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आत्मनिर्भरता – हुनरमंद कलाकारी से रंग जमाने लगा सरगुजिहा कालीन, तिब्बती पैटर्न का कालीन उद्योग पुनर्जीवित

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सरगुजा के सुदूर वनांचल क्षेत्र में रहने वाली वनवासी महिलाओं के हुनरमंद हाथों से बना कालीन दिल्ली और मुंबई सहित देश के महानगरों में पहुंचने लगा है. प्रख्यात सूफी गायक कैलाश खेर ने भी ट्विटर पर इसकी प्रशंसा की है. महिलाओं ने मैनपाट में रह रहे तिब्बतियों से कालीन बनाने की कला सीखी और उसमें अपनी संस्कृति का रंग घोल दिया. नई दिल्ली, अहमदाबाद, रायपुर और अंबिकापुर में स्थित बोर्ड के शोरूम से मांग आनी शुरू हो चुकी है. अमेजन से अनुबंध तथा डिजिटल कैटलाग के माध्यम से बोर्ड को लगातार आर्डर मिल रहे हैं. इससे परंपरागत कालीन को नई पहचान मिल रही है.

क्षेत्र में उद्योग नहीं होने के कारण महिलाएं उत्तरप्रदेश के भदोही और मिर्जापुर में जाकर प्रतिदिन 250 से 300 रपये की मजदूरी पर कालीन बनाती थीं. लॉकडाउन के कारण घर वापसी के बाद अब महिलाओं को रोजगार की नई दिशा मिली. सरगुजा के लुंड्रा, मैनपाट व सीतापुर विकासखंड के एक सौ से अधिक कालीन बुनकर उत्तरप्रदेश के भदोही व मिर्जापुर से लौटे थे, इनमें से महिला बुनकरों को कालीन बुनाई से जोड़ने का काम शुरू किया गया है. रघुनाथपुर में कालीन बुनाई का काम शुरू हो चुका है. बतौली और सीतापुर विकास खंड में भी केंद्र शुरू किए जा रहे हैं.

तिब्बती पैटर्न का कालीन उद्योग पुनर्जीवित

मैनपाट में तिब्बतियों ने वर्ष 1959 में कालीन उद्योग की शुरुआत की थी. यहां बनने वाले तिब्बती पैटर्न के कालीन आकर्षक और प्राकृतिक धागों के कारण बहुत लोकप्रिय रहे. सरगुजा जिले के कालीन बुनकरों को नियमित रोजगार देने के लिए दो दशक से बंद पड़े इस उद्योग को पुनर्जीवित करने का काम शुरू किया गया. बड़े शोरूम और अमेजन से मार्केटिंग की व्यवस्था सरगुजा के परंपरागत कालीन के मार्केटिंग की व्यवस्था भी हस्तशिल्प विकास बोर्ड के माध्यम से की गई.

हस्तशिल्प विकास बोर्ड के प्रबंधक राजू राजवाड़े ने बताया कि भदोही और मिर्जापुर में भी अब परंपरागत कालीन बुनाई लगभग समाप्त हो चुकी है. आधुनिकता की दौड़ और प्रतिस्पर्धा से सिंथेटिक आइटमों का उपयोग शुरू किया जा चुका है. हम परंपरागत कालीन पर ही काम कर रहे है. भेड़ के उन और परंपरागत रंगों से निर्मित कालीन की मांग आज भी है. हमें सरगुजा में डाइंग यूनिट स्थापित करनी है, इसके लिए हम पानीपत और बीकानेर की निर्माता कंपनियों के संपर्क में है. वर्तमान में कच्चे माल की आपूर्ति भदोही से ही की जा रही है. डांगबड़ा, देवगढ़, बटवाही ऐसे गांव है, जहां के परिवार भदोही व उत्तरप्रदेश जाते थे. इन परिवारों की महिलाओं को कालीन बुनाई से जोड़ दिया गया है. दूसरी महिलाओं को प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है. पुरुषों को मैनपाट के कालीन बुनाई केंद्र से जोड़ा जा रहा है. कालीन बुनाई के केंद्र बतौली व सीतापुर ब्लाक में भी आरंभ करने की तैयारी हो चुकी है.

सूफी गायक कैलाश खेर तिब्बती पैटर्न के ड्रैगन कालीन की लोकप्रियता के मुरीद हो गए. उन्होंने ट्वीट कर मैनपाटवासियों द्वारा तैयार किए जा रहे आकर्षक कालीनों की सराहना की है. कैलाश खेर ने अपने ट्वीट में कहा – छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले में 1959 से बसे तिब्बती लोगों ने आदिवासियों को कालीन बुनाई का काम सिखाया. इन कालीनों में सूत और उन का इस्तेमाल किया जा रहा है.

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