सोनाली दाबक
मैं एक महिला स्वयंसेवक
“बाबू मोशाय जिंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ में है. उसे ना तो आप बदल सकते हैं ना मैं. हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं, जिनकी डोर ऊपर वाले की उंगलियों में बंधी है.”
आनंद फिल्म का यह कालातीत संवाद एक बार फिर याद करने का कारण है, एक समाजोपयोगी कार्य में अल्प योगदान.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नासिक शहर शाखा द्वारा 21 मई से नासिक शहर में कोरोना प्रभावित मृतकों का दाह संस्कार करने का एक बहुत ही अलग और उतना ही महत्वपूर्ण कार्य जारी है. पिछले दो महीनों में विभिन्न जातियों और धर्मों के 39 लोगों के शवों का अंतिम संस्कार किया है. इसके लिए 40 स्वयंसेवकों (जिनमें 3 महिलाएं भी हैं) की एक टीम काम कर रही है. कई मीडिया संस्थाओं ने भी इसे रिपोर्ट किया. 21 और 22 जुलाई को मैंने भी सहायक के रूप में अंतिम संस्कार के काम में मदद की. वास्तव में, अमरधाम में ही नहीं, बल्कि सरकारी अस्पताल में भी जाने का मेरा यह पहला मौका था.
21 जुलाई को दोपहर साढ़े बारह बजे और 22 जुलाई को शाम साढ़े छह बजे जब मैं सरकारी अस्पताल पहुंची तो वहां कदम रखते ही कोरोना के कारण उपजी गंभीर स्थिति और चिकित्सा सेवा पर दबाव समय-समय पर महसूस हुआ.
हम सभी देख रहे हैं कि कोरोना के चलते, इस कोविड -19 महामारी के चलते, न केवल लोगों के जीने का तरीका बदल गया है, बल्कि उनके व्यवहार का तरीका भी बदल गया है. मनुष्य की मानसिक / भावनात्मक स्थिति दुर्बल हो गई है. कोरोना पीड़ित की मौत के बाद, अक्सर करीबी रिश्तेदार घबरा जाते हैं और अंतिम संस्कार करने से डरते हैं. कभी-कभी रिश्तेदार ही क्वारेंटाइन होते हैं. कभी-कभी करीबी रिश्तेदार तैयार होते हैं, लेकिन उन्हें अन्य रिश्तेदारों और सगे-संबंधियों का मानव संसाधन नहीं मिलता. ऐसे समय में आरएसएस द्वारा किए जा रहे इस कार्य की महानता का एहसास होता है – किसी एक मृत व्यक्ति को सम्मान से अंतिम बिदाई देना!!
बहुत ही योजनाबद्ध और अनुशासित तरीके से यह अंतिम संस्कार का काम किया जाता है. चार लोगों की मुख्य टीम और दो सहायकों सहित छह लोगों की एक टीम अंतिम संस्कार में जाती है (मैं दोनों बार सहायक के रूप में गई थी). मुख्य टीम प्रत्यक्ष अंतिम संस्कार करती है, जबकि सहायक मृतक के रिश्तेदारों और सरकारी अस्पताल में समन्वय का कार्य करते हैं. साथ ही कागजातों की जांच करना, अंतिम संस्कार के बाद मुख्य टीम को सेनेटाइज करना और फिर मुख्य टीम को क्वारेंटाइन फैसिलिटी गाड़ी में छोड़ना यह सहायक का काम होता है. मुख्य टीम पीपीई किट पहनकर अंतिम संस्कार का काम करती है. सरकारी अस्पताल से अमरधाम तक शव मुख्य टीम ही संभालती है.
यह काम करने के लिए अत्यंत धीरजवाला स्वभाव, संवेदनशील मन और समाज / अन्य लोगों के लिए कुछ अच्छा करने की आतंरकि इच्छा आवश्यक होती है. यह काम सिर्फ दिखावे के लिए नहीं किया जा सकता. कभी-कभी विपरीत परिस्थितियों में भी स्वयंसेवक अंतिम संस्कार का काम करते हैं.
हम दोनों बार शववाहिका में दो शव लेकर अमरधाम गए थे. जरा सोचिए – दो अज्ञात शव जिनकी मृत्यु पिछले छह महीनों में पूरी दुनिया को अपाहिज बनाने वाले कोरोना से हुई है. हर तरफ से बंद शववाहिका में सरकारी अस्पताल से अमरधाम तक ले जाते हुए कितने शांत-मन और धैर्यवान मन की जरूरत होगी!! जब करीबी रिश्तेदार लंबी दूरी पर खड़े होते हैं या कई बार साथ भी नहीं होते, तब ये स्वयंसेवक शांति मंत्र का पाठ कर उस मृतक की अंतिम यात्रा को सुखद बनाने की कोशिश करते हैं.
तब प्रश्न उठता है, कि “सगे, खून के रिश्तेदार ऐसे दूर कैसे रह सकते हैं?”
इसका उत्तर मुझे मिला “अपने व्यक्ति पर हमारा जो प्रेम, अपनापन होता है, उस पर उस क्षण कोरोना का डर हावी हो जाता है.” वह डर प्यार पर भारी हो जाता है और अपने संबंधी को हमसे दूर ले जाता है. दोनों बार मेरी टीम के स्वयंसेवक 20 से 25 वर्ष के बीच के युवक थे. कुछ पढ़ाई कर रहे थे, जबकि कुछ ने शिक्षा पूरी करने के बाद अपना व्यवसाय शुरू किया था. जिस संयम और धीरज से वे सभी स्थितियों को संभाल रहे थे, वह वास्तव में सराहनीय लगा.
अंतिम संस्कार के कार्य में मैंने कई अनसंग हीरोज़, साइलेंट कोरोना वॉरियर्स यानि शववाहिका के ड्राइवर सोनवणे काका, सरकारी अस्पताल की ओर से हमारे साथ समन्वय करने वाली मैडम, अंतिम संस्कार के लिए जो स्वयंसेवक जाते हैं, उन्हें समर्थन करने वाले उनके परिवारजन और इस सारे काम का नियोजन करने वाली आरएसएस की एक बड़ी टीम!!
अंतिम संस्कार के बाद ये स्वयंसेवक 36 घंटे के लिए जब क्वारंटाइन होते हैं, तब उनके आवास, भोजन, चाय और नाश्ते का नियोजन करने वाली, उनकी चिकित्सा परीक्षा करने वाली टीम, इन स्वयंसेवकों को पिछले 2 महीनों से अपने घरों से चाय और नाश्ते के डिब्बे पहुंचाने वाले कई परिवारों ने सारे कामों में अप्रत्यक्ष रूप से बड़ा योगदान दिया है.
सरकारी अस्पताल में शववाहिका के ड्राइवर सोनवणे काका का मैं विशेष उल्लेख करना चाहूंगी. वास्तव में लीक से हटकर वे अभी काम कर रहे हैं. आरएसएस के काम से प्रभावित होकर, वे अपने 6 घंटे के आधिकारिक कर्तव्य के बजाय 8 घंटे और कभी-कभी उससे अधिक काम कर रहे हैं. वर्तमान में श्रावण महीने के लिए वे प्रतिदिन उपवास कर रहे हैं. लेकिन फिर भी घड़ी के कांटों को देखे बिना, वे सब यह सुनिश्चित करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं कि शव का समय पर और ससम्मान अंतिम संस्कार हो. जब हमारी टीम अंतिम संस्कार से लौटी, तो इन सोनवणे चाचा ने हमें ‘जय श्रीराम’ कहते हुए प्रणाम किया. यह मेरे लिए सबसे भावुक करने वाला क्षण था.
मुझे लगता है कि ये अनसंग हीरोज, ये निःस्वार्थ स्वयंसेवक हमारे भारतीय समाज की असली ताकत हैं. और हाँ, हम सभी के पास कुछ ताकत है जो समाज के लिए उपयोगी हो सकती है. हमें बस उस ताकत को पहचानना है और उसका उपयोग करना है.