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कोई ऊंचा नहीं, कोई नीचा नहीं, सब भगवान के स्वरूप हैं

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(श्री गुरुजी के समरसता के सूत्र)

हम तो समाज को ही भगवान मानते हैं, दूसरा हम जानते नहीं. समष्टिरूप भगवान की सेवा करेंगे. उसका कोई अंग अछूत नहीं, कोई हेय नहीं है. उसका एक-एक अंग पवित्र है, यह हमारी धारणा है. हम इस धारणा के आधार पर समाज बनाएंगे. भूतकाल के बारे में ‘अपोलॉजेटिक’ (क्षमा भाव से ग्रस्त) होने की कोई बात नहीं है. दूसरों से पूछो कि तुम क्या हो? मानव सभ्यता के शताब्दियों लम्बे कालखण्ड में तुम्हारा योगदान कितना रहा? आज भी तुम्हारे प्रयोगों में मानव-कल्याण की गारण्टी नहीं है. तुम हमें क्या उपदेश देते हो? यह हमारा समाज है. अपना समाज हम एकरस बनाएंगे. उसका अनेक प्रकार का कर्तृत्व, उसकी बुद्धिमत्ता सामने लाएंगे, उसका विकास करेंगे.

महात्मा जी ने अस्पृश्यता निवारण को कांग्रेस के कार्यक्रमों में सम्मिलित कराया और उसके लिए बड़े प्रयत्न किए. उसका परिणाम क्या हुआ? हरिजन दूर गए. अलग नाम देने से पृथकता की भावना बढ़ी. गांधीजी ने तो यह नाम इसलिए दिया था कि पुराने नामों के साथ जो ‘असोसिएशन्स’ (स्मृतियां) है, उनके कारण जो भाव मन में उत्पन्न होते हैं वे इस ‘हरिजन’ नाम के साथ उत्पन्न नहीं होंगे. उन्होंने सोचा तो ठीक था, पर वह भाव दूर नहीं हुआ.

खोने होंगे पुराने संस्कार –

एक हरिजन नेता से डॉक्टर हेडगेवार जी और मेरा दोनों का सम्बंध था. वे कहते थे कि संघ – कार्य बहुत अच्छा है, पर संघ हमारा सच्चा शत्रु है. क्योंकि बाकी सब हमारा पृथक अस्तित्व स्वीकार करते हैं, हमारे पृथक अधिकार आदि की बातें करते हैं. पर संघ में जाकर तो हमारी पृथकता ही समाप्त हो जाएगी और हम केवल हिन्दू रह जाएंगे. फिर विशेषाधिकार आदि कैसे मिलेंगे? पृथकता का भाव उनमें कटुता तक पहुंच गया था. इसमें मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ. क्योंकि जो लोग उनके पास मुकदमे लेकर जाते थे, वे दूर से फाइल फेंक देते थे. इससे उनके मन में बड़ी चिढ़ उत्पन्न हुई. इसी कटुता, पृथकता के भाव के कारण उनके मन में यह विचार आया कि हिन्दू समाज में डूब गए तो हमारा क्या होगा?

सन् १९४१ में एक महार लड़का मुझसे मिलने आया. उसने पूछा कि संघ में आने से हमें क्या लाभ होगा? मैंने कहा कि तुम अपने को पृथक मानते हो और दूसरे तुमको पृथक मानते हैं, यह पृथकता की दीवार ढह जाएगी. यह लाभ है या नहीं? लड़के ने तो माना, पर साथ वालों ने नहीं माना. क्योंकि उनके विचार में उससे अधिकार, राजनीतिक लाभ आदि बातें समाप्त हो जाएंगी. पृथकता का पोषण न करते हुए उनकी व्यथाएं दूर होंगी, ऐसा कुछ हम कर सकते हैं? यह सोचना होगा.

छुआछूत का भाव बहुत गहरा पहुंचा हुआ है. ब्राह्मणों में भी छोटी-छोटी जातियां हैं, जिनमें कई एक-दूसरे के हाथ का पानी नहीं पीतीं. अब तो सब ठीक हो गया है, पर पहले होता था. हरिजनों में भी एक-दूसरे की छाया न सहन करने वाले लोग हैं. ‘The problem is colossal’ (समस्या विकराल है). इसमें बहुत परिश्रम करना पड़ेगा. बहुत शिक्षण देना होगा. पुराने संस्कार धोने होंगे, नए देने होंगे. बहुत वर्षों से अंदर घुसी हुई ऐसी विचित्र भावनाएं हैं, जिन्हें बलपूर्वक दूर करने से काम नहीं चलेगा. इससे पृथकताएं बढ़ेंगी इस विषय में बहुत सोचना होगा.

दलित वर्ग, उपेक्षित वर्ग जैसे शब्दों में अपने समाज के बहुत बड़े वर्ग का उल्लेख किया जाता है. अब इस सम्बंध में इतना तो स्पष्ट ही है कि अपने समाज की पिछले कुछ वर्षों जैसी अवस्था रही, उसके परिणामस्वरूप समाज का बहुत बड़ा बंधु-वर्ग व्यावहारिक शिक्षा से अत्यधिक वंचित रहा है. इसीलिए उसकी अर्थ-उत्पादन की क्षमता कम हो गई है और उसे दैन्य दारिद्रय का सामना करना पड़ रहा है. समाज में इस वर्ग के प्रति आदर की भावना भी कम हुई है. पूर्व काल में इन बंधुओं को पूरा सम्मान प्राप्त था. पंचायत व्यवस्था में उनका भी एक प्रतिनिधि रहता था. यह व्यवस्था बहुत प्राचीन काल से हमारे यहां लागू थी. प्रभु रामचन्द्र जी की राज्य व्यवस्था का भी जो वर्णन है, उसमें चार वर्णों के चार प्रतिनिधि और पांचवां निषाद यानी अपने इन वनवासी बंधुओं का प्रतिनिधि मिलकर पंचायत का उल्लेख आता है. इस प्रकार उन्हें सम्पूर्ण व्यवस्था में अत्यन्त प्रतिष्ठा का स्थान प्राप्त था. परन्तु बीच कालखण्ड में वह व्यवस्था टूट गई.

इन बन्धुओं का इतिहास में भी बड़ा तेजस्वी योगदान रहा है. मेवाड़ की रक्षा के लिए इन बंधुओं के पराक्रम का बहुत गौरव से भरा पृष्ठ है. मेवाड़ में विधर्मियों के आक्रमण के समय धर्म-रक्षा के लिए जो गौरवशाली संघर्ष हुआ, उसमें वनों में रहने वाले भील बंधु राजपूतों के साथ खड़े हुए. अनेक वर्षों तक संघर्ष चलता रहा. उसमें अनेक मारे गए. केवल स्त्रियां और बच्चे बचे. बच्चे बड़े हुए तो वे भी धर्म के लिए जूझते रहे. इस प्रकार पीढ़ी-दर-पीढ़ी पराक्रम करते रहे. धर्म-रक्षक, महाप्रतापी सूर्य राणा प्रताप के साथ खड़े होकर उन्होंने प्राणों की बाजी लगाई और अनेक कष्ट सहन किए. परन्तु बाद में उनका वह उज्ज्वल इतिहास हम भूल गए.

छुआछूत का भेद न रहे…

इस समस्या की ओर गत कई वर्षों से लोगों का ध्यान आकर्षित हुआ है. पिछले कितने ही वर्षों से इस प्रकार की घोषणाएं होती आ रही हैं कि स्पृश्यास्पृश्य का व्यवहार नहीं रखना चाहिए और इन्हें अपने साथ मिला लेना चाहिए. इधर बीच के कालखण्ड में इन घोषणाओं को कुछ विशेष बल प्राप्त हुआ. फिर संविधान में भी इसका उल्लेख हुआ. छुआछूत को दण्डनीय अपराध मान लिया गया. परन्तु मेरा स्पष्ट मत है कि इन सब प्रयत्नों में सतही दृष्टि से जो कृत्रिमता बरती गई, उसके कारण, स्पृश्यास्पृश्य-भेद अधिक तीव्र हो गया. मेरे ऐसा कहने पर लोग कहेंगे कि देखो, हम अच्छा काम कर रहे हैं फिर भी यह ऐसी आलोचना करता है. परन्तु जो वास्तविकता है, वह बोलना ही चाहिए.

हमारे इतिहास, पुराण आदि में ‘हरिजन’ शब्द कहीं भी नहीं आया है, यह एक नयी ही कल्पना है. जिन लोगों के विषय में इसमें ‘हरिजन’ शब्द का प्रयोग हुआ है, उन्हें संघ समाज का एक अविच्छिन्न एवं अविच्छेद्य अंग मानता है और इसी दृष्टिकोण से उन्हें गले लगाता है, न कि अछूत या हरिजन समझकर. वास्तव में बात तो यह है कि जिस विषय पर अधिक जोर दिया जाता है, वह अधिकाधिक जटिल ही बनता जाता है. उसका हल तो उसकी क्रमिक उपेक्षा ही है. स्पृश्यास्पृश्य जैसी सामाजिक बुराई, अधिक बढ़ावा देने से ही इतनी अधिक जटिल बन गई है. संघ तो हिन्दू-मात्र को एक समझता है. उसके सामने जात-पांत, स्पृश्यास्पृश्य आदि का कोई प्रश्न ही नहीं उठता.

कैसे पटे ये खाई…

हम देखते हैं कि महात्माजी ने बड़ी प्रामाणिकता और सच्चाई से प्रयोग किया. यहां तक कि ‘कम्युनल अवार्ड’ और ‘सेपरेट इलेक्टोरेट’ यानी पृथक मतदान की बात के विरुद्ध आमरण अनशन भी किया. ईश्वर की कृपा थी कि सब लोग उनका कहना मान गए और उनके प्राण बच गए. इसे ईश्वर की बहुत बड़ी कृपा मानता हूं. परन्तु इतना सब उनके अन्तःकरण की विशुद्ध, भव्य और उदात्त भावना होते हुए भी जो भय उत्पन्न हुआ था कि पृथक नाम से पृथकता बढ़ जाएगी, दुर्भाग्य से वह सच उतरा. अब तो स्थिति यह है कि पृथकता में ही, पृथकता से सताए जाने वालों को रस निर्माण हो गया है. अंग्रेजी में जिसे ‘व्हेस्टेड इन्टरेस्ट’ बोलते हैं, ऐसा निहित स्वार्थ पृथकता में निर्माण हुआ है.

राजनीतिक स्वार्थ के दलदल में फंसे हुए लोग सामाजिक भेदाभेद की खाई को नहीं पाट सकते, उसे गहरी अवश्य बना सकते हैं. वे समाज में एकात्मता उत्पन्न नहीं कर सकते, समाज को नष्ट करने का उपक्रम जरूर कर सकते हैं. राजनीतिक क्षेत्र के माध्यम से सामाजिक एकता साध्य नहीं हो सकती. धर्म, संस्कृति, एक-दूसरे के प्रति तादात्म्य, प्रेम और सहकार्य के आधार पर ही हमें यह कार्य करना पड़ेगा.

आज समाज का चित्र ऐसा दिखाई देता है कि हृदय पीड़ा से भर आता है. बहुत दुःख चारों ओर छाया है. अब इन सबका भार कोई एक आदमी कहे कि मैं वहन करूंगा तो वह संभव नहीं है. हां, सब मिलकर कहेंगे कि हम इस दुःखदैन्य को हटाने के लिए, अपने बंधुओं की सहायता के लिए प्रयत्न करेंगे तो हो सकता है. जनता की सम्मिलित शक्ति में भगवत् प्रेरणा होती है. यह सात्विक शक्ति होती है. यह भगवद् शक्ति ही सबका उदर भरण कर सकती है. चारों ओर आज दुर्भिक्ष की छाया है. इसके कारण कठिन समय दिखाई दे रहा है. इस स्थिति में हम सब ऐसा प्रयत्न करें कि किसी मनुष्य को भूखा नहीं रहने देंगे. प्रत्येक को ऐसा समझना है कि किसी एक पीड़ित बंधु का भार उसके ऊपर ही है. पीड़ित और पिछड़े-बंधुओं की रक्षा-निमित्त और उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करने की शक्ति प्रदान करने के लिए गांव का गांव हम दत्तक ले सकते हैं. ऐसे महापुरुष यहां हैं. इसके लिए अपनी निजी आवश्यकताओं और चैनबाजियों पर बन्धन डालने होंगे.

कई बार लोग धार्मिक बनने का अर्थ विचित्र-सा लगा लेते हैं. त्रिपुंड लगाते हैं. चंदन लगाते हैं. घंटी बजा-बजाकर लम्बी-चौड़ी पूजा कर लेते हैं. ध्यान लगाते हैं. परन्तु समाज का ध्यान नहीं लगाते! यह सब तो धार्मिक बनने का आभास उत्पन्न करना हुआ. सच्चा धर्म तो हमारा यही है कि यह समाज अपना है. अतः हम इसका चिंतन करें और हर एक आदमी स्वयं भू-पोषण कर सके. ऐसा स्वाभिमान उसमें निर्माण करें. जितने दीनः दुखी मिलें, वे सब भगवान के स्वरूप हैं, भगवान ने अपनी सेवा का अवसर हमें इस प्रकार प्रदान किया है, ऐसा समझें और उनकी प्रत्यक्ष सेवा इस भाव से करने के लिए उद्यत हों. अब तक व्यक्तिगत स्वार्थ भरपूर हो चुका. परन्तु ऐसा स्वार्थ किस काम का, जिससे दूसरे को दुःख हो. इसलिए समाज की भलाई में अपने सब व्यवहार व्यवस्थित करने चाहिए.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में हरिजन गैर-हरिजन जैसा कोई विचार नहीं होता. हम कहते हैं कि हम हिन्दू हैं. हमारे लिए इतना पर्याप्त है. हम किसी अन्य बात की चिंता नहीं करते. हमने हमेशा इसी तरह का व्यवहार किया है. हमारे लिए हिन्दू समाज का अंग होना ही महत्व की बात है. जाति, पंथ या अन्य किसी भी बात का हमारे लिए कोई महत्व नहीं है.

(‘श्री गुरुजी समग्र दर्शन’ से संकलित)

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