सूर्यप्रकाश सेमवाल
देववाणी संस्कृत भाषा विश्व की ही नहीं सृष्टि की प्रथम सर्वस्वीकार्य भाषा मानी जाती है. यह श्रेष्ठ वाणी –वैदिक संस्कृत एवं लौकिक संस्कृत के रूप में प्रचलित हुई. वैदिक संस्कृत में जहां वेद-पुराण एवं उपनिषद् आदि वांड्मय की रचना हुई, वहां थोड़ा सहज, सरल भाषा लौकिक संस्कृत कहलाई. जिसमें संस्कृत के आदिकवि वाल्मीकि ने जनता के मन मस्तिष्क में रमने वाली रामकथा को रामायण नामक ग्रन्थ के रूप में व्यक्त किया. आज भारत में 15 विश्वविद्यालयों और 500 से भी अधिक परंपरागत गुरुकुलों में संस्कृत का अध्ययन-अध्यापन होने के साथ ही जर्मनी, अमेरिका व ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में भी संस्कृत भाषा स्नातक स्तर पर पढ़ाई जाती है. अमेरिकी अंतरिक्ष संगठन नासा ऊँ सहित संस्कृत के सभी स्वरों की वैज्ञानिकता और ध्वन्यात्मकता को स्वीकार कर चुका है. छठी और सातवीं पीढ़ी के सुपर कम्प्यूटरों की भाषा 2034 में संस्कृत में ही पढ़ी जा रही है. अमरीकी और ब्रिटिश संसद में सामूहिक वेदवाणियों की गर्जना हो रही है. कोरोना संकटकाल में न केवल संस्कृत की विधा योग और आयुर्वेद ही विश्व ने स्वीकारी है, बल्कि इसके साथ ही महामृत्युंजय मन्त्र के साथ हवन और यज्ञ के दिव्य आयोजन सारे विश्व में देखने को मिल रहे हैं.
फिर हम भारतीय इस श्रेष्ठ भाषा को दीन-हीन, पराश्रित, और अप्रासंगिक क्यों सिद्ध कर रहे हैं? भारत की परम्परागत विधा योग को सारा विश्व स्वीकार कर चुका है. तो फिर इस विधा की स्रोत संस्कृत भाषा को कोई क्यों नकारेगा. समय आ गया है आजादी के सत्तर वर्ष बाद ही सही हम अपने स्वाभिमान और पहचान के प्रतीकों को आत्मविश्वास व पूरे मनोबल के साथ स्वीकार करें.
जर्मनी में देश के 14 शीर्ष विश्वविद्यालयों में संस्कृत के अध्यापन के साथ उसके शास्त्रीय और आधुनिक रूप को यूरोपीय भाषाओं से जोड़ा जाता है. इस कारण ये लोग भारतीय संस्कृति परंपरा एवं समाज के तुलनात्मक अध्ययन में रुचि लेते हैं. हीडलबर्ग विश्वविद्यालय के प्रो. एक्सेल माइकल कहते हैं – हमारे संस्कृत वाले पाठ्यक्रम में पूरे विश्व के लगभग 14 देशों के 256 छात्र प्रवेश हेतु आते हैं और प्रतिवर्ष हमें कई आवेदन अस्वीकार करने पड़ते हैं. जर्मनी के अलावा ज्यादातर शिक्षार्थी अमेरिका, इटली, इंग्लैंड और शेष यूरोप से होते हैं.
वास्तव में आज वैश्विक उदारवाद के दौर में सारी दुनिया यह स्वीकार कर चुकी है कि संस्कृत को धर्म विशेष या राजनीतिक विचारधारा से जोड़ना मूर्खता है. इसे इसकी समृद्ध विरासत के लिए स्वीकार करना चाहिए. संस्कृत को पश्चिमी जगत आज भी सम्मान नहीं दे रहा है, वरना स्वाधीनता पूर्व 18वीं शताब्दी के अंत में कई पश्चिमी शिक्षाविदों ने संस्कृत का अध्ययन किया था. 19वीं शताब्दी में संस्कृत के अध्ययन ने भारोपीय भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन का मार्ग प्रशस्त किया. भारत देश में संस्कृत भाषा में ही इसकी संस्कृति सन्निहित बताई गई – संस्कृति संस्कृतात्ति. वास्तव में भारत ऐसा सुसंस्कृत एवं शिक्षित व समृद्ध देश था कि सारे विश्व के प्रबुद्ध अध्येता यहां ज्ञान ग्रहण करने आते थे –
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:.
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथ्व्यिां सर्वमानवा:..
भर्तृहरि के पद्यों के बाद विदेशी विद्वान ने श्रीमद्भागवद्गीता एवं अन्य धार्मिक ग्रन्थों का अपनी-अपनी भाषाओं में अनुवाद किया. भर्तृहरि की कविताएं पुर्तगाली भाषा में अनुदित हुईं. इसी क्रम में एशियाटिक सोसायटी के संस्थापक विलियम जोंस ने भारत-यूरोप अध्ययन और यहां की भाषाओं का तुलनात्मक विश्लेषण किया. विलियम जोंस और गोइथे ने कालिदास के शाकुंतलम नाटक का अनुवाद प्रस्तुत किया. वेदों और उपनिषदों के अनुवाद किए गए. कालांतर में हम पाते हैं कि आइरिश कवि विलियम बटलर यीट्स संस्कृत साहित्य से प्रभावित थे, हेनरी डेविड थोरो गीता का पाठक था. टी.एस ईलियट और अपनी रचना को शान्ति: शान्ति: शान्ति: से पूर्ण करने वाले लैनमैन जैसे पाश्चात्य रचनाकार संस्कृत की महत्ता को स्वीकार करते थे.
आज संस्कृत विश्व के लिए तो सर्वे भवन्तु सुखिन:, वसुधैव कुटुम्बकम्, कृण्वन्तो विश्वमार्यम का सार्वकालिक संदेश देने वाली है ही, भारत देश में भी यह राष्ट्रीय एकता और नैतिकता के प्रसार में व्यापक भूमिका निभाने वाली सिद्ध हो सकती है. देश में आज संस्कृत, संस्कृति और परंपरा की अनदेखी हो रही है. इस कारण सर्वत्र अशान्ति और द्वेष का भाव विद्यमान है. अनैतिक, हिंसक और व्यभिचारी एवं भ्रष्टाचार युक्त वातावरण देश में यत्र-तत्र व्याप्त है. इसको दूर करने के लिए देशवासियों और खासकर भावी कर्णधार पीढ़ी के नैतिक उत्थान हेतु भारत और भारतीयता जानने के लिए संस्कृत का अध्ययन-अध्यापन अत्यंत आवश्यक है.
जब वैश्विक स्तर पर संस्कृत को अपेक्षा से अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हो रही है तो भारत में देववाणी भारती उपेक्षित नहीं रहनी चाहिए. संस्कृत के विद्वानों की लकीर का फकीर न बनकर वैश्विक और सूचना तकनीक से संपन्न विश्व में समय के अनुसार संस्कृत को जन-जन तक पहुंचाने का प्रत्यत्न करना चाहिए. उपाधि और रोजगारपरक डिप्लोमा कार्यक्रमों से इतर ठोस अनुसंधान और शोध कार्य करने की आवश्यकता है. 2014 के बाद देश में राष्ट्रीय विचारों की सरकार के सत्ता में आने के बाद संस्कृत के उत्थान और सम्मान की आस जागृत हुई, जिसका प्रमाण केंद्र सरकार ने देश में एक साथ 3 नए केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालयों की स्थापना करके दिया है. सरकार संस्कृत को विज्ञान, सूचना तकनीक और संचार से जोड़कर और प्रासंगिक व प्रामाणिक बनाने के लिए कृतसंकल्पित है. देश में राज्य स्तर पर प्राच्य विद्याओं के शोध हेतु अनुसंधान प्रतिष्ठान खोले जाने की भी आवश्यकता है. संस्कृत का एक अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय स्थापित हो, जहां इस भाषा की विविध विधाओं का संकलन प्रकाशन और अन्तरविधा विषयों का यथोचित अनुसंधान हो. इन उपायों से ही संस्कृत भाषा देश में अपनी महत्ता और खोयी प्रतिष्ठा को पुन: अर्जित कर पाएगी.
भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है और आजादी के 70 वर्ष बाद अब देश की जनता वास्तव में यह महसूस कर रही है कि अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के बाद हमने अपने लोगों द्वारा जो शासन प्रणाली प्रचलित की वह कितनी कारगर सिद्ध हुई है. अपनी प्राचीन संस्कृति, समृद्ध परंपरा और अथाह वांग्मय से युक्त संस्कृत भाषा के समवेत रूप में ही भारत विश्वगुरु था, हमें अपनी धरोहर और गौरवमय थाती के रूप में संस्कृत को आगे बढ़ाना है. नई शिक्षा नीति भी संस्कृत को उसका पुराना गौरव वापस दिलाने में सहयोगी सिद्ध हो सकती है.