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‘रज्‍जू भैय्या’ – साधारण जीवन और महान व्‍यक्‍त‍ित्‍व

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मनोजकान्त

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक विशिष्ट संगठन है, जिसके संस्थापक ने ‘दीप से दीप जले’ के मूल सिद्धान्त को अपने साधनात्मक जीवन एवं तपस्या द्वारा समाज के सामने कृति रूप में प्रस्तुत किया और जलते दीपकों की श्रृंखला खड़ी कर दी. उनसे पहले स्वामी विवेकानन्द, जिन्होंने मनुष्य-निर्माण की आवश्यकता पर बल दिया और महात्मा गान्धी, जिनके बाद उनको जीने वाले लोगों का अभाव हो गया; दोनों ने ही इस पर खेद व्यक्त किया है कि वे पर्याप्त संख्या में योग्य एवं संवेदनशील मनुष्यों का निर्माण नहीं कर सके. दूसरे भी अनेक महापुरुष, क्रान्तिकारी, दार्शनिक और शिक्षाविद इत्यादि देखे जा सकते हैं, जिन्होंने अपने जीवन को अत्यन्त उत्कृष्टता के साथ जिया. किन्तु वे भी समानधर्मा मनुष्यों की माला न बना सके. संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार अपवाद सिद्ध हुए, उन्होंने आत्मविस्मृति के अन्धकार में डूबे हिन्दू समाज को उसकी मनःस्थिति के साथ समझा और समाज-बन्धुओं में आत्मज्ञान का दीप प्रज्ज्वलित करने की अभिनव पद्धति विकसित की, जिसे ’शाखा’ कहा गया.

एक घण्टे की शाखा ने इससे जुड़ने वाले व्यक्तियों का कायाकल्प कर दिया. इससे जुड़कर व्यक्ति के जीवन की ऊर्जा आश्चर्यजनक रूप से अपने देश और हिन्दू समाज के लिए एकाग्र भाव से खपने लगी और उनकी अभिप्रेरणा ‘एक दीप से जले दूसरा – जलते दीप अनेक’ के क्रम में अभिसरित होने लगी.

उन जीवन स्पर्शों से ऐसे व्यक्तियों की एक लम्बी कड़ी बनती गयी, जिसने संघ वृक्ष के बीज डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार को उनकी तपश्चर्या, मूल्यबद्ध जीवन, उग्र राष्ट्रभक्ति, राष्ट्र एवं समाजदेव के चरणों में सम्पूर्ण समर्पण कर देने को अपने जीवनादर्श से साकार बनाए रखा. ऐसे ही व्यक्तित्वों में प्रमुख थे – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चतुर्थ सरसंघचालक प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह उपाख्य ‘रज्जू भैय्या’.

जन्म 29 जनवरी, 1922 को हुआ. उनके पिता इंजीनियर कुँवर बलवीर सिंह और माता हृदयवत्सला ज्वाला देवी थीं. रज्जू भैय्या ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय की परास्नातक (भौतिक विज्ञान) परीक्षा में द्वितीय स्थान प्राप्त किया और विदेश जाने अथवा आई.सी.एस. बनने की परम्परा को तोड़कर अपनी राष्ट्रभक्ति का परिचय देते हुए उसी विश्वविद्यालय में अध्यापन करने का संकल्प व्यक्त किया और वहीं प्रवक्ता नियुक्त हो गए. 1943 से 1967 तक प्रवक्ता और प्रोफेसर के रूप में इलाहाबाद विवि के भौतिक विज्ञान विभाग में अपनी उत्कृष्ट सेवाएँ दीं और एक लोकप्रिय तथा कर्तव्यनिष्ठ शिक्षक के रूप में विख्यात हुए. प्रसिद्ध गणितज्ञ हरीशचन्द्र इनके सहपाठी थे. रज्जू भैय्या की एम.एससी. प्रायोगिक परीक्षा में नोबेल पुरस्कृत भौतिक विज्ञानी सी.वी. रमन परीक्षक बनकर आये थे. रमन रज्जू भैय्या की प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए और उन्हें बंगलौर से पी-एच.डी. करने का आमन्त्रण दिया. किन्तु रज्जू भैय्या उससे अप्रभावित रहे और संघ कार्य के साथ ही शिक्षण कार्य भी करते रहे. उस समय महान भौतिक विज्ञानी एवं नोबल पुरस्कृत सीवी रमन के सान्निध्य में रहकर शोध करने के मोह से बच पाना सरल नहीं था, किन्तु उनका स्वयंसेवकत्व एवं अपने छात्रों से लगाव के कारण यह त्याग कर सके.

रज्जू भैय्या अपनी श्रेष्ठ अध्यापन शैली, सादगीपूर्ण जीवन और छात्रों के प्रति अपनी संवेदना के लिए जाने जाते थे. अनेक बार वे संघ कार्य हेतु प्रवास के क्रम में सीधे विभाग में ही पहुँचते थे और कई बार नेकर बदलकर धोती पहनते हुए दृष्टिगत होते थे. उनके एक विद्यार्थी बताते हैं कि एक बार रज्जू भैय्या नई कमीज पहन कर सीधे कक्षा में आ गए और पढ़ाने लगे. जब वे ब्लैक बोर्ड पर लिखने के लिए मुड़ते तो कमीज पर लगा कम्पनी का छापा पीठ पर दिखाई देता. सादगीपूर्ण जीवन, सहजता और सरलता के ये रूप उनकी उत्कृष्ट अध्यापन शैली में चार-चाँद लगा देते थे.

रज्जू भैय्या का सारा जीवन अनुशासन और समय पालन का सन्देश देता था. वे अपने प्रत्येक कार्य को पूर्ण समर्पण और ईमानदारी से करते और शिक्षण कार्य के साथ ही संघ कार्य को भी समान प्राथमिकता देते थे. उन्हें अनुशासनहीनता अथवा कदाचार कदापि स्वीकार नहीं था. एक बार जब वे परीक्षा-नियंत्रक के दायित्व का निर्वहन कर रहे थे, एक विद्यार्थी को नकल करते हुए पकड़ लिया और उसे निष्कासित करने की प्रक्रिया प्रारम्भ की. छात्र उन्हें धमकाने लगा, किन्तु कोई प्रभाव न होते देखकर थोड़ी ही देर में गिड़गिड़ाने लगा. फिर भी रज्जू भैय्या नहीं पसीजे. अब उसने निष्कासित करने पर आत्महत्या कर लेने की धमकी दी और कहा मैं यमुना जी में कूदकर जान दे दूँगा. रज्जू भैय्या ने बिना विलम्ब किये अपनी जेब से दो रुपये का नोट निकाला और उसे देते हुए कहा, “यह लो, यहाँ से यमुना-पुल तक जाने के लिये रिक्शे वाले को दो रुपये देने पड़ते हैं, जितनी जल्दी हो सके तुम यमुना जी में छलाँग लगा दो. तुम्हारे जैसे छात्र देश के भविष्य को अन्धकार की ओर ही धकेल ले जाएंगे”. अब वह विद्यार्थी क्षमा माँगते हुए कहने लगा कि वह आज के बाद जीवन में कभी कदाचार नहीं करेगा और परिश्रम के साथ जीवन बिताएगा.

1994 की बात है, रज्जू भैय्या सरसंघचालक घोषित हुए. उनका प्रयाग आगमन हुआ और संघ कार्यालय (8-आनन्दा, सिविल लाइन) पधारे. वे कार्यालय के विभिन्न कक्षों में जाते और घर का कौन सदस्य किस कक्ष में रहता था – उसे याद करते. कार्यालय के निवासी कार्यकर्ता भी साथ-साथ चल रहे थे. उनसे बातचीत के क्रम में रज्जू भैय्या ने कहा, ’यह कार्यालय मुझे बहुत अधिक पसन्द है’. मेरे मन में आया – यह रज्जू भैय्या का घर है, इसलिए स्वाभाविक ही उन्हें अधिक पसन्द होगा. किन्तु उसके बाद अपनी बात पूरी करते हुए रज्जू भैय्या ने स्वयं ही कहा, “इसलिए नहीं कि यह मेरा घर है, बल्कि इसलिए कि इसकी बनावट सादगीपूर्ण है, ग्रामीण क्षेत्र से आने वाले हमारे सामान्य से सामान्य और निर्धन स्वयंसेवक को भी इसमें प्रवेश करते हुए कोई संकोच नहीं होता”. अब मुझे उनके द्वारा सामान्य से सामान्य स्वयंसेवक के प्रति स्नेहभाव और चिन्ता का आभास हो गया. वस्तुतः रज्जू भैय्या संघ के उन मनीषियों में अग्रगण्य थे, जिनके सामान्य, सहज, सरल और सादगीपूर्ण व्यक्तित्व के भीतर एक महान आत्मा निवास करती थी. हम उनके कर्मपक्ष का अनुसरण कर ध्येयनिष्ठ जीवन जीकर उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित कर सकते हैं.

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