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शासकीय तंत्र में मानवीय मंत्र की स्थापना का सिद्धांत – एकात्म मानवदर्शन

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महान दार्शनिक प्लेटो के शिष्य व सिकंदर के गुरु अरस्तु ने कहा था – “विषमता का सबसे बुरा रूप है, विषम चीजों को एक समान बनाने का प्रयत्न करना.” The worst form of inequality is to try to make unequal things equal. एकात्म मानव दर्शन, विषमता को इससे बहुत आगे के स्तर पर जाकर हमें समझाता है.

भारत को देश से बहुत अधिक आगे बढ़कर एक राष्ट्र के रूप में और इसके निवासियों को नागरिक नहीं, अपितु परिवार सदस्य के रूप में मानने के विस्तृत दृष्टिकोण का अर्थ है एकात्म मानव दर्शन. मानवीयता के उत्कर्ष की स्थापना. यदि किसी राजनैतिक सिद्धांत में हो पाई है तो वह है पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय का एकात्म मानव दर्शन का सिद्धांत! एकात्म मानव दर्शन को दीनदयाल जी सैद्धांतिक स्वरूप में नहीं, बल्कि आस्था के स्वरूप में लेते थे. इसे उन्होंने राजनैतिक सिद्धांत के रूप में नहीं, बल्कि आत्मिक भाव के रूप में जन्म दिया था. अपने एकात्म मानव दर्शन के अर्थों को विस्तारित करते हुए ही उन्होंने कहा था कि –

“हमारी आत्मा ने अंग्रेजी राज्य के प्रति विद्रोह केवल इसलिए नहीं किया कि दिल्ली में बैठकर राज करने वाले विदेशी थे, अपितु इसलिए भी कि हमारे दिन-प्रतिदिन के जीवन में, हमारे जीवन की गति में विदेशी पद्धतियां और रीति-रिवाज, विदेशी दृष्टिकोण और आदर्श अड़ंगा लगा रहे थे, हमारे संपूर्ण वातावरण को दूषित कर रहे थे, हमारे लिए सांस लेना भी दूभर हो गया था.

आज यदि दिल्ली का शासनकर्ता अंग्रेज के स्थान पर हममें से ही एक, हमारे ही रक्त और मांस का एक अंश हो गया है तो हमको इसका हर्ष है, संतोष है. किन्तु हम चाहते हैं कि उसकी भावनाएं और कामनाएं भी हमारी भावनाएं और कामनाएं हों. जिस देश की मिट्टी से उसका शरीर बना है, उसके प्रत्येक रजकण का इतिहास उसके शरीर के कण-कण से प्रतिध्वनित होना चाहिए.

ॐ के पश्चात ब्रह्माण्ड के सर्वाधिक सूक्ष्म बोधवाक्य “जियो और जीने दो” को “जीने दो और जियो” के क्रम में रखने के देवत्व धारी आचरण का आग्रह लिए वे भारतीय राजनीति विज्ञान के उत्कर्ष का एक नया क्रम स्थापित कर गए. व्यक्ति की आत्मा को सर्वोपरि स्थान पर रखने वाले उनके सिद्धांत में आत्मबोध करने वाले व्यक्ति को समाज का शीर्ष माना गया. आत्मबोध के भाव से उत्कर्ष करता हुआ व्यक्ति, सर्वे भवन्तु सुखिनः के भाव से जब अपनी रचना धर्मिता और उत्पादन क्षमता का पूर्ण उपयोग करे, तब एकात्म मानव दर्शन का उदय होता है.

देश और नागरिकता जैसे आधिकारिक शब्दों के सन्दर्भ में यहाँ यह तथ्य पुनः मुखरित होता है कि उपरोक्त वर्णित व्यक्ति देश का नागरिक नहीं, बल्कि राष्ट्र का सेवक होता है. पाश्चात्य भौतिकतावादी विचार जब अपने चरम की ओर बढ़ने की पूर्वदशा में था, तब पंडित जी ने इस प्रकार के विचार को सामने रखकर वस्तुतः पश्चिम से वैचारिक युद्ध का शंखनाद किया था.

उस दौर में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वैश्विक स्तर पर विचारों और अभिव्यंजनाओं की स्थापना, मंडन-खंडन और भंजन की परस्पर होड़ चल रही थी. विश्व मार्क्सवाद, फासीवाद, अति उत्पादकता का दौर देख चुका था और महामंदी के ग्रहण को भी भोग चुका था. वैश्विक सिद्धांतों और विचारों में अभिजात्य और नव अभिजात्य की सीमा रेखा आकार ले चुकी थी, तब सम्पूर्ण विश्व में भारत की ओर से किसी राजनैतिक सिद्धांत के जन्म की बात को भी किंचित असंभव और इससे भी बढ़कर हास्यास्पद ही माना जाता था. अंग्रेज शासन काल और अंग्रेजोत्तर काल में भी हम वैश्विक मंचों पर हेय दृष्टि से और विचारहीन दृष्टि से देखे और माने जाते थे.

निश्चित तौर पर हमारा स्वातंत्र्योत्तर शासक वर्ग या राजनैतिक नेतृत्व जिस प्रकार पाश्चात्य शैलियों, पद्धतियों, नीतियों में डूबा-फंसा-मोहित रहा, उससे यह हास्य और हेय भाव बड़ा आकार लेता चला गया था. तब उस दौर में दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानव दर्शन के सिद्धांत की गौरवपूर्ण रचना और उद्घोषणा की थी.

“राष्ट्र एक परिवार” के भाव को आत्मा में विराजित करना और तब परमात्मा की ओर आशा से देखना यह उनकी एकात्मता का शब्दार्थ है. इस रूप में हम राष्ट्र का निर्माण ही नहीं करें, अपितु उसे परम वैभव की ओर ले जाएँ. यह भाव उनके सिद्धांत के एक शब्द “एकात्मता” में प्राण स्थापित करता है. पं. दीनदयाल उपाध्याय संस्कृति के समग्र रूप को मानव और राज्य में स्थापित देखना चाहते थे. उन्होंने भारतीय संस्कृति की समग्रता और सार्वभौमिकता के तत्वों को पहचान कर आधुनिक सन्दर्भों में इसके नूतन रूपकों, प्रतीकों, शिल्पों की कल्पना की थी. उनके विषय में पढ़ते, अध्ययन करते समय मेरी अंतर्दृष्टि में वंचित भाव जागृत होता है और ऐसा लगता है कि कुछ था जो हमें पंडित दीनदयाल जी से और मिलना था, किंतु मिल न पाया. मानस में यह तथ्य उच्चारित होता रहता है कि उनके तत्व ज्ञान में कुछ ऐसा अभिनव प्रयोग आ चुका था, जिसे वे शब्द रूप में या कृति रूप में प्रस्तुत नहीं कर पाए और काल के शिकार हो गए. उनके मष्तिष्क में या वैचारिक गर्भ में कोई अभिनव और नूतन सिद्धांत रुपी शिशु था जो उनके असमय निधन से अजन्मा और अव्यक्त ही रह गया है….पुण्य स्मरण !!!

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