प्रो. अमिताभ श्रीवास्तव
अन्नदाता को ईश्वर मानने की हमारी सदियों पुरानी संस्कृति रही है. परन्तु जब आजादी मिली तो पहली पंचवर्षीय योजना में ही औद्योगीकरण के नाम पर कृषि की बलि ले ली गयी. सालों से राज करने वाले दल को यथास्थिति स्वीकार्य रही. किसानों के नाम पर सत्ता में कुछ क्षेत्रीय दल अवश्य उभरे पर दुर्भाग्य से परिवार और जातिवाद की राजनीति का लेबल चिपका कर बैठ गये. कृषि व्यवस्था पर आधारित देश आज किसानों की आत्महत्या के लिए कुख्यात हो गया. गांव कनेक्शन संस्था द्वारा हाल में किया एक सर्वेक्षण बताता है कि 48 प्रतिशत आहत किसान चाहता है कि उसकी नयी पीढ़ी खेती न करे. 1996 में विश्व बैंक ने यह आंकड़ा 40 प्रतिशत बताया था. घोषणापत्रों के अलावा किसानों के मामले पर एक मनहूस सी चुप्पी पसरी रही. यथास्थितिवाद तोड़ने के लिए कृषि विधेयक आए, तो चर्चा की जगह हंगामा हो गया. लोकतंत्र के मंदिर की मर्यादा तार तार कर दी गयी.
आज किसानों की औसत मासिक कुल जमा 1700 रुपये है. हालात से हार मान कर वर्षों से औसतन एक हजार किसान हर माह आत्महत्या कर रहे हैं. किसानों की इस हालत का जिम्मा कौन लेगा? परिस्थितियां आज पैदा नहीं हुई है. पचास का दशक दो बीघा जमीन जैसी फिल्मों के लिए याद किया जाता है, जहां किसान शहर आकर हाथ रिक्शा खींचता है, उसका परिवार बिखर जाता है पर पसीने के साथ खून भी बहाकर किसान परिवार अपनी जमीन नहीं छुड़ा पाता है और आखिरकार उसकी मुट्ठी से खेत की मिट्टी तक छीन ली जाती है. हां, जय जवान जय किसान करने वाला एक धरती का लाल, लाल बहादुर शास्त्री जैसा प्रधानमंत्री देश को मिला, पर काल या कुटिल कूटनीति ने उसे हमसे छीन लिया.
2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 14.5 करोड़ किसान हैं और 27 करोड़ कृषि मजदूर हैं. करीब 60 करोड़ लोगों का जीवन कृषि से प्रत्यक्ष या परोक्ष जुड़ा है. दुर्भाग्य से हाल के वर्षों में जब भी खेती से जुड़े कानून आए, उन पर राजनीति हो गयी. पिछली सरकार के दौर में भट्टा परसौल हुआ और इस सरकार के दौर में सरकार जब तीन विधेयक लेकर आयी, संवाद की बजाय विवाद और वितंडावाद ज्यादा होने लगे. नए विधेयकों के प्रावधान किसानों को उनकी उपज देश में कहीं भी, किसी भी व्यक्ति या संस्था को बेचने की इजाजत देता है. केन्द्र सरकार और सहयोगी राज्य सरकारों का पक्ष है कि इसके जरिये एक देश- एक बाजार की अवधारणा लागू की जाएगी. किसान अपना उत्पाद खेत में या व्यापारिक प्लेटफार्म पर देश में कहीं भी बेच सकेंगे. लेकिन विपक्षियों का आरोप है कि इससे किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिल सकेगा. दूसरा विधेयक फसल की बोआई से पहले किसान को अपनी फसल को तय मानकों और तय कीमत के अनुसार बेचने का अनुबंध करने की सुविधा प्रदान करता है. इसके समर्थकों का कहना है कि इससे किसान का जोखिम कम होगा ओर खरीदार खोजने के लिए कहीं जाना नहीं पड़ेगा. लेकिन विरोधी दलों का कहना है कि इसके जरिये व्यवसायिक वर्ग किसानों का शोषण करेंगे.
भारत में गौरवशाली इतिहास इस बात का प्रमाण है कि भारत में कृषि और व्यापार ने साथ साथ उन्नति की. सम्पन्न गांवों और समर्पित व्यापार वर्ग के बल पर ही भारत सोने की चिड़िया रहा. दुर्भाग्य से वर्ग संघर्ष की वामपंथी अवधारणा दबे छिपे अपने राज्यों और चीन जैसे मुल्कों के व्यापार वर्ग को समर्थन देती है, पर भारत में दोनों वर्गों के बीच कृत्रिम संघर्ष पैदा करती है. केन्द्र सरकार का कहना है कि जमीनी हालात को देखते हुए और कृषि में उच्च तकनीक का समावेश कर इसे लाभकारी बनाने के लिए किसानों को विकल्प देने हैं. निश्चित ही इसका संकेत व्यापारी घरानों की तरफ है. पर सवाल फिर यही है, अधिकांश किसान खेती छोड़ने को विवश हो रहे हैं. आर्थिक लाभ का सौदा बनाए बिना कृषि की रक्षा अब कठिन है.
दुर्भाग्य से देश में हरेक मुद्दे को चुनावों से जोड़ लिया जाता है और उसी के आधार पर आंदोलनों की दिशा तय की जाती है. बिहार में चुनाव सिर पर हैं. इसलिए कांग्रेस अपने घोषणापत्र में जिन मुद्दों को उठा चुकी है, उसका भी विरोध करने को तैयार है. पंजाब में आधार खो रहे अकाली पहले तो इस मुद्दे पर सरकार के साथ सुर में सुर मिलाते हैं, पर बाद में आंदोलन पर उतारू हो जाते हैं. आरोप है कि नशे के व्यापार पर केन्द्र सरकार के प्रहार की आंच पंजाब के कुछ राजनेताओं के रिश्तेदारों तक पहुंच रही है. इसके अलावा मंडी व्यवस्था की मजबूती से राज्य सरकार को भारी राजस्व मिलता था, जिसका नुकसान सहना उसे बर्दाश्त नहीं होगा.
किसानों से जुड़े संगठन भारतीय किसान संघ ने विधेयक के प्रावधानों का समर्थन करते हुए कहा कि देश में अपने उत्पादों को कहीं भी बेचने की आजादी किसानों को मिलनी ही चाहिये. 1986 में राजस्थान में जीरा तथा आंध्र, विदर्भ आदि जगहों पर कपास को लेकर भारतीय किसान संघ ने आंदोलन किया था. आज विधेयक से वह वर्षों पुरानी मांग कमोबेश पूरी होती नजर आ रही है. किसान संघ ने मंडी व्यवस्था के कतिपय प्रावधानों की आलोचना करते हुए कहा कि यह किसानों की विकल्पहीनता के शोषण पर टिकी है और किसानों को विकल्प मिलने ही चाहिये. लेकिन साथ ही कुछ सुझाव इन विधेयकों में जोड़े जाने की मांग की जा रही है.
– न्यूनतम समर्थन मूल्य पर केन्द्र सरकार द्वारा दिया गया आश्वासन विधेयक में जोड़ा जाए.
– किसान की परिभाषा में कार्पोरेट कंपनियां भी आ रही हैं. इससे लघु और मंझोले किसानों का भारी नुकसान होगा. इस प्रावधान को समाप्त करने की आवश्यकता है.
– निजी व्यापारियों का राज्य और केन्द्र स्तर पर पंजीयन हो, जिससे किसानों को कोई धोखा देकर उनका आर्थिक शोषण न कर सके.
– विवादों का समाधान करने के लिए हर जिले में कृषि न्यायालय की व्यवस्था हो, ताकि न्याय की तलाश में किसान को इधर-उधर भटकना न पड़े.
कृषि से जुड़े विधेयकों ने किसानों और खेती के लिए आशा की किरण तो दिखाई है, लेकिन इससे जुड़ी किसानों की आशंकाओं का भी समाधान करने की आवश्यकता है, जिससे देश के किसान बिना झिझक और डर के अपने उत्पादों का पूरा मूल्य समय पर प्राप्त कर सकें.
(लेखक मणिपाल विश्वविद्यालय, जयपुर में स्कूल ऑफ मीडिया एंड कम्युनिकेशन के निदेशक हैं.)