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प्रवीण लखेरा
पिछले दिनों महाराष्ट्र के सपा विधायक अबू आजमी ने मुगल शासक औरंगजेब की महानता का बखान करते हुए उसका गुणगान किया। विरोध के बाद अपना बयान वापस ले लिया, लेकिन उससे देश की राजनीति में उबाल आ गया और नागपुर में हिंसा भी हो गई, जिसमें कई पुलिसकर्मी भी घायल हुए।
देश का आम जनमानस औरंगजेब को बर्बर ही मानता है, लेकिन कुछ मुट्ठी भर लोग उसे दयालु और महान शासक बताने में लगे हैं। किसी शासक को महान या क्रूर बताने से पहले उसके व्यक्तित्व, उसके शासनकाल में नीतियों और उसने अपनी प्रजा से किस प्रकार व्यवहार किया, आदि के बारे में जानकारी होनी चाहिए।
औरंगजेब का आकलन तथ्यों पर कम और सुनी-सुनाई बातों और धार्मिक पूर्वाग्रहों पर अधिक होता है।
कई बार उसके ही दरबारी की ओर से लिखी बातों की भी अनदेखी कर दी जाती है। किसी राजा को महान तभी कहा गया, जब उसने अपनी प्रजा की भलाई के लिए कार्य किया, जिसके शासन में प्रजा पर करों का बोझ कम से कम रहा हो और धार्मिक-भेदभाव न किया गया हो तथा साहित्य, कला, व्यापार, विज्ञान एवं अन्य क्षेत्रों में राज्य ने चहुंमुखी प्रगति की हो।
कुछ तत्कालीन मुस्लिम इतिहासकारों ने औरंजगेब की कट्टरता के कारण ही उसे आदर्श समझकर उसका महिमामंडन किया और ‘जिंदा-पीर’ की उपाधि दी। बाद के कुछ इतिहासकारों ने भी इसी आधार पर उसका महिमामंडन किया, जो तथ्यों से मेल नहीं खाता। क्या उसे सिर्फ इसलिए महान कहना चाहिए कि उसने भारतीय उपमहाद्वीप के बड़े भू-भाग पर राज किया? बड़ा राज्य शासक की महानता का प्रमाण नहीं है।
औरंगजेब ने जिस प्रकार गद्दी प्राप्त की, उस पर ज्यादा कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि तब उत्तराधिकार अन्य दावेदारों या शासक का कत्ल करके ही हासिल किया जाता था। औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहां के जीवित रहते ही गद्दी पाने के लिए अपने भाइयों से युद्ध लड़ा। उसने भाई दारा शिकोह को झूठा आरोप लगाकर मारा कि उसने इस्लाम के विरुद्ध कार्य किया है।
दारा को निर्ममता से मारा और उसका सिर कलम कर पिता शाहजहां को तश्तरी में पेश किया। क्या इसे हद दर्जे की क्रूरता नहीं कहा जाएगा? उसने दारा के पुत्र सुलेमान और अपने भाई मुराद को भी धोखे से मरवाया। अपने पिता शाहजहां को पानी के लिए तड़पाया और मरते दम तक कैदखाने में रखा। शाहजहां के जनाजे में भी शामिल नहीं हुआ। उसके डर से अन्य दरबारी भी जनाजे में शामिल न हो सके। शाहजहां को मामूली नौकरों और किन्नरों द्वारा दफनाया गया।
जो यह साबित करना चाहते हैं कि औरंगजेब ने हिन्दुओं को भी नौकरी दी, तो उन्हें यह जानना चाहिए कि इसके पीछे उसकी राजनीतिक मजबूरी थी, क्योंकि शिवाजी तथा उनके वंशजों को वश में करने के लिए वह उन सभी हिन्दू सरदारों को अपनी सेना में भर्ती कर उन्हें जागीरें देता गया, जो उनके विरोधी थे। दो-तीन जागीरदारों को छोड़कर अन्य हिन्दू जागीरदार औरंगजेब के दरबार में उच्च-पदों पर नहीं थे।
औरंजगेब ने यही कोशिश की कि हिन्दुओं को प्रशासन में कम से कम अवसर दिए जाएं। इसके लिए उसने राजस्व-विभाग में लगे हिन्दुओं को नौकरियों से हटाने का कार्य किया, किंतु जब लगान वसूलने का कार्य संभव नहीं हो सका, तब हिन्दुओं को पुनः नियुक्तियां दीं। विद्रोह सभी शासकों के काल में होते रहे हैं, किंतु औरंगजेब के सनक भरे तौर-तरीकों के चलते उसके काल में विद्रोहों की झड़ी लग गई थी। उसके खिलाफ राजपूतों, जाटों, बुंदेलों, सिक्खों, एवं संन्यासियों के विद्रोह देखने को मिलते रहे।
उसे सबसे अधिक नुकसान मराठों ने पहुंचाया। वह उनसे पार नहीं पा सका। अकबर ने गैर-मुस्लिमों से जिस जबरिया उगाही ‘जजिया’ पर रोक लगाई थी, औरंगजेब ने उसे फिर से शुरू किया। लगभग उसी समय उसने हिन्दू व्यापारियों पर लगाए जाने वाले कर को भी दोगुना कर दिया और मुस्लिम व्यापारियों से लिया जाने वाला कर पूर्णतः समाप्त कर दिया। जिस तरह उसने बनारस के विश्वनाथ मंदिर, मथुरा के केशवदास मंदिर, सोमनाथ मंदिर के अतिरिक्त सैकड़ों मंदिरों को तुड़वाया, वह उसके मतांध होने का प्रमाण है।
उसने सिक्खों के नौवें गुरु तेगबहादुर और उनके साथियों को इसलिए निर्ममता से मारा, क्योंकि वे इस्लाम कुबूल करने को तैयार नहीं थे। गैर-मुस्लिमों का मतांतरण करने के लिए उसने ऐसी नीति बनाई, जिसके तहत यदि चोर, डाकू, हत्यारे इस्लाम स्वीकार कर लेते तो उन्हें छोड़ दिया जाता था।
उसने अकबर द्वारा प्रचलित झरोखा-दर्शन, तुला-दान जैसी प्रथाओं को बंद कर दिया। संगीत पर भी प्रतिबंध लगाया। कुछ लोग तर्क देते हैं कि वह रात-रात भर जागकर राजकीय-कार्य करता था। इसके पीछे वास्तविकता यह है कि वह किसी पर और यहां तक कि अपने पुत्र, पुत्रियों एवं दरबारियों पर विश्वास नहीं करता था। इसीलिए सारे कार्य स्वयं करता था।
औरंगजेब की गलत नीतियों के कारण ही मुगलों का पतन हुआ। जिसके काल में बहुसंख्यक समाज पर भयानक अत्याचार हुए, जिसके काल में भीषण वित्तीय संकट आया और जिसके काल में सबसे ज्यादा विद्रोह हुए, क्या ऐसे शासक को महान कहा जा सकता है? वास्तव में ऐसे क्रूर और असफल शासक को महान बताना मानसिक दिवालिएपन के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।