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हमारी समृद्ध धरोहर – तंजावूर / २

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प्रशांत पोळ

तंजावूर के बृहदेश्वर मंदिर के बारे में एक और विशेषता है, दुर्भाग्य से जिसकी ज्यादा चर्चा नहीं होती. यह है – बृहदेश्वर मंदिर की दीवारों पर बने शतकों पुराने चित्र (paintings/frescoes). इनमें से अधिकतम चित्र मंदिर निर्माण के समय से हैं, और आज भी एकदम ताजे और नए लगते हैं. इन चित्रों को बनाने में प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया गया है. और ये सारे रंग ऐसे हैं, कि आज भी उतने ही उठावदार तथा चमकदार लगते हैं.

यह चित्र लोगों के सामने आए, वह भी दुर्घटना से. दिनांक ८ अप्रैल, १९३१ को, मद्रास के अन्नामलाई विश्वविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक एस.के. गोविन्दस्वामी जब मंदिर के चारों ओर बने अंधेरे से बरामदे में से गुजर रहे थे, तब उन्हें दीवार के निकलते प्लास्टर के पीछे एक सुंदरसा चित्र दिखा. उनका कौतूहल जागृत हुआ. और फिर जब मंदिर प्रशासन के सहयोग से पैसेज (बरामदे) की सारी दीवारों को साफ किया गया, तो उनमें भारतीय पुराणों में वर्णित अनेक कथाएं चित्रमय स्वरूप में प्रकट हुईं.

जब उनका रासायनिक विश्लेषण किया गया, तो पता चला कि सारे चित्र, चोला समय के हैं. अर्थात् एक हजार वर्ष पुराने..!

स्वाभाविक है, इन सभी चित्रों में प्राकृतिक (नैसर्गिक) रंगों का ही प्रयोग हुआ है. आज के प्रगत जमाने में, जब अत्याधुनिक तकनीकी से बने रंग, दस/ बीस वर्षों में ही फीके पड़ने लगते हैं, तब इस मंदिर में बने भित्तिचित्र, एक हजार वर्ष बाद भी तरोताजा लगते हैं. एक हजार वर्ष तक सारे ऋतु, उनकी न्यूनता – प्रखरता झेलना, कृमि – कीटकों के आक्रमण से दो हाथ होना और फिर भी नए जैसे दिखना, यह अद्भुत है. उन दिनों किस प्रकार के रंगों का प्रयोग होता था, वे रंग कैसे बनते थे, वे पत्थर को/दीवार को कैसे पकड़ लेते थे, उन पर मौसम का असर क्यूं नहीं होता था… आदि प्रश्नों पर अनुसंधान होना आवश्यक है.

अजंता के चित्र लगभग डेढ़ हजार वर्ष पुराने हैं, तो बृहदेश्वर मंदिर के एक हजार वर्ष. किन्तु अजंता को जैसा देश – विदेश में जबरदस्त प्रचार मिला, उसका छोटा सा अंश मात्र भी इस मंदिर को नसीब नहीं हुआ. आज यह मंदिर, युनेस्को ने ‘वर्ल्ड हेरिटेज साइट’ में शामिल किया है. किन्तु इसके चित्रों के रखरखाव की या सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है.

इसमें अधिकतम चित्र पौराणिक है. स्वाभाविकतः भगवान शिव से संबंधित ज्यादा हैं. साथ में समकालीन चित्र भी हैं – जैसे राजा राजराजा चोल तथा उनके गुरु कुरुवुरार जी का एक ऊंचा, आदमक़द पेंटिंग है. नृत्य आविष्कार के, नृत्य करने वाली महिलाओं के तथा संगीतकारों के भी चित्र हैं. मंदिर के चारों ओर, जिस बरामदे में यह चित्र बनाए हैं, वहां पर चित्र कैसे बनाए होंगे, इसका उत्तर नहीं मिलता. बड़े चित्रों को दूर से देखकर/अंदाज लेकर, वैसा प्रमाण लेकर बनाया जाता है. यहां तो दस – दस फीट से भी ज्यादा लंबे चित्र हैं. किन्तु उन्हें दूर से देखने का प्रावधान ही नहीं है.

कुछ स्थानों पर छत के हिस्से में भी पेंटिंग की गई है. विशेषतः भव्य नंदी जहां है, उस छत की पेंटिंग तो हजार वर्ष पुरानी कतई नहीं लगती. ऐसा लगता है, मानो अभी दो – पांच वर्ष पहले ये सारे चित्र बनाए होंगे.

इस मंदिर में दो प्रकार के चित्र बने हैं. एक तो जिन्हें हम सब देख सकते हैं. विशेषतः चारों ओर के बरामदे की दीवारों पर (मंदिर के चारों ओर बना बरामदा कितना बड़ा होगा, इसका अंदाज इसी से होता है, कि मंदिर की कुल लंबाई २४० मीटर और चौड़ाई १२० मीटर है), छतों पर आदि. लेकिन इसी के साथ, मंदिर के अंदर एक गोपनीय रास्ता या सुरंग भी है, जो राजा राजराजा चोला के महल को जोड़ती थी. इस सुरंग में भी अनेक सुंदर चित्र बनाए गए हैं, जिनके फोटो लेने की अनुमति नहीं है.

ये सारे दीवारों पर बनाए गए चित्र (frescoes) इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि हमारे यहां हजार वर्ष पहले कला कितनी प्रगत थी. चित्रकला के साथ ही उसको बनाने में लगे रंग भी हमारी प्रगत तकनीकी दिखाते हैं. अर्थात डेढ़ हजार वर्ष पहले की हमारी अजंता की चित्रकला परंपरा, चोल शासन तक अक्षुण्ण रही…!

संक्षेप में, हमारे यहां तंजावूर के बृहदेश्वर मंदिर जैसा तकनीकी (इंजीनीयरिंग) का, वास्तुकला का, चित्रकला का, मूर्तिकला का इतना जबरदस्त उदाहरण प्रत्यक्ष सामने है, और फिर भी हमारे नसीरुद्दीन शाह कह रहे हैं, ‘भारत को तो मुगलों ने बनाया…!’

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