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फिल्मी दुनिया में एकाधिकार, भाई भतीजावाद, अवसरवादिता और अवसाद – 2

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    – प्रभाकर शुक्ला

भाग 1 यहाँ पढ़ेंफिल्मी दुनिया में एकाधिकार, भाई भतीजावाद, अवसरवादिता और अवसाद

देश में फिल्म जगत में आजादी से पहले के कालखंड में पारखी नज़रें भी ऐसी थीं कि कला और कलाकार को पहचान लेती थीं. उस समय गुजराती, मारवाड़ी, सिंधी और पारसी व्यापारी स्टूडियो से लेकर फिल्मों में पैसे लगाते थे और मुनाफा कमाते थे. लेकिन रचनात्मक और कला के विषय में हस्तक्षेप नहीं करते थे. लेकिन आजादी के बाद परिवर्तन हुए.

आज़ादी के बाद बदली फ़िल्मी दुनिया
आज़ादी के बाद पचास के दशक में लाहौर, कोलकत्ता से बहुत से लोग मुंबई की फ़िल्मी दुनिया में आए और संघर्ष शुरू किया. इनमे पंजाबियों और सिंधियों की संख्या काफी थी. कुछ बँटवारे की त्रासदियों के शिकार भी थे तो कुछ अपनी किस्मत यहीं आजमाना चाहते थे. जाहिर है लोगों का ग्रुप भी बनना शुरू हुआ. एक तरफ जहां बंगाली और मराठी निर्माता निर्देशकों का दबदबा था, वहीं पंजाबी और मुस्लिम लॉबी भी सक्रिय हुई. अभी तक जो स्टूडियो सिस्टम था यानि हर कलाकार और तकनीशियन को एक फिक्स सैलरी मिलती थी. वह धीरे धीरे स्टार सिस्टम में बदलने लगा. दिलीप कुमार, देव आनंद और राज कपूर जैसे सितारों का दौर आया और यह राज करने लगे. स्टूडियो सिस्टम ख़त्म होने लगा था और व्यक्ति पूजा का दौर शुरू हो रहा था. यानि स्टार को निर्माता और निर्देशक से ज्यादा तवज्जो मिलने लगी थी. अब फ़िल्में भी धीरे धीरे बदलने लगी थीं. रंगीन फिल्मों का दौर शुरू होने लगा था. गीत संगीत लोगों की पसंद के बनने लगे थे.
ऐसे समय में भी एकाधिकार, अवसरवादिता और अवसाद फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो चुके थे. उस समय के सबसे मशहूर गीतकार शैलेन्द्र जब निर्माता बने और अपने दोस्त राज कपूर को हीरो लेकर तीसरी कसम (१९६६) फिल्म बनाई. फिल्म बनाते बनाते उनका बंगला बिक गया, मगर फिल्म बिकी नहीं, क़र्ज़ और अवसाद के तले दबकर फिल्म की रिलीज़ के पहले ही उनकी मृत्यु हो गई. ऐसे ही न जाने कितने अनगिनत छोटे बड़े निर्माता, निर्देशक, अभिनेता-अभिनेत्री रहे जो असफलता को झेल नहीं पाए, कुछ गुमनाम हो गए, कुछ दिवालिया हो गए, कुछ ने मौत को गले लगा लिया और कुछ कंगाली और बदहाली में आखिरी वक्त का इंतज़ार करते रह गए. भारत भूषण, भगवान दादा, मुबारक बेगम, विमी, गुरुदत्त, ए.के. हंगल और भी न जाने कितने अनगिनत और गुमनाम नाम हैं. अब तक फिल्म में फाइनेंस ज्यादातर सिंधी, मारवाड़ी और गुजराती व्यापारी करते थे और अपने पैसे की वसूली के लिए हर तरह के तरीके अपनाते थे.

सत्तर अस्सी के दशक
दिलीप कुमार के बाद राजेंद्र कुमार, राजेश खन्ना, धर्मेंद्र, अमिताभ बच्चन, जितेन्द्र, मिथुन, विनोद खन्ना का दौर शुरू हुआ. अब तो हीरो ही भगवान होता था. राजेश खन्ना के साथ के लोग कहते ही थे कि ऊपर आका और नीचे काका (राजेश खन्ना). बस यही दो हैं इस संसार में. धीरे धीरे बंगाली और मराठी ग्रुप पिछड़ रहा था और पंजाबी, सिंधी और मुस्लिम ग्रुप ने फ़िल्मी दुनिया में अपनी पकड़ मजबूत करनी शुरू कर दी थी. हालांकि गाहे बेगाहे माफिया गिरोह का भी इस दुनिया पर असर होने लगा था. करीम लाला, हाजी मस्तान, मटका किंग रतन खत्री और भी बहुत से लोग अपने किसी प्यादे के जरिये या फिर सीधे ही फिल्मों में पैसा लगाते रहते थे. आज़ादी के बाद आई लॉबी ने अब अपने दोस्तों, रिश्तेदारों को धीरे धीरे इस दुनिया में लाना शुरू कर दिया था. कभी तो किसी भी कीमत पर उन्हें सफल बनाने की कोशिश भी होती रही.

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अस्सी के बाद के बीस साल
अस्सी के बाद के सालों में हर तरह की और कभी कभी बिना सिर पैर की फिल्में बनने लगीं. संगीत के नाम पर शोर भी सुनाया जाने लगा, कहानी के नाम पर फार्मूला भी दिखाया जाने लगा. सितारों को माफिया अपनी महफिलों में बुलाने लगे, उनके साथ सम्बन्ध रखने वालों को ज्यादा इज्जत मिलने लगी. माफिया का पैसा फिल्मों में घूमने लगा. स्टार की डेट्स वह अपने हिसाब से बांटने लगे और कुछ स्टार उनके हाथों की कठपुतली हो गए. वह वही फिल्म करते जो उन्हें वहां से कही जाती. निर्माता निर्देशकों पर हफ्ता देने का दबाव बनाया जाने लगा और जो न देता उसके ऊपर हमले होने लगे. राकेश रोशन, राजीव राय, मुकेश दुग्गल, और भी बहुत से नाम हैं, जिन पर हमले हुए या जिनकी जान चली गयी. अभिनेता मिथुन ने माफिया के डर से अपना ठिकाना दक्षिण के शहर ऊटी में बना लिया.

फ़िल्मी दुनिया को पैसे और शोहरत कमाने का आसान जरिया समझ कर जमे जमाए लोगों ने अपने बेटे, बेटियों, रिश्तेदारों को लांच करना शुरू कर दिया था. जिसकी लाठी उसकी ही भैंस, ऐसा ही दिखने लगा था. पहले लोग टैलेंट हंट में जीत कर अपनी प्रतिभा दिखाते थे और जो काबिल होते थे, वही टिक पाते थे. अब तो थाली में सजा कर बच्चों को फ़िल्में पकड़ा दी जाती थीं. इंडस्ट्री पर चंद लोगों का कब्ज़ा हो गया था, उनमें से माफिया भी एक था. नब्बे के दशक में भी कुछ ज्यादा नहीं बदला था, बस शैलेन्द्र की जगह मशहूर अभिनेता विनोद मेहरा ने निर्माता बनने की सोची फिल्म शुरू की “गुरु देव” (ऋषि कपूर, अनिल कपूर, श्री देवी) लेकिन तारीखों और कर्ज में ऐसा उलझे कि फिल्म पूरी होने के पहले ही अवसाद और तनाव की वजह से ह्रदय गति रुक गयी……………क्रमशः

(लेखक निर्देशक व सेंसर बोर्ड के पूर्व सदस्य हैं)

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