सोमवार (11 नवंबर) को अंतरराष्ट्रीय श्री रेणुका जी मेले का विधिवत शुभारंभ हुआ. मां- बेटे के मिलन के प्रतीक इस मेले का आयोजन हर वर्ष किया जाता है. मेले के शुभारंभ पर परंपरा अनुसार, गिरी नदी के तट पर देव पालकियों का स्वागत किया गया. तत्पश्चात भगवान परशुराम की पालकी को कंधा देकर मेले का शुभारंभ किया गया. गिरी नदी के तट पर पहुंची देव पालकियों के दर्शन के लिए आस-पास के क्षेत्रों में काफी संख्या में लोग पहुंचे. शोभा यात्रा जब गिरी नदी के तट से मंदिर परिसर के लिए रवाना हुई तो पूरा क्षेत्र मां रेणुका व भगवान परशुराम के जयकारों व ढोल नगाड़ों की धुनों से गूंज उठा.
रेणुकाजी मेला हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में हर वर्ष कार्तिक शुक्ल पक्ष में आयोजित होने वाला एक ऐतिहासिक और धार्मिक महोत्सव है, जो हिमाचल की सांस्कृतिक धरोहर को उजागर करता है. यह मेला मुख्य रूप से देवी रेणुका और उनके पुत्र भगवान परशुराम की पौराणिक गाथा से जुड़ा हुआ है, और इसे देव-परंपराओं तथा धार्मिक आस्थाओं के अभूतपूर्व मिलन का प्रतीक माना जाता है.
पौराणिक पृष्ठभूमि
रेणुका जी का इतिहास महाभारत काल से जुड़ा माना जाता है. देवी रेणुका महान तपस्वी जमदग्नि ऋषि की पत्नी थीं और उनके पुत्र परशुराम को भगवान विष्णु का छठा अवतार माना जाता है. पौराणिक कथाओं के अनुसार, जमदग्नि ऋषि ने किसी कारणवश अपनी पत्नी रेणुका को मृत्युदंड देने का आदेश दिया. परशुराम ने अपने पिता के आदेश का पालन करते हुए अपनी माता का सिर काट दिया. लेकिन जब उनके पिता ने उनसे कोई वर मांगने को कहा, तो परशुराम ने अपनी माता को पुनः जीवित करने का वरदान मांगा. यह घटना माता-पुत्र के प्रेम और श्रद्धा को दर्शाती है और यही कथा इस मेले के आयोजन का आधार है.
कहा जाता है कि इसके बाद रेणुका जी हिमालय की ओर चली गईं और वर्तमान समय में रेणुकाजी नामक स्थान पर जलसमाधि ले ली, जहाँ अब एक सुंदर झील और मंदिर स्थित है. यहाँ परशुराम और रेणुका जी के मिलन की स्मृति में हर साल मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमें लोग दूर-दूर से आस्था के साथ आते हैं.
मेले की विशेषताएं और आयोजन
रेणुका जी मेला एक सप्ताह तक चलता है और कार्तिक शुक्ल पक्ष की दशमी को आरंभ होता है. मेले की शुरुआत भगवान परशुराम की शोभायात्रा के साथ होती है, जिसमें उन्हें सिरमौर के विभिन्न गांवों से आए देवताओं के साथ रेणुका जी झील तक ले जाया जाता है. यात्रा में स्थानीय देवताओं की पालकियाँ शामिल होती हैं, जो हिमाचल प्रदेश की परंपरागत संस्कृति और धार्मिक आस्था का प्रतीक हैं.
मेले के दौरान झील के किनारे भक्तगण अपनी आस्था प्रकट करते हैं और झील में स्नान करना पवित्र माना जाता है. झील के निकट रेणुकाजी और परशुराम के मंदिर स्थित हैं, जहाँ पूजा-अर्चना की जाती है. भक्तजन देवी रेणुका और भगवान परशुराम से सुख-समृद्धि की कामना करते हैं.
मेले में धार्मिक आयोजनों के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं. स्थानीय लोकनृत्य, गीत, नाट्य और नाटकों का आयोजन भी होता है. हिमाचली लोकसंस्कृति की झलक देखने को मिलती है.
व्यापारिक गतिविधियां भी अहम हिस्सा
रेणुकाजी मेले में व्यापारिक गतिविधियाँ भी महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. मेले में स्थानीय हस्तशिल्प, हथकरघा उत्पाद, काष्ठ कला, ऊनी वस्त्र और पारंपरिक आभूषणों की दुकानें सजती हैं. जो पर्यटकों और श्रद्धालुओं के लिए आकर्षण का केंद्र होती हैं. इसके अतिरिक्त, स्थानीय व्यंजनों की भी कई दुकानें लगती हैं, जहां लोग सिरमौर के स्वादिष्ट पारंपरिक व्यंजनों का आनंद लेते हैं.
मेला न केवल स्थानीय अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करता है, बल्कि हिमाचली उत्पादों को बाहरी पर्यटकों तक पहुंचाकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में भी मदद करता है.
मेले का महत्व
रेणुका जी मेला न केवल एक धार्मिक आयोजन है, बल्कि यह स्थानीय समाज और संस्कृति को एकजुट करने का भी माध्यम है. यह मेला हिमाचल प्रदेश की समृद्ध देव-परंपरा और सांस्कृतिक धरोहर को जीवित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. पर्यटन की दृष्टि से भी मेला महत्वपूर्ण है. यह हिमाचल प्रदेश में पर्यटकों के आकर्षण का एक बड़ा केंद्र बन गया है.
रेणुकाजी मेला सिरमौर के धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है, जो आस्था, प्रेम, परंपरा और सामुदायिक एकता का प्रतीक है.