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अनुसूचित जनजातियां – संवैधानिक एवं सांस्कृतिक पहलू

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अनुसूचित जनजाति, यह नाम भारत में एक वर्ग के रूप में संविधान के निर्माण के साथ आया. परंतु भारत में यह छोटे-छोटे समूहों के रूप में प्राचीन काल से अस्तित्व में रही हैं. भारत की सनातन परंपरा का हिस्सा रही हैं.

संविधान निर्माताओं ने इन सभी जातियों को एक विशेष वर्ग के रूप में एक नयी पहचान दी, जिसे हम आज भारत की जनजातियों के रूप में जान रहे हैं. आखिर वे कौन सी जातियां थीं, जिन्हें जनजाति माना गया, उनकी क्या विशेषता थी? क्या पहचान थी? जिसे संविधान निर्माताओं ने बचाना आवश्यक समझा, आधुनिक भारत के विकास के साथ जिसके गुम हो जाने का खतरा अनुभव किया तथा आधुनिक कानूनों के साथ जनजातियों के पारंपरिक कानूनों को मान्यता दी गई. इन्हीं सब बातों पर विचार करना आवश्यक है.

जब भी हम भारत की जनजातियों का विचार करते हैं तो एक विशिष्ट प्रकार की संस्कृति हमारे दृष्टि पटल के समक्ष उपस्थित हो जाती है, जिसका संबंध प्रकृति पूजा, देवी-देवताओं के प्रति आस्थाओं से रहता है.

इन्हीं आस्थाओं तथा पूजा पद्धतियों के विस्तारित रूप में वहां फलती-फूलती कलात्मक अभिव्यक्ति होती है, जो हमें बाह्य रूप में दृष्टिगत होती है. फिर वह चित्रकला हो, नृत्य हो, वादन हो या गायन हो या वेशभूषा हो. ऐसे अनेक रूपों में वह अभिव्यक्त होती है.

परंतु उसके केंद्र में सदैव उनके अपने दैवत के प्रति आस्था, उस आधार पर विकसित समाज रचना, व्यवस्थाएं, जीवन मूल्य…. जिन्हें जन्म से मृत्यु तक के संस्कारों के रूप में देख सकते हैं. वह करमा पूजा हो, सरहुल पूजा हो या ग्राम का सरना स्थल हो. भील समाज में मातानुवन हो, पारंपरिक रूप से गाया जाने वाला गायन हो, सभी का संबंध उनके अपने देवी देवताओं की आस्था से है. अतः हम यह समझ सकते हैं कि जनजातीय समाज में आस्थाएं एवं संस्कृति केवल अभिन्न ही नहीं, अपितु आस्थाओं के विस्तार के रूप में संस्कृति प्रकट होती है.

इन्हें अलग अलग नहीं किया जा सकता. यदि कोई कहे कि मैं जनजाति संस्कृति के अनुरूप व्यवहार करता हूँ, परंतु जनजातीय देवी देवताओं में मेरी आस्था नहीं है तो क्या उसे जनजाति माना जा सकता है? निश्चित ही नहीं.

भारत की स्वतंत्रता के साथ ही आधुनिक भारत के विकासक्रम में यही जनजातीय पहचान बचाने की चिंता संविधान निर्माताओं की थी. क्योंकि उस समय भारत के अनेक हिस्सों में यह समाज छोटे छोटे समूहों में अपनी इसी पहचान के साथ रह रहा था. एक बड़े राजनैतिक तंत्र में उसके समाप्त होने का खतरा महसूस किया गया.

अंग्रेजों के आने तक तो भारत के एक बड़े भूभाग पर हम राजाओं के रूप में जनजातीय राज्य देख सकते हैं. नागवंशीय राजा हो, गोंडों के विभिन्न राज्य हों या फिर पश्चिम भारत के भील राज्य.

यह स्थिति मुगलकाल तक भी यथावत रही तथा जनजातीय समाज का वनक्षेत्रों पर और वहां के प्राकृतिक संसाधनों पर केवल पूर्ण अधिकार ही नहीं रहा, वरन वन उनके जीवन के एक अंग के रूप में रहे. प्रकृति और व्यक्ति वहां अभिन्न रूप से रहे. वन उनकी आजीविका के आधार के साथ-साथ उनके संपूर्ण अस्तित्व तथा आस्था का भी केंद्र था.

अंग्रेजों ने जब सर्वप्रथम वनों का अपने हितों में उपयोग हेतु सरकारीकरण प्रारंभ किया, वहीं से जनजातीय समाज के सामने आजीविका तथा अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया.

अंग्रेजी राज्य के विस्तार के साथ ही जंगलों से जनजातियों के अधिकार समाप्त कर दिये गए. वहां से उन्हें जबरन विस्थापित किया जाने लगा तथा वनक्षेत्रों का, वहां के प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध शोषण प्रारंभ हुआ. आज तक जो जंगलों का मालिक था, अब वही अवैध कब्जाधारी प्रतीत होने लगा.

विकास के नाम पर जंगलों के विनाश ने इस समाज के सामने केवल आजीविका के ही नहीं, उनकी आस्थाओं पर भी गंभीर कुठाराघात किया. संविधान निर्माताओं ने जनजातीय समाज की इस पीड़ा को समझते हुए उनकी पहचान को सुरक्षित रखने के लिए विभिन्न प्रकार के सुरक्षात्मक उपाय भारतीय संविधान में किए.

आरक्षण

आरक्षण हेतु संविधान में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति अलग अलग सूचियां बनाई गईं. अनुसूचित जातियों को अस्पृश्यता के चलते सामाजिक भेदभाव का सामना को करना पड़ा, उन्हें अनुसूचित जाति के वर्ग में शामिल किया गया.

अनुसूचित जनजाति वर्ग को आरक्षण उनकी परंपरागत आस्था तथा संस्कृति, परंपरा के संरक्षण हेतु दिया गया. क्योंकि उनके साथ भेदभाव उपेक्षा पर आधारित था, जिसके कारण शिक्षा, स्वास्थ्य तथा अन्य सुविधाओं में समाज से पिछड़ गए थे.

अतः शासन, प्रशासन के विभिन्न पदों पर उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षण के प्रावधान किए गए.

अनुसूचित जनजातियों को आरक्षण के अलावा भी अन्य सुरक्षात्मक प्रावधान किए गए. उनके निवास के क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों की अधिकता है, जिसके दोहन से उनकी आजीविका तथा अस्मिता पर विपरीत प्रभाव न हो. इसलिए अनुसूचित क्षेत्र में 5वीं तथा 6ठी अनुसूची के माध्यम से विशेष प्रावधान किए गए.

परंपराओं की रक्षा हो सके, इस हेतु उनके परंपरागत कानूनों (कस्टमरी लॉ) को भी मान्यता दी गई. बाद के वर्षों में समय समय पर आवश्यक संविधान संशोधनों द्वारा पेसा कानून 1996 तथा वनाधिकार कानून 2006 को संविधान में जोड़ा गया.

5वीं तथा 6ठी अनुसूची

अंग्रेजों की नीति भारत के प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक शोषण की रही थी तथा प्राकृतिक रूप से समृद्ध क्षेत्रों को, जो भारत के जनजातीय क्षेत्र थे, पूर्णतः बाह्य क्षेत्र तथा अंशतः बाह्य क्षेत्र दो श्रेणियों में बांटकर रखा था.

इन क्षेत्रों में अंग्रेजों के कानून लागू नहीं होते थे. यह एजेंसी क्षेत्रों में एक एजेंट नियुक्त रहता था, जिसकी इच्छा पर आवश्यक कानून लागू हो सकते थे. ऐसी स्थिति में संसाधनों की लूट के विरोध में जब जनजातीय समाज से प्रतिरोध होता था तो उसे अमानवीय तरीकों से कुचला जाता था, क्योंकि कोई कानून वहां लागू नहीं होते थे.

इतिहास के सभी जनजातीय विद्रोहों को अमानवीय तरीकों से कुचलने के साक्ष्य आज भी उपलब्ध हैं. भारतीय संविधान में इन क्षेत्रों को विशेष संरक्षण देने हेतु 5वीं तथा 6ठी अनुसूची का प्रावधान किया गया. जिसके द्वारा वहां के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के साथ साथ वहां निवासरत जनजातीय समुदायों के अधिकारों की रक्षा के प्रावधान किए गए.

पेसा कानून 1996 : पंचायतराज कानून 1993 को अनुसूचित क्षेत्रों में किस प्रकार लागू किया जाए, इस हेतु पंचायत राज विस्तार (अनुसूचित क्षेत्रों में) कानून 1996 का प्रावधान संविधान में किया गया. जिससे जनजातीय क्षेत्रों में अंतिम व्यक्ति तक अधिकार पहुंचें तथा वहां के संसाधनों से संबंधित निर्णय वह स्वयं कर सकें. वनाधिकार कानून 2006 : इस कानून द्वारा अंग्रेजों के काल की ऐतिहासिक भूल को सुधारने की बात कही गई है तथा परंपरागत वननिवासियों को उनके परंपरागत जंगल का अधिकार वापस देने हेतु प्रावधान किए गए.

इन सभी प्रयत्नों द्वारा जनजातीय समाज को सशक्त करने का प्रयास संविधान निर्माताओं द्वारा किया गया. जिससे वे अपनी परंपरागत आस्थाओं की रक्षा कर सकें. जिसके आधार पर उनकी विशिष्ट संस्कृति, रीति रिवाज, परंपराएं आकार लेती हैं.

अब, प्रश्न उठता है कि क्या जो लोग उन आस्थाओं को छोड़कर दूसरे देवी देवताओं को अपना चुके हैं तथा अपनी आस्थाएं बदल चुके हैं, उनसे इस पहचान को बचाने की अपेक्षा की जा सकती है? स्वाभाविक है जो स्वयं इन देवी देवताओं को छोड़ चुके हैं, वे कैसे इन्हें तथा इससे जुड़ी हुई संस्कृति को बचा पाएंगे? वे नहीं बचा सकते, अतः क्या उन्हें वह आरक्षण व सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिएं जो जनजाति समाज को दी गई हैं? तो इसका उत्तर नहीं में ही आएगा.

परंतु अपनी सुविधाओं के छिन जाने के भय से यही लोग विभिन्न भ्रम फैलाने का प्रयत्न करते हैं. ये वही भ्रम है जो अंग्रेजों ने अपनी फूट डालो और शासन करो की घोषित नीति के तहत जनजाति समाज में प्रसारित किए थे.

अंग्रेजों ने सर्वप्रथम भारत में इस बात का प्रचार किया कि आर्य भारत के बाहर से आए तथा एक नया सिद्धांत दिया, जिस आधार पर उन्होंने यह समझाने का प्रयत्न किया कि भारत में कुछ लोग मूल निवासी हैं तथा शेष भारत के बाहर से आए हैं.

इस बात का अत्यंत प्रभावी तथा वैज्ञानिक पद्धति से खंडन डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर ने किया तथा अंग्रेजों के फूट डालने के प्रयास को विफल कर दिया. इस सिद्धांत को स्थापित करने के उद्देश्य से अंग्रेजी शासन ने भारत के जनजातीय समाज को जनगणना में भी अलग लिखने का प्रयास किया.

कभी उन्होंने प्रकृति पूजक के रूप में, कभी अध्यात्मवादी के रूप में प्रदर्शित कर शेष भारतीय समाज से अलग करने का प्रयास किया. परंतु जब प्रकृति पूजक कहा, तब शेष भारतीय समाज प्रकृति की पूजा नहीं करता क्या? तो सारा हिन्दू समाज ही प्रकृति की पूजा करता है तथा मूर्ति पूजा भी प्रकृति की पूजा का ही विस्तारित स्वरूप है.

अध्यात्मवादी से भी वे अलग नहीं कर पाए, जहां तक ऍबओरिजिनल कहने का प्रयास किया तो उसका अर्थ ही सनातन होता है जो संपूर्ण भारतीय समाज अपने को मानता है तथा अपने को सनातनी कहता है.

1931 की जनगणना में सबसे पहले अंग्रेजों ने जनजातीय समाज को आदिवासी के रूप में लिखना प्रारंभ किया. परंतु प्रत्येक जनगणना में अलग करने के प्रयास को उनके ही जनगणना आयुक्तों ने अपनी टिप्पणियों से निष्फल कर दिया. तथा संपूर्ण भारतीय समाज का ही एक अंग जनजातीय समाज है, यही प्रदर्शित हुआ.

विभिन्न जनगणना आयुक्तों ने अपनी टिप्पणियों में लिखा –

“…Every stratum of Indian society is more or less saturated with Animistic conceptions…” – JA Bains, 1881 Census Commissioner

“Animism more or less transformed by philosophy’, and ‘no sharp line of demarcation can be drawn between Hinduism and Animism” – Herbert [Ristey, 1891 Census Commissioner.

“मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि प्रकृति पूजकों को अलग धर्म में नहीं लिखा जा सकता अतः अगली जनगणना में सभी प्रकृति पूजकों को हिन्दू लिखा जाए.” – पी सी टेलेन्ट्स, जनगणना आयुक्त 1921

“हिन्दू धर्म तथा ट्राइबल धर्मों को अलग अलग नहीं देखा जा सकता, वे एक ही हैं.” – जे एच हटन, जनगणना आयुक्त 1931

भारत की संविधान सभा में भी इस मुद्दे पर चर्चा का उत्तर देते हुए संविधान निर्माता डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर ने स्पष्ट कर दिया कि भारत में सभी आदिवासी हैं, किसी एक वर्ग को आदिवासी नाम देना उचित नहीं होगा. अतः इस वर्ग को अनुसूचित जनजाति वर्ग के रूप में संविधान में पहचाना गया.

जनजातीय समाज की पहचान पर अभी भी भ्रम की स्थिति उन लोगों द्वारा निर्मित की जा रही है जो जनजातीय देवी देवताओं को छोड़कर अन्य आस्थाओं को अपना चुके हैं, परंतु आरक्षण तथा अन्य संवैधानिक लाभों के लिए जनजातीय सूची में बने रहना चाहते हैं.

अतः जनजातीय समाज तथा अन्य हितैषी समाज का कर्तव्य है कि ऐसे तत्वों को जनजातीय सूची से बाहर करने हेतु प्रयास करें.

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