नई दिल्ली. कोरोना संकट के दौरान हरियाणा से अपने गांव लौटे प्रवासी श्रमिक दो भाई न केवल स्वयं आत्मनिर्भर बने, बल्कि गांव लौटे अन्य प्रवासी श्रमिकों को भी अपने साथ जोड़ा. शहर में फैक्टरी में काम कर रोजी कमा रहे थे, इसी दौरान लॉकडाउन हुआ और काम छिन गया तो गांव लौटकर बंद पड़ी बेकरी को फिर से शुरू किया और अपने पैरों पर खड़े हुए. साथ ही अन्य प्रवासी श्रमिकों के परिवारों का भी सहारा बने.
दोनों भाई आज करीब दो सौ अन्य परिवारों का भी सहारा बन गए हैं. अब धीरे-धीरे उनका कारोबार बढ़ता जा रहा है, जिसमें लोग जुड़ते जा रहे हैं. हरदोई की सवायजपुर तहसील क्षेत्र के मत्तीपुर गांव निवासी अवधेश सिंह नहीं चाहते थे कि उनके बेटे कुलदीप और शिवम परदेस में नौकरी करने जाएं. लेकिन गांव में रोजगार की कमी के चलते वर्ष 2017 में दोनों बेटे हरियाणा चले गए.
वहां बल्लभगढ़ में पंखा बनाने वाली फैक्टरी में काम करने लगे. दिन में काम और बचे हुए समय में कमर्शियल वाहन चलाकर जीविका चलाते थे. बेटों को गांव बुलाने के लिए अवधेश सिंह ने 2019 में गांव में ही बेकरी खोली. लेकिन दोनों नहीं आए. क्षेत्र में कोई बेकरी नहीं थी, जिसके चलते ब्रेड, रस्क, बिस्कुट आदि की मांग तो थी. लेकिन पिता अकेले कारोबार संभाल नहीं पाए और आठ माह में ही बेकरी बंद हो गई.
कोरोना काल में लॉकडाउन में फैक्टरियां बंद हुईं तो कुलदीप और शिवम भी बेरोजगार होकर गांव लौट आए. अब बंद पड़ी बेकरी में हाथ आजमाने के अलावा उनके पास कोई विकल्प शेष न था. तो ठहरी जिंदगी को गति देने के लिए बंद पड़ी बेकरी को चालू किया. पिता ने भी सहयोग किया. बेकरी चलाने के लिए कच्चा माल, मैदा, रिफाइंड, चीनी, यीस्ट आदि मिल ही गया और ब्रेड बनाना शुरू कर दिया.
मत्तीपुर गांव में ही हरियाणा, पानीपत, रोहतक, दिल्ली आदि शहरों से कई प्रवासी आए थे. इनमें कई हुनरमंद भी थे. शुरुआत में 10-12 लोगों को जोड़कर काम शुरू किया.
लॉकडाउन में गांवों के लोग शहर जा नहीं पाते थे तो उन्हें घर बैठे ब्रेड, रस्क, बिस्कुट उपलब्ध कराना शुरू कर दिया. फेरी लगाकर सब्जी आदि बेचने वाले प्रवासी भी जुड़ गए और लॉकडाउन में काम चल पड़ा. कुलदीप और शिवम बताते हैं कि करीब 200 परिवार उनके कारोबार से जुड़े हैं. जो हुनरमंद हैं, वह बेकरी में काम करते हैं. बाकी साइकिल, मोटरसाइकिल से ब्रेड गांवों में पहुंचाते हैं.
अब लॉकडाउन समाप्त हो गया है तो माल गांवों से लेकर कस्बों और शहरों तक भेजते हैं. लॉकडाउन में कच्चा माल महंगा मिलता था. उस समय भी 500- 700 रुपये बच जाते थे. कुलदीप बताते हैं कि इस समय 700 से 1000 रुपये रोजाना बचते हैं. जो बेकरी में काम करते हैं, उन्हें भी 500 रुपये रोजाना मिलते हैं. जो साइकिल, मोटरसाइकिल से गांवों में ब्रेड, रस्क आपूर्ति करते हैं उन्हें भी रोजाना 200 रुपये बच जाते हैं. बाकी दिन उन्हें अपने घर या अन्य काम करने का समय मिल जाता है. जो काम में जुड़े हैं, वे बाहर न जाने की बात कह रहे हैं.