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अब सामाजिक व सरकारी व्यवस्थाओं में परिवर्तन का समय…..

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“यदि कर्म उत्कृष्ट करना है और उससे परेशान न होना है तो कर्म करने की रूचि होनी चाहिए. दूसरी बात यह है कि हम जिनके लिए काम करें, उनके प्रति हमारे मन में प्रेम हो.”

–        पांडुरंग सदाशिव साने

रवि प्रकाश

मानव सभ्यता के विकास में मानवों ने जब परिवार, कुटुंब, समाज में संगठित होना आरम्भ किया, उसके पहले वह अपने विकास की अनेकानेक अवस्थाओं और पड़ावों से गुजर चुका था. सहस्राब्दियों की अपनी विकास-यात्रा में मानव समाज अनेक उतार-चढ़ाव और निर्माण-ध्वंस के बाद आधुनिक स्वरुप प्राप्त कर सका है. हवाओं का रुख भाँपने से लेकर अंतरिक्ष की अनंत गहराई में विचरण करने तक की इस यात्रा में हमने अनेक व्यवस्थाएं बनाई. धरती के अलग-अलग हिस्सों में अनेक समाजों ने अपनी-अपनी व्यवस्थाओं का निर्माण किया. सप्तसिन्धवः की पावन भरत-भूमि ने भी अपने समाज और अपनी व्यवस्थाओं का निर्माण किया. विश्व के प्राचीनतम साहित्यों में इस भूमि की महान गाथाएं अंकित हैं. मानव ही नहीं, समस्त प्राणी जगत के गूढ़ रहस्यों की व्याख्या करने वाला भूभाग यही रहा है. ब्रह्माण्ड के कण-कण के अनुभवों से ओत-प्रोत भरत-भूमि ने विश्व को जीवन की राह दिखाई. जहाँ सूर्य की किरणों का प्रवेश नहीं, वहाँ इस भरत-भूमि की आध्यात्मिक दिव्य दृष्टि ने प्रकृति के अज्ञात रहस्यों का उद्भेदन किया. अनेक आक्रान्ताओं-हंताओं के प्रबल प्रहारों को अटल-अविचल शौर्य से निष्प्रभावी-निष्फल करते हुए हमारे देश ने अपनी विशिष्ट संस्कृति और पहचान का संरक्षण किया. और लगभग 700 वर्षों की दासता से मुक्त हमारा भारत आज से लगभग 73 वर्ष पहले एक नयी राह के निर्माण पर बढ़ चला.

इन 73 वर्षों का इतिहास मुख्यतः तीन कालखंड में विभाजित किया जा सकता है – कांग्रेस का शासन काल, गैर-कांग्रेस संयुक्त शासन काल और भाजपा शासन काल. इन तीनों काल में स्वातंत्र्योत्तर भारत के विकास का विश्लेषण एक विषद विषय है. संक्षेप में हम कह सकते हैं कि विकास का तब तक कोई अर्थ नहीं रहता, जब तक कि उसका सम्यक सम्बन्ध देश की मिट्टी से नहीं हो. देश की मिट्टी का अभिप्राय भारत की मूल सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों से है. पश्चिमी चश्मे से दुनिया को देखने के आदि और वैश्विक राजनीति-विशारद के रूप में ख्याति के लोभ में विकास की जो राह चुनी गयी, उसका निर्माण इस देश की मिट्टी से नहीं हुआ था. मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ कह सकता हूँ कि पंडित नेहरू न तो अपने दौर के भारत को जान पाए, न भविष्य के भारत की ज़रुरत समझ पाए थे. अंग्रेजों की दासता से निकलने के पश्चात भी ब्रिटेन की प्रशंसा की उनकी लालसा बनी रही. पाश्चात्य समाज की नकल पर विकास की अवधारणा की अवैज्ञानिकता पंडित नेहरू के जीवन-काल में ही परिलक्षित होना आरम्भ हो गई थी. देश की कार्बनिक काया में अकार्बनिक तत्वों के बलात अन्तःक्षेपण की जो स्वाभाविक परिणति होनी चाहिए थी, वह हो गयी. विकास की राह पर कहीं-कहीं रमणीय स्थल बन गए. वे स्थल पद, प्रतिष्ठा, प्रभाव और पराक्रम से संपन्न कुछ लोगों के विलास-स्थल बन गए और बाकी पूरी राह उबड़-खाबड़, कीचड़ और दलदल से भरी रह गयी. देश की विशाल बहुमत जनता इसी कीचड़ और दलदल में जीने को अभिशप्त कर दी गयी. भ्रष्टाचार ब्रिटिश उपनिवेश का कभी न डूबने वाला सूरज बन गया. असमान विकास ने देश को कई टुकड़ों में विभक्त कर दिया.

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ऐसे ही सिलसिले के बीच अटल जी ने देश का नेतृत्व थामा और उनके मौलिक चिंतन की रश्मि किरणों ने देश में फैले अन्धकार को चीरना आरम्भ कर दिया. जिन स्थानों के लोग केवल सिनेमा और तस्वीरों में देखकर कल्पना किया करते थे, उन स्थानों पर भी स्वर्णिम चतुर्भुज की बाहें फ़ैलाने लगीं. भारत ने पहली बार निर्माण का एक ऐसा महाअभियान देखा कि दुनिया चकित रह गयी. वहाँ से इस देश ने एक मोड़ लिया और भविष्य की एक नयी राह पकड़ी. बीच के 10 साल के विचित्र काल-खंड के पश्चात अटल जी की विरासत को थामे 2014 में इस देश ने पुनः एक करवट ली. मेरा विषय इसी करवट से उत्पन्न सपने को लेकर है. उस सोच को लेकर है कि स्वातन्त्र्योत्तर भारत के इतिहास की गलतियों को ठीक करते हुए विकास की राह पर देश कैसे चले जिससे कि स्वामी विवेकानंद की वह उक्ति साकार हो सके, जिसमें उनहोंने कहा था – “पूजा सबसे पहले विराट की होनी चाहिए.” विराट, वह विराट जो हमारे देश के करोड़ों वंचित, शोषित, दलित और पीड़ित लोगों की आँखों में परिलक्षित होता है. लकड़ी से जलने वाले चूल्हे के धूमन और दहन से देश की माताओं को मुक्त करना हो; देश की माताओं-बहनों के आत्मसम्मान की रक्षा के लिए शौचालय की व्यवस्था हो; आश्रयविहीन लोगों को दीवारें,  दरवाजे, खिड़कियाँ और छत उपलब्ध कराना हो; शहरों से लेकर गाँवों तक सड़कों-गलियों को विद्युत् प्रकाश से जगमगाना हो; अवसर से वंचित बलशाली युवा भुजाओं को उत्पादक सक्रियता प्रदान करने के लिए अवसर और धन उपलब्ध कराना हो; समाज के उपेक्षित-वंचित उस विराट के लिए 2014 के बाद जितने काम हुए वह नए भारत की आशा को संबल प्रदान करते हैं. इसी कड़ी में एक प्रश्न मन को मथता है कि विकास की इस नयी धारा को और तेज कैसे किया जाए. इसी सन्दर्भ में हमारी दृष्टि उन व्यवस्थाओं पर जाती है, जिन्हें हमने निर्मित किया है. उन ही व्यवस्थाओं का एक हिस्सा है “बाबुओं की व्यवस्था” – The System of the Bureaucracy. देश बदल रहा है. देश बढ़ भी रहा है. देश और तेजी से बदल सकता है, अगर बाबू में कुछ बदलाव हो जाए, बाबुओं की व्यवस्था थोड़ी बदल जाए………….क्रमशः

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