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हमारी समृद्ध धरोहर – तंजावूर / ३

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प्रशांत पोळ

शायद ललाट पर भाग्य की रेखा खींचकर मैं इस प्रवास पर निकला था. दक्षिण तमिलनाडु के तंजावूर के मंदिर देखने/दिखाने की व्यवस्था की गई थी. तंजावूर के ही आई.टी. व्यवसायी दिनेश कुमार जी मेरे साथ थे. वे बृहदेश्वर मंदिर के प्रबंधन का एक हिस्सा हैं. इसलिए मंदिर दर्शन तो बहुत अच्छे से हुआ. तब तक भोजन का समय हो रहा था. दिनेश जी ने कहा, “आपके भोजन की व्यवस्था स्वामी जी के साथ की गई है”.

मेरी प्रश्नार्थक मुद्रा देखकर उसने कहा, स्वामी जी अर्थात् ‘स्वामी ब्रह्मयोगानन्द जी’. स्वामी जी संघ के प्रचारक रह चुके हैं. अभी सन्यासी हैं. नर्मदा परिक्रमा कर चुके हैं. ओंकारेश्वर में दो वर्ष मौनावस्था में थे. उनका आभामंडल और शिष्यवर्ग बहुत बड़ा है. स्वामी जी कुंभकोणम में संघ के प्राथमिक शिक्षा वर्ग को संबोधित करने जा रहे थे. रास्ते में मेलकोट में उनका भोजन का कार्यक्रम था.

मेलकोट में स्वामी जी की व्यवस्था ‘अग्रहारा’ में थी. ये ‘अग्रहारा’ या ‘अग्रहारम’, दक्षिण भारत में विशेष प्रकार की व्यवस्था होती है. प्राचीन समय में, राजा या राजवंश, वेदाध्ययन करने के लिए तथा मंदिरों की चिंता करने के लिए ब्राह्मणों को जमीन देते थे और कुछ सहायता भी करते थे. इन ब्राह्मणों का कर्तव्य होता था कि वैदिक परंपराओं को जीवित रखना. इसीलिए बहुत पहले इन अग्रहारम को ‘चतुर्वेदमंगलम’ कहा जाता था. इन अग्रहारम घरों में ब्राह्मण / सन्यासी / संत रुक सकते हैं. पूरी शुचिता और पावित्र्य के साथ उनकी व्यवस्था रखी जाती है. मूलतः ये अग्रहारम, गृहस्थ परिवार चलाते हैं.

मेलकोट में जिस अग्रहारम में मैं गया, वह अत्यंत साधारण सा घर था. लगभग साठ – सत्तर वर्ष पुराना तमिल घर. अंदर प्रवेश करते ही एक पवित्रता का भाव जागृत होता था. हम कुछ विलंब से पहुंचे थे, तब तक स्वामी जी का भोजन प्रारंभ हो गया था. उनके शिष्यों के साथ हम जमीन पर आलथी – पालथी मार कर बैठे.. सामने केले के पत्तों पर तमिल भोजन परोसा जा रहा था. परोसने वाली बहनों ने परंपरागत शैली से साड़ी पहनी थी. यजमान तमिल शैली से पीतांबर पहने थे. भोजन अत्यंत स्वादिष्ट था, परंपरागत तमिल पद्धति का. अनेक व्यंजन थे. पीछे बड़े सुरीले आवाज में संस्कृत के श्लोक बज रहे थे. वातावरण में पावित्र्य भरा था. बाद में स्वामी जी से आनंदमयी वार्तालाप हो रहा था.

मेरे भाग्ययोग ने मुझे यह अनुभव कराया..!

दिनेश जी के साथ फिर तंजावूर वापस आया. तंजावूर के राजा भोसले जी का सरस्वती महल देखना था. यह महल साधारण सा है. तामझाम नहीं है. बिलकुल नाम के अनुसार ही सरस्वती का निवास स्थान है. इसे बनाया, विजयनगर के नायक काल में. तब इसे ‘सरस्वती भंडार’ कहते थे. बाद में मराठों जब तंजावूर को जीत लिया, तब स्थानिक परंपराओं को अबाधित रखते हुए, इसका स्वरूप कायम रखते हुए, विकास किया गया.

तंजावूर के भोसले यह छत्रपति शिवाजी महाराज के सौतेले भाई. यह वंश तंजावूर में ही फलता – फूलता गया. पीढ़ी – दर पीढ़ी इस वंश के राजाओं ने सरस्वती की आराधना जारी रखी. ये सभी राजा ज्ञान के उपासक और कला के प्रति समर्पित थे. विशेषतः सर्फरोजी भोसले (१७९८ – १८३२) के समय इस महल में अनेक अमूल्य वस्तुएं जमा की गईं. दुनिया भर की अनेक वस्तुओं का संग्रह यहां है. एक-से-एक बढ़िया पेंटिंग्स हैं. अनेक दुर्लभ पांडुलिपियाँ हैं, जिनकी संख्या लाखों में है. भुर्जपत्र पर लिखी पांडुलिपियाँ. अति प्राचीन कागजों पर लिखे ग्रंथ, ताम्रपत्र… इतिहास खंगालना हो, तो यह सब देखना अनिवार्य हो जाता हैं. हजारों प्रकार के ग्रन्थों का संग्रह है. अनेक प्राचीन चित्र हैं. एक दिन में पूरा महल देखना संभव ही नहीं है.

लकड़ी के खिलौनों के लिए प्रसिद्ध तंजावूर, हमारी परंपराओं का, ज्ञान के भंडार का, धार्मिकता का और हमारी संपन्न संस्कृति का केंद्र हैं. धरोहर हैं…!

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