्मों और मतों के प्रमुखों का नहीं किया. इस कार्य में भारतीय फिल्मों और कथानकों की एक महत्वपूर्ण भूमिका है, जिससे पुजारियों और ब्राह्मणों के प्रति समाज में स्थान शून्य के समीप आ गया. यह वही वर्ग है, जिसने १८५७ की क्रान्ति के लिये गाँव-गाँव घूमकर चेतना जगाई और विषम परिस्थितियों में भी भारतीय संस्कृति को जीवन्त रखा. इसलिये यह वर्ग अंग्रेजों और वामपंथियों की आँख की किरकिरी रहा और इसीलिये कुछ चर्च और वामपंथी धारा से प्रभावित लेखकों ने षड्यन्त्र के साथ साहित्य रचा, कहानियां लिखीं और उन पर फिल्में बनीं.

प्रेम प्रसंगों को दर्शाने वाली फिल्मों ने एक्शन और प्रगतिशीलता के नाम पर नारी की गरिमा को कम करने का ही काम किया है. आरम्भिक फिल्मों में साड़ी और सिर ढाँक कर परदे पर आने वाली नायिकाएं धीरे-धीरे कैसे वस्त्रों में आने लगीं, यह सबके सामने है. आरंभिक फिल्म में नायिका को ठीक वैसी विशिष्ट शैली और भूषा में ही प्रस्तुत किया गया, जैसी भारतीय परम्परा रही है और जब समाज एक दत्त चित्र से फिल्मों पर मुग्ध होने लगा, तब धीरे-धीरे वस्त्र कम होते गये. नायक के भी और नायिका के भी. वस्त्र कम ही न हुए, वे तंग भी होने लगे. एक दम शरीर से चिपके हुये. कई बार लगता है कि फिल्म और फैशन एक दूसरे के पूरक के रूप में काम कर रहे हैं. किसी फिल्म में जैसे वस्त्र किसी नायक या नायिका ने पहने, रातों रात उसी के अनुरूप वस्त्र से बाजार भर जाते हैं. कई बार यह निर्णय करना कठिन होता है कि बाजार में डिजाइन फिल्म को देखकर आई या बाजार में डिजाइन देखकर फिल्म वालों ने अपनाई.

यह फिल्में ही हैं, जिन्होंने भारतीय समाज जीवन में रिश्तों का लिहाज कम किया, समाज में शराब के प्रति संकोच कम किया. परिवार में रिश्तों की एक मर्यादा होती है. सब जानते हैं कि जो सास ने किया, वही बहू करेगी. माता-पिता और घर के बड़ों के प्रति एक शील होता है, संकोच का भाव होता है, जिसे फिल्मों ने समाप्त कर दिया. एक समय था, जब प्रेम प्रसंगों से बनीं फिल्म देखने युवा जोड़े छिपकर जाया करते थे. अब न केवल साथ जाते हैं, अपितु उन प्रसंगों की चर्चा करने लगे और ऐसे अशिष्ट दृश्यों को बोल्ड कहकर सराहना भी करने लगे.

यह कमाल फिल्मों का ही है, जिस समाज में वधु बिना सिर ढंके कभी बाहर न आती थी. अब वह आधे अधूरे वस्त्र में घर के दरवाजे पर दिख रही है. यही हाल पुरुष का भी है. बहू के सामने जेठ या ससुर पूरे वस्त्र पहनकर ही सामने आते थे. अब वे अर्ध वस्त्रों में घूमते दिख जाएंगे. फिल्म जगत में अपना वैचारिक एजेन्डा लेकर कुछ लोगों ने अपने पैर जमा लिये और फिल्मों के आकर्षण का लाभ उठाकर भारत को भारतीय समाज परम्पराओं के प्रति अरुचि पैदा करने के काम में लग गए. वे कैसे अपने एजेण्डे पर काम कर रहे हैं, इसका उदाहरण सिने जगत के नाम से ही समझा जा सकता है.

विश्व का सबसे बड़ा फिल्म उद्योग भारत का है. सबसे अधिक फिल्में भारत में बनती हैं और सबसे अधिक सिने दर्शक भी भारत में हैं. सिने दर्शक संख्या भारत में चीन से अधिक है. फिर भी भारतीय सिने जगत ने अपना नाम भारतीय नहीं बॉलीवुड रखा. सिनेमा जगत के लोग और मीडिया दोनों मुम्बई नहीं कहते, वे बॉलीवुड कहते हैं. यह नाम हॉलीवुड को तोड़ मरोड़ कर बनाया गया है. यानि सिने जगत को भारतीय नाम से दूर रखना.

स्वदेशी नाम का तिरस्कार और विदेशी नाम का अनुकरण नहीं तो और क्या है? कहने सुनने में भले यह नाम सामान्य लग सकता है. किन्तु यदि पूरी सिने जगत यात्रा पर दृष्टि डाली जाए तो इसमें अंग्रेजों के उस षड्यन्त्र की झलक मिलती है जो उन्होंने भारत में ही भारत को भुलाने के लिये रचा था और जिसे वामपंथियों ने आगे बढ़ाया. अंग्रेजों ने षड्यन्त्र से भारतीय कुटीर उद्योगों को बरबाद करके अपने कारखानों का सामान प्रस्तुत किया, ठीक वैसा ही काम उन्होंने मनोरञ्जन जगत में किया.

सन् १८५७ के बाद अंग्रेजों ने उन समूहों और वर्गों पर भी प्रतिबन्ध लगाए जो गाँव बस्ती में घूम-घूम कर लोगों का मनोरञ्जन किया करते थे. इनमें से कुछ को तो उन्होंने बाकायदा अपराधी वर्ग ही घोषित कर दिया और पुलिस ने धरपकड़ शुरू कर दी. समाज मनोरञ्जन के लिये यहाँ-वहाँ देखने लगा और तब चर्च की पसंद का सिनेमा संसार सामने आया. धीरे-धीरे नृत्य गीत और मनोरञ्जन की सभी स्थानीय विधाएं शून्य हो गईं और समाज फिल्मों पर ही आश्रित हो गया.

समाज जब पूरी तरह फिल्मों पर ही आश्रित हुआ, तब भारतीय फिल्मों में तीनों अंतर्धाराएं खुलकर खेलने लगीं. जिनमें मार्क्स की इच्छा के अनुरूप भारत में वर्ण संघर्ष के लिये जमीन तैयार करना चाहते थे, मिशनरीज द्वारा संचालित धर्म स्थलों की महत्ता दर्शानी थी और वे भी जो भारत में नौजवानों के भीतर विद्रोह का भाव जगाकर उन्हें परिवार से तोड़कर अपराध जगत की ओर मोड़ने का कुचक्र करना चाहते थे. इन तीनों प्रकारों की झलक भारतीय फिल्मों में खूब देखी जा सकती है.

भारतीय फिल्म जगत का जुड़ाव दुबई से है. दुबई अपराधियों और नशे के सौदागरों का केन्द्र है. इन अपराधियों के लिये पाकिस्तान घर आँगन है. मुम्बई के अपराध जगत का एक भी सूत्र ऐसा नहीं, जिसका प्रत्यक्ष या परोक्ष सूत्र दुबई और पाकिस्तान से न जुड़ा हो. इन सूत्रों के मुम्बई सिने जगत से कनेक्शन भी समय-समय पर सामने आते रहे हैं.

किसी समय के डॉन हाजी मस्तान और दाऊद इब्राहिम के बारे में तो यह बातें भी आतीं रहीं कि ये फिल्मों में फायनेंस करते थे, इनकी दावतों में कुछ अभिनेत्रियाँ नृत्य प्रदर्शन के लिये जाया करती थीं. ऐसे आयोजन मुम्बई में भी हुए और दुबई में भी. कुछ समाचार ऐसे भी आए कि अपराध जगत से जुड़े लोगों ने फायनेंस के साथ किसी कलाकार विशेष को लेने और कहानी लेखक विशेष से लिखाने की शर्त रखी. पर ऐसे समाचारों का कभी खंडन न हुआ और न कभी पुलिस द्वारा एक्शन लेने की बात ही सामने आई. अतएव ऐसे सभी समाचार सत्य और असत्य के बीच तर्कों में खो गए और फिल्मी संसार अपनी गति से चलता रहा.

अब सत्य चाहे जो हो, किन्तु १९९३ के मुम्बई ब्लास्ट से बहुत कुछ स्पष्ट हो गया था. इन विस्फोटों में दाऊद इब्राहिम की संलिप्तता तो प्रमाणित ही हो गई थी. वहीं दाऊद इब्राहिम ने फिल्मी संसार में अपनी कितनी पैठ बना रखी थी, यह भी स्पष्ट हुआ. इसके साथ फिल्म जगत के कुछ बड़े नाम भी चर्चा में आए. कुछ पर तो मुकदमे भी चले.

कहने का आशय यह नहीं है कि पूरे के पूरे फिल्मी संसार की सोच भारत चिन्तन के अनुरूप नहीं है, किन्तु यह अवश्य है कि फिल्मी संसार में कुछ तत्व ऐसे अवश्य रहे हैं जो योजना पूर्वक भारतीय परम्परागत जीवन में दोष प्रदर्शन का ही कार्य करते हैं. यह ध्वनि मुम्बई के सिने जगत से ही आई कि भारत अब रहने लायक नहीं रहा. अवॉर्ड वापसी अभियान भी ऐसे व्यक्तियों से आरम्भ हुआ जो सिने जगत के बहुत समीप हैं. दिल्ली में यदि भारत के टुकडे़ होने के नारे लगे तो उनके समर्थन में रातों रात कुछ सिने जगत के चेहरे सामने आए. यदि ऐसी मानसिकता की भरमार सिने जगत में है, तब भारतीय समाज को राष्ट्र बोध या स्वत्व की चेतना कितनी कठिन होगी, यह एक विचारणीय प्रश्न है.

इन सवा सौ वर्षों में सिने यात्रा की ऐसी फिल्में उंगलियों पर गिनने लायक होंगी, जिनमें भारतीय स्वाभिमान और स्वत्व की श्रेष्ठता प्रमाणित करने का प्रयास हुआ. जो परम्परा मनोज कुमार ने देशभक्ति भाव से आरम्भ की थी, वह उनके साथ चली गई. बाद में कुछ फिल्में आईं अवश्य पर उनमें नाटकीयता और धाँसू धमाका करने का प्रदर्शन इतना अधिक था कि वह यथार्थ से कोसों दूर हो गईं.

आज देश में वातावरण बदल रहा है. राष्ट्र चेतना अंगड़ाई ले रही है. यानि पीढ़ी में कुछ उत्साही नवयुवक सामने आ रहे हैं. तब यह उचित अवसर है कि नये स्थान पर नई टोलियों के साथ एक संगठित कार्य आरम्भ किया जाए. जिससे जन चेतना और स्वत्व का बोध कराने वाला फिल्म निर्माण अभियान चले, तभी हमारा स्वाधीनता का अमृत महोत्सव सार्थक होगा.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *