अपनी यह पुण्यभूमि भारत वीर प्रसूता है. यहाँ हर युग, हर काल में वीर-वीरांगनाओं ने जन्म लिया, जिनके व्यक्तित्व एवं कर्त्तृत्व के आगे सारा संसार सिर झुकाता है. वीर-वीरांगनाओं ने समय के शिलालेख पर अमिट अक्षरों में कर्म एवं पुरुषार्थ की उज्ज्वल कहानियाँ लिखीं. किसी ने युद्ध के मैदान में अपनी तेजस्विता की चमक बिखेरी तो किसी ने मानव-मात्र के कल्याण के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया. ऐसी ही एक तेजस्विनी-महिमामयी नारी थीं – महारानी अहिल्यादेवी होलकर.
उन्होंने भारतीय संस्कृति के कीर्ति-ध्वज को तो दसों-दिशाओं में फहराया ही, हिन्दू परंपराओं एवं मान्यताओं के अनुकूल आदर्श शासन एवं राज-व्यवस्था की भी स्थापना की. उनका जीवन और शासन लोक-कल्याण को समर्पित था. समाज एवं राष्ट्र के लिए जब आवश्यकता पड़ी, उन्होंने खड्ग भी धारण किया तो धर्म का कीर्ति-ध्वज फहराए रखने के लिए.
महारानी अहिल्यादेवी होलकर का जन्म 31 मई, 1725 को महाराष्ट्र के चौंडी नामक गाँव में एक सामान्य किंतु प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था. उनके पिता मानको जी शिंदे एक संस्कारक्षम व्यक्ति थे. उन्होंने छोटी अहिल्या में बचपन से ही धार्मिक एवं राष्ट्रीय संस्कारों का भाव भरा था. उस दौर में भी पिता ने उन्हें पढ़ाने-लिखाने की समुचित व्यवस्था की थी. उन दिनों छोटी आयु में भी विवाह की प्रथा प्रचलित थी. सनातन समाज सदैव वैज्ञानिक तौर-तरीकों से जीवन जीता आया है. महान भारत वर्ष में तो स्वयंवर तक की प्रथा रही, जहाँ कन्या गुणों के आधार पर वर का वरण करती थी. पर विधर्मियों एवं विदेशी आक्रांताओं से अपनी ललनाओं की रक्षा के लिए काल-विशेष में सनातन समाज में बाल विवाह एवं पर्दा प्रथा जैसी रूढ़ियाँ प्रचलित हो गईं थीं, जो समय के साथ स्वतः समाप्त प्रायः हो चली हैं.
कहते हैं कि पुणे जाते समय मालवा राज्य के पेशवा मल्हारराव होलकर की दृष्टि 8 वर्षीय अहिल्यादेवी पर पड़ी. वे उनके गुणों से बहुत प्रभावित हुए. उतनी छोटी अवस्था में भी वह गरीबों और भूखों की सहायता कर रही थीं. उनकी निष्ठा एवं परोपकारिता से प्रभावित होकर मल्हारराव ने उनके पिता मानको जी से उनका हाथ अपने बेटे खंडेराव के लिए माँगा.
उनका विवाह इंदौर राज्य के संस्थापक एवं पेशवा मल्हारराव होलकर के पुत्र खंडेराव के साथ धूमधाम से संपन्न हुआ. महारानी अहिल्यादेवी ने 1745 में एक पुत्र एवं उसके तीन वर्ष पश्चात एक कन्या को जन्म दिया. पुत्र का नाम मालेराव और कन्या का नाम मुक्ताराव रखा गया. कहा जाता है कि खंडेराव में भी जिम्मेदारी-बोध का स्फुरण-जागरण महारानी अहिल्यादेवी की प्रेरणा से ही हुआ. वे उन्हें राज-काज एवं शासन-व्यवस्था में सहयोग प्रदान करती थीं. उन्होंने बड़ी कुशलता से अपने पति के स्वाभिमान एवं गौरव-बोध को जागृत किया. अपने पिता के मार्गदर्शन में खंडेराव कुशल योद्धा एवं निपुण शासक बनते जा रहे थे. मल्हारराव होलकर अपनी पुत्रवधू अहिल्यादेवी को भी राज-काज की शिक्षा देते रहते थे. अपनी पुत्रवधू की बुद्धि, कार्य-कुशलता, नीति-निपुणता से बहुत प्रसन्न थे. परंतु दुर्भाग्य से 1754 ई. में खंडेराव का निधन हो गया. 1766 ई. में मल्हारराव भी इस संसार को छोड़कर देवलोक गमन कर गए. श्वसुर के देहावसान के पश्चात अहिल्यादेवी के नेतृत्व में उनके बेटे मालेराव होलकर ने शासन की बागडोर संभाली. पर उस समय अहिल्यादेवी और मालवा पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा, जब 5 अप्रैल ,1767 को शासन की बागडोर संभालने के कुछ ही महीनों बाद उनके जवान बेटे की मृत्यु हो गई. वे असमय ही काल का ग्रास बन गए. कोई भी स्त्री जिससे थोड़े-थोड़े अंतराल पर उसके पति, श्वसुर, पुत्र का सहारा छिन जाए, उसके दुःख एवं मनःस्थिति की सहज ही कल्पना की जा सकती है! परंतु रानी अहिल्यादेवी ने नियति एवं परिस्थिति के आगे घुटने नहीं टेके. उन्होंने मालवा राज्य की प्रजा को अपनी संतान मानते हुए 11 दिसंबर, 1767 ई. को शासन की बागडोर अपने हाथों में ली. थोड़े ही दिनों में महारानी की लोकप्रियता राज्य भर में फैल गई. परिस्थितियों का लाभ उठाने के उद्देश्य से मालवा पर कुदृष्टि रखने वाले लोगों को मुँह की खानी पड़ी. अपने राज्य एवं प्रजा की रक्षा के लिए उन्होंने न केवल अस्त्र-शस्त्र उठाया, बल्कि अनेक युद्धों-मोर्चों पर स्वयं आगे आकर अपनी सेना का कुशल नेतृत्व किया. इतना ही नहीं, जब आवश्यकता पड़ी उन्होंने कूटनीति से भी काम लिया.
राज्य हड़पने के उद्देश्य से जब राघोवा पेशवा ने मालवा पर आक्रमण के लिए अपनी सेना भेजी तो महारानी अहिल्यादेवी के केवल एक पत्र से यह युद्ध टल गया और पेशवा ने उन्हें उनके राज्य की सुरक्षा का वचन दिया. उस पत्र ने पेशवा राघोवा की सुप्त चेतना को जागृत किया. उस पत्र के एक-एक शब्द ने उन पर नुकीले तीर-सा असर किया और उन्होंने महारानी से युद्ध का इरादा बदल दिया. महारानी इतनी कुशल एवं दूरदर्शी थीं कि व्यापारी बनकर आए अंग्रेजों और ईस्ट इंडिया कंपनी के फूट डालो और शासन करो की नीति को उन्होंने सबसे पहले भाँप लिया था. उन्होंने तत्कालीन पेशवा प्रमुख को इस संदर्भ में पत्र लिखकर सतर्क भी किया था.
उन्होंने अपने विश्वसनीय सेनानी सूबेदार तुकोजीराव होलकर (मल्हारराव के दत्तक पुत्र) को सेना-प्रमुख बनाया था. वे उन पर भरोसा करती थीं और तुकोजीराव भी उनके प्रति अखंड निष्ठा एवं श्रद्धा रखते थे.
महारानी अहिल्यादेवी का शासन-काल भले ही अल्प रहा, पर उन्होंने भावी भारत पर बहुत गहरा एवं व्यापक प्रभाव छोड़ा. अल्पावधि के अपने शासन-काल में उन्होंने अनगिनत निर्माण-कार्य करवाए. न केवल राज्य की सीमाओं के भीतर, बल्कि संपूर्ण भारत वर्ष के प्रमुख तीर्थों और स्थानों पर मंदिर बनवाए, पुराने मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया, कुँओं, तालाबों, बावड़ियों का निर्माण करवाया, मार्ग बनवाए, सड़कों की मरम्मत करवाईं, भूखों के लिए अन्नसत्र खुलवाए, प्यासों के लिए स्थान-स्थान पर प्याऊ लगवाए, तीर्थस्थलों पर धर्मशालाओं का निर्माण करवाया, शास्त्रों के अध्ययन-चिंतन-मनन-प्रवचन हेतु मंदिरों में विद्वान आचार्यों की नियुक्ति की.
आत्म-प्रतिष्ठा एवं प्रवंचना का मोह त्यागकर उन्होंने सदैव न्याय करने का प्रयत्न किया. कहते हैं कि वे इतनी न्यायप्रिय थीं कि एक बार अपने इकलौते एवं दत्तक पुत्र तक को मृत्युदंड देने को उद्धृत हो गई थीं. प्रजाजनों की विनती के बावजूद वह न्याय से टस से मस नहीं हुईं.
वे न्याय के संदर्भ में अपने समकालीन पुणे के न्यायाधीश श्री रामशास्त्री जी की परंपरा का अनुसरण करती थीं तो राजधर्म एवं वीरता में महारानी लक्ष्मीबाई जैसी उत्तरकालीन शासिकाओं पर उनका प्रभाव देखने को मिलता है. उनके जीवन-काल में ही जनता ने उन्हें ‘देवी’ समझना और कहना प्रारंभ कर दिया था. शासन और व्यवस्था के नाम पर जब देश में विधर्मियों और विदेशियों के अनाचार-अत्याचार का बोलबाला था, प्रजाजन-साधारण गृहस्थ, किसान-मजदूर-व्यापारी अत्यंत दीन-हीन अवस्था में जीने को अभिशप्त थे, जब समाज तरह-तरह के अंधविश्वासों और रूढ़ियों में जकड़ा हुआ था, ऐसे घोर अँधेरे कालखंड में महारानी अहिल्यादेवी का शासन वहाँ के प्रजाजनों के लिए किसी प्रकाशपुंज से कम नहीं!
13 अगस्त, 1795 को उनकी जीवन-लीला समाप्त हो गई. पर उससे पूर्व उन्होंने जो काम किया, वह इतिहास के पृष्ठों में स्वर्णाक्षरों में अंकित है. चाहे माहेश्वर को राजधानी बनाने का अभिनव प्रयोग हो या संपूर्ण हिन्दू समाज के गौरव और सनातन संस्कृति के केंद्र काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण व जीर्णोद्धार या अन्य लोक-मंगल की भावना से संचालित निःस्वार्थ सेवा-कार्य उन सबके पीछे महारानी अहिल्यादेवी की सनातन जीवन-दृष्टि, प्रजावत्सलता एवं कर्त्तव्यपरायणता थी.
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि महारानी अहिल्यादेवी ने न केवल अपने समय एवं समाज पर गहरा व व्यापक प्रभाव डाला, बल्कि सनातन संस्कृति एवं सरोकारों को जीने, समझने और अक्षुण्ण रखने के कारण उनका योगदान सदियों तक अमर एवं अविस्मरणीय रहेगा.