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पाकिस्तान एक ऐसी विषाक्त वैचारिक परियोजना है, जिसकी नींव केवल भारत-हिन्दू विरोधी घृणा पर केंद्रित है। 12 मार्च को ही पाकिस्तानी पंजाब के शिक्षा विभाग ने ‘अनैतिकता-अश्लीलता’ के नाम पर स्कूल-कालेजों में हिंदी गीतों पर प्रतिबंध लगा दिया। फिर पश्चिमी नाच-गानों पर पाबंदी क्यों नहीं लगी?
बलबीर पुंज
पिछले दिनों बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी (बीएलए) के अलग-अलग हमलों में पाकिस्तानी सैनिकों सहित कई लोग मारे गए। हालात इतने बिगड़े कि फौज और राजनीतिक दलों को आनन-फानन बैठकें बुलानी पड़ीं। पाकिस्तान के हालिया घटनाक्रम ने कई अनकहे और कटु सत्य उजागर किए हैं।
पहला, यह कि पाकिस्तान कोई राष्ट्र नहीं, अपितु औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा अपने निहित स्वार्थ के लिए बनाई एक कृत्रिम इकाई है। दूसरा, विश्व के जिस मानचित्र पर पाकिस्तान है, वहां के अधिकांश लोग इस्लाम के नाम पर न तो देश का विभाजन चाहते थे और न ही पाकिस्तान की अवधारणा का समर्थन करते थे। कई आज भी उसके विरोधी हैं।
तीसरा, इस्लाम के नाम पर वैश्विक मुस्लिम सहयोग-एकता को बल देता ‘उम्माह’ केवल किताबी बात है। इसका व्यावहारिकता से कोई लेना-देना नहीं। सुर्खियों में छाए बलूचिस्तान की बात करें तो उसका हजारों वर्ष पुराना इतिहास है। सातवीं शताब्दी में मुस्लिम आक्रांताओं के भारत पर हमले के बाद यहां इस्लाम का प्रभाव बढ़ा।
हिन्दुओं के प्रमुख शक्तिपीठ में से एक हिंगलाज माता मंदिर आज भी यहां विद्यमान है। ब्रिटिश शासन के समय बलूचिस्तान पर कलात रियासत का शासन था। 1876 में दोनों के बीच संधि हुई और वह सशर्त ब्रिटिश अधीनस्थ राज्य बन गया। 1947 में विभाजन के बाद कलात ने स्वतंत्र रहने का अधिकार चुना, लेकिन मार्च 1948 में मोहम्मद अली जिन्ना के निर्देश पर पाकिस्तानी सेना ने बलपूर्वक हड़प लिया। तब से यह बलूचों के लिए ‘राष्ट्रीयता और आत्मनिर्णय के संघर्ष’ का प्रतीक बना हुआ है।
पाकिस्तान में अलगाववाद केवल बलूचिस्तान तक सीमित न होकर सिंध और पश्तून क्षेत्र तक फैला हुआ है। बलूचिस्तान के अतिरिक्त सिंध, पंजाब और खैबर पख्तूनख्वा में भी विभाजन पूर्व इस्लाम के नाम पर अलग देश का विरोध था। सिंध इत्तेहाद पार्टी के शीर्ष नेता अल्लाबख्श मुहम्मद उमर सूमरो अविभाजित भारत में सिंध के दो बार प्रधानमंत्री रहे।
उन्होंने मजहब के आधार पर अलग देश बनाने की अवधारणा को इस्लाम विरोधी बताया था। 1943 में अल्लाबख्श की हत्या कर दी गई, जिसमें मुस्लिम लीग के हाथ होने का संदेह जताया गया। 1945 तक अविभाजित पंजाब में भी पाकिस्तान के लिए कोई राजनीतिक समर्थन नहीं था। 1937 के प्रांतीय चुनाव में पंजाब के लोगों ने घोर मजहबी मुस्लिम लीग के बजाय ‘सेक्युलर’ यूनियनिस्ट पार्टी को चुना।
इस दल ने सिकंदर हयात खान के नेतृत्व में अकाली दल और कांग्रेस के साथ मिलकर पंजाब में सरकार बनाई। सिकंदर ने 1940 के ‘पाकिस्तान प्रस्ताव’ को अस्वीकार कर दिया। उनके निधन के बाद रसूखदार मलिक खिजर हयात तिवाना ने 1942 से पंजाब सरकार की बागडोर संभाली। जिन्ना ने तिवाना पर दबाव बनाया, लेकिन तिवाना झुके नहीं और पंजाब में हिन्दुओं, सिक्खों और मुसलमानों के साथ मिलकर काम करने की घोषणा कर दी।
इससे खिन्न जिन्ना ने पंजाब में मजहबी उन्माद भड़काया। यूनियनिस्ट पार्टी बिखर गई और 1946 के चुनाव में पंजाब मुस्लिम लीग की झोली में चला गया। राजनीति से संन्यास लेकर जब तिवाना अक्टूबर 1949 में नवगठित पाकिस्तान के पंजाब पहुंचे, तब वहां की इस्लामी सरकार ने खुन्नस निकालते हुए उनकी अपार संपत्ति जब्त कर ली। मजहबी उत्पीड़न से बचने के लिए वह अमेरिका जाकर बस गए और 1975 में वहीं अंतिम सांस ली।
खैबर पख्तूनख्वा में भी पाकिस्तान के लिए समर्थन नहीं था। 1946 के प्रांतीय चुनावों में मुस्लिम लीग को व्यापक समर्थन नहीं मिला था। सीमांत गांधी कहे जाने वाले सरदार अब्दुल गफ्फार खां की कर्मभूमि ने विभाजन का कड़ा विरोध किया था। गफ्फार ने पश्तूनों की स्वायत्तता हेतु संघर्ष किया, जिसके कारण उनका अधिकतर समय जेल या फिर निर्वासन में बिता। इसी तरह जब पूर्वी पाकिस्तान में बांग्ला पहचान को पाकिस्तानी सत्ता-अधिष्ठान बार-बार कुचलता रहा, तब शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व में उठी विद्रोह की आग ने 1971 में बांग्लादेश को जन्म दिया। अब यही स्थिति बलूचिस्तान में दिख रही है।
यह पहली बार नहीं है, जब ‘उम्माह’ पर प्रश्नचिह्न लगा हो। यदि ‘उम्माह’ वाकई व्यावहारिक है, तो सऊदी-ईरान, तुर्की-सीरिया और पाकिस्तान-अफगानिस्तान में शत्रुभाव का कारण क्या है? अहमदिया मुस्लिमों की पाकिस्तान निर्माण में बहुआयामी भूमिका थी। 1940 में पाकिस्तान के मजहबी विचार को अहमदिया मुस्लिम मुहम्मद जफरुल्लाह ने ही लेखबद्ध किया था। वह पाकिस्तान के पहले विदेश मंत्री बने और संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर के मुद्दे पर भारत के खिलाफ पैरवी भी करते थे।
जब अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला किया, तब अहमदिया मुस्लिमों के खलीफा मिर्जा बशीर-उद-दीन महमूद अहमद ने भारतीय सेना के खिलाफ ‘फुरकान फोर्स’ जैसा सैन्यबल बनाया। सोचिए, इस्लाम के नाम पर सपनों के जिस देश के लिए अहमदिया मुसलमान लड़े, उसी पाकिस्तान में उन्हें मजहबी कारणों से 1974 में गैर-मुस्लिम घोषित कर दिया गया। तब से वे भी अन्य ‘काफिरों’ की भांति मजहबी प्रताड़ना के शिकार हैं।
पाकिस्तान एक ऐसी विषाक्त वैचारिक परियोजना है, जिसकी नींव केवल भारत-हिन्दू विरोधी घृणा पर केंद्रित है। 12 मार्च को ही पाकिस्तानी पंजाब के शिक्षा विभाग ने ‘अनैतिकता-अश्लीलता’ के नाम पर स्कूल-कालेजों में हिंदी गीतों पर प्रतिबंध लगा दिया। फिर पश्चिमी नाच-गानों पर पाबंदी क्यों नहीं लगी?
पाकिस्तान अपनी मौलिक पहचान को भारतीय सांस्कृतिक जड़ों से काटकर खाड़ी देशों की अरब संस्कृति में समाहित करने का असफल प्रयास कर रहा है। पाकिस्तान में 40 प्रतिशत से अधिक लोगों के पंजाबी भाषी और उर्दू-अंग्रेजी राजभाषा होने के बाद भी विदेशी फारसी लिपि में कौमी तराना (राष्ट्रगान) होना इसका ही प्रमाण है। इन्हीं विरोधाभासों के कारण पाकिस्तान गहरे राजनीतिक, सामाजिक, भौगोलिक और आर्थिक संकट में है, जो उसे लंबे समय तक एक इकाई के रूप में एकजुट नहीं रहने देगा।