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आत्मनिर्भर भारत

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प्रशांत पोळ

प्रोफेसर अंगस मेडिसन (Angus Maddison) अर्थशास्त्र के प्रख्यात विशेषज्ञ के रूप में जाने जाते हैं. मूलत: ब्रिटिश नागरिक मेडिसन ने अनेक वर्ष Organization of European Economic Co-operation में उच्च पदों पर काम किया. बाद में वे हॉलेंड के गोनिंगन विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के विभाग प्रमुख बने. मेडिसन ने वैश्विक अर्थशास्त्र पर अनेक पुस्तकें लिखी हैं. The World Economy और Contours of World Economy, उनकी ये पुस्तकें पूरे विश्व में प्रमाण मानी जाती हैं. इन पुस्तकों में उन्होंने, तथ्यों के आधार पर दुनिया में पहली शताब्दी से कौन से देशों का, अर्थशास्त्रीय या व्यापारी स्वरूप में, प्रभाव रहा इसका विस्तृत वर्णन दिया हुआ है.

प्रोफेसर मेडिसन के अनुसार दसवीं/ग्यारहवीं शताब्दी तक दुनिया की जीडीपी में भारत का हिस्सा लगभग ३२% अर्थात् एक तिहाई था. पूरे विश्व में व्यापार में हम प्रथम क्रमांक पर थे. अनेक वस्तुओं का, विश्व के लगभग सभी देशों को निर्यात करते थे. हमारे द्वारा किये गए व्यापार पर यूरोप के व्हेनिस और जिनोआ, जैसे शहर उन दिनों खूब फले फूले.

किंतु बाद में मुस्लिम आक्रांताओं के आक्रमण के कारण वैश्विक व्यापार में हमारा स्थान जाता रहा. किंतु फिर भी भारतीय माल की साख दुनिया के बाजारों में इतनी जबरदस्त थी, कि अंग्रेजों के आने तक दुनिया के जीडीपी में हमारी हिस्सेदारी २२% से २३% तक थी. दुर्भाग्य से अंग्रेजों ने हमारे व्यापार पर कुठाराघात किया, उसे बंद करवाया, हमारे उद्योगों को समाप्त किया और १९४७ में जब देश की बागडोर हमारे हाथों में सौंपी, तो वैश्विक जीडीपी में हमारी हिस्सेदारी मात्र ३.५% बची थी !

अर्थात् किसी जमाने में हम स्वयंपूर्ण थे. हमारा आयात नहीं के बराबर था, और बड़ी मात्रा में निर्यात सारे विश्व में होता था. स्वाभाविक है, दुनिया का पैसा हमारे पास आता था, और हम और ज्यादा समृद्ध बनते जा रहे थे. लेकिन बाद में मुस्लिम आक्रांताओं ने, उनके द्वारा बनाए दहशत के वातावरण ने, उनके धार्मिक अत्याचारों ने, हमारा व्यापार चौपट कर दिया. बची खुची कसर अंग्रेजों ने निकाली. उन्होंने तो हमारी स्वयंपूर्ण अर्थव्यवस्था को पूर्णत: पराधीन/आश्रित बना दिया. हमें दरिद्री अवस्था में छोड़ कर वो चलते बने.

१९५० में हमारी अर्थव्यवस्था मात्र ३०.६ बिलियन अमेरिकन डॉलर की थी. सभी अर्थों में हमारा देश गरीब था, लेकिन आज ? आज सामान्य जीडीपी के अनुसार हम विश्व की पांचवीं आर्थिक महासत्ता हैं, तथा परचेसिंग पावर पॅरेटी (PPP) के अनुसार वैश्विक अर्थव्यवस्था में हमारा स्थान तीसरा है.

१९४७ में, जब हम स्वतंत्र हुए, तब हमारी अर्थव्यवस्था संरक्षणवादी (Protectionist) थी. हमने विदेशी कंपनियों को बहुत ज्यादा प्रोत्साहन नहीं दिया, किंतु साथ ही देश में भी स्पर्धात्मक वातावरण नहीं बनने दिया. अधिकांश उद्योग/व्यवसाय/सेवाएं सरकार ही चलाती थी. जो इक्का दुक्का निजी उद्योग, कुछ क्षेत्रों में थे, उन्हें भी लाईसेंस दिया जाता था. उदाहरण के लिये चालीस हजार साबुन की टिकियां बनाने का लाईसेंस है, तो उससे एक भी ज्यादा बनाई तो अर्थदंड भरना पड़ता था.

१९६० में हमारा निर्यात था, मात्र १,०४० करोड़ रुपयों का, जो किसी भी मात्रा में कम था. १९७० में वह थोड़ा सुधर कर १,५३५ करोड़ हुआ. किंतु फिर भी हम घाटे का ही सौदा कर रहे थे. १९६० में हमारा आयात था – १,७९५ करोड़ रुपयों का. अर्थात् तब हम लगभग ७०० करोड़ से भी ज्यादा का नुकसान उठा रहे थे.

नब्बे के दशक में सारे गणित बदलते चले गए. अमेरिका और रशिया के बीच का कोल्ड वॉर समाप्त हुआ था. यह दशक मात्र भारत के लिये ही नहीं, अपितु सारे विश्व के लिये क्रांतिकारी दशक था. सूचना क्रांति, इसी दशक में प्रारंभ हुई. विश्व के अन्य देश, अपनी अर्थव्यवस्था में खुलापन ला रहे थे. हमने भी वही किया. हमने तीन महत्वपूर्ण निर्णय लिये, जिनके कारण हमारा भविष्य बदलता गया –

१. हमनें सरकार नियंत्रित अर्थव्यवस्था को, बाजार नियंत्रित अर्थव्यवस्था की ओर मोड़ा.

२. हमने हमारा बाजार, सारे विश्व के लिये खोल दिया.

३. हमने उत्पादन आधारित अर्थव्यवस्था के स्थान पर सेवा आधारित (Service oriented) अर्थव्यवस्था का रास्ता पकड़ा.

अर्थव्यवस्था में खुलापन लाना आवश्यक था. सारी दुनिया इस दिशा में चल रही थी. और सूचना क्रांति के बाद तो सरकार नियंत्रित अर्थव्यवस्था चलाना और भी कठिन था, तो अर्थव्यवस्था को खोलना यह अच्छा और आवश्यक कदम था.

लेकिन बाद के दो निर्णयों ने, प्रारंभिक समृद्धि की राह तो दिखाई, किंतु हमारी स्वयंपूर्णता हमसे छिन गई. नब्बे के दशक में, दुनिया की नजरों में हम एक बहुत बड़ा बाजार थे. १९९१ में हम ९० करोड़ थे, जो अमेरिकी जनसंख्या से साढ़े तीन गुना ज्यादा संख्या थी. दुनिया का इतना बड़ा बाजार, जो विकसित हो रहा है, उस पर पूरी दुनिया की नजर होना स्वाभाविक था. इसीलिये, जब नब्बे के दशक के मध्य तक, हमारा बाजार विदेशी कंपनियों के लिये खोला गया, तो सारी प्रमुख छोटी / बड़ी विदेशी कंपनियाँ, लपक कर भारत पंहुची.

१९९१ में भारत का निर्यात था – १७,९०० मिलियन डॉलर और आयात था १९,५०९ मिलियन डॉलर.

२००१ में हमारा निर्यात हुआ ४३,८७८ मिलियन डॉलर और आयात हुआ ५०,६७१ मिलियन डॉलर.

इसका अंतर बढ़ा, अगले दस वर्षों में – २०११ में हमारा निर्यात हुआ ३०,१४८३ मिलियन डॉलर तो आयात रहा ४६,२४०३ मिलियन डॉलर.

हमारा आयात-निर्यात में व्यापारिक घाटा तो बढ़ ही रहा था, साथ ही हमारा उत्पादन कम होता जा रहा था. भारत जैसे विशाल देश के लिये जो साधन संपन्न है, उच्च बुद्धिमत्ता के लोगों से भरपूर है, और विश्व की जीडीपी में एक तिहाई से ज्यादा हिस्से का जिसका इतिहास है, उसके लिये तो स्वयंपूर्ण होना आवश्यक था. दुर्भाग्य से २०१४ तक, अर्थात विश्व में आर्थिक परिदृश्य जब बदल रहा था, उन दिनों में भारत, छोटे टेलिफोन के तार से लेकर तो बड़े अर्थमूव्हर्स तक, अनेक उपकरण, वस्तुएं आदि आयात कर रहा था.

दुनिया में सेवा आधारित आईटी क्षेत्र में हमारा डंका बज रहा था, और हम उसी में खुश थे. बहुत पहले, जब हमने आईटी के क्षेत्र में ५० बिलियन यूएस डॉलर के निर्यात का लक्ष्य रखा था, तब चेन्नई आईआईटी के कंप्यूटर विभाग के प्रमुख, प्रोफेसर अशोक झुनझुनवाला ने लिखा था, “whether for exporting 50 Billion USD software, we are importing 50 Billion USD hardware ?”

विशेषत: यूपीए-१ और यूपीए-२ के उन १० वर्षों में भारत में विदेशी कंपनियों की तूती बोलती थी. आयात नीति ऐसी नाजुक बनी थी. दीपावली में खरीदी जाने वाली लक्ष्मी – गणेश की मूर्तियाँ भी चीन से आयात होने लगी थीं !

यह चित्र बदला केंद्र में २०१४ में सत्ता परिवर्तन के पश्चात. विदेशी कंपनियों पर निर्भरता कम होने लगी थी. लेकिन इस क्षेत्र में बहुत कुछ करने की आवश्यकता थी. हमारा देश, जो किसी समय विश्व में सृजन का, नवोन्मेष का केंद्र था, उसमें नया कुछ करने की हिम्मत और धमक कम हो गई थी.

इसलिये मोदी सरकार ने एक लंबी योजना के अंतर्गत मूलभूत कदम उठाए. शासन के आने के छह महीनों के अंदर, मोदी सरकार ने २५ सितंबर २०१४ को ‘मेक इन इंडिया’ अभियान प्रारंभ किया. यह एक घुमावदार मोड़ था. देश में ही उत्पादन बढ़ाने का ठोस प्रयास था. सेवा क्षेत्र के साथ उत्पादन क्षेत्र में भी बढ़त लेने का सीधा संकेत था. इसके एक वर्ष के अंदर, अर्थात १५ अगस्त २०१५ को, लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री मोदी जी ने ‘स्टार्टअप इंडिया’ की घोषणा की. देश को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में यह पहला मजबूत कदम था. किंतु तब शायद लोगों को और राजनीतिक विश्लेषकों को इस योजना का महत्व समझ में नहीं आया.

इसी के साथ योजना आयोग का पुनर्गठन कर ‘नीति आयोग’ बनाया गया. इनोवेशन संबंधी सारी योजनाएं, इस नीति आयोग के अंतर्गत लायी गईं. ‘अटल इनोवेशन मिशन’ गठित हुआ. इसके अंतर्गत शालाओं में ‘अटल टिंकरिंग लैब’ और महाविद्यालयों के लिये ‘अटल इंक्युबेशन सेंटर’ खोले गए. इसके अच्छे परिणाम आने लगे. अनेक युवा, जो कुछ नया करना चाहते थे, उन्हें मजबूत अवसर मिला. सरकार ने शुरुआत में १० हजार करोड़ रुपये का ‘स्टार्टअप फंड’ बनाया. युवाओं को पेटेंट फाइल करने के लिये प्रोत्साहन दिया. पेटेंट की फीस कम की.

इस सब के कारण उत्पादन क्षेत्र की विकास दर बढ़ी. अनेक कंपनियों ने भारत में उत्पादन करना प्रारंभ किया. सन् २०२० की पहली तिमाही में, जब कोरोना भारत के दरवाजे पर दस्तक दे रहा था, भारत में भी समस्याएं प्रारंभ हो रही थीं. २०२० की दूसरी तिमाही तो विश्व के लिये अत्यंत खराब रही, लेकिन इस तिमाही में भारत ने औद्योगिक क्रांति का बीड़ा उठाया.

१२ मई, २०२० को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी द्वारा ‘आत्मनिर्भर भारत अभियान’ की घोषणा की गई. और भारत को स्वयंपूर्ण बनाने की दिशा में किये जा रहे प्रयासों में एक ताकतवर कड़ी और जुड़ गई. यह अभियान भारत के लिये ‘गेम चेंजर’ सिद्ध हो रहा है. इसका महत्व अगले एक डेढ़ वर्ष में सबके सामने आएगा. लेकिन इसकी बानगी दिखना प्रारंभ हो गई है.

इसी चीनी महामारी, कोरोना के कारण, पूरे विश्व में पीपीई किट (पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट किट) की अत्याधिक मांग थी. मार्च २०२० तक भारत में पीपीई किट का उत्पादन नहीं होता था. किंतु इस चुनौती को स्वीकार किया गया. हमारे उद्यमियों की अथक मेहनत के कारण मई के दूसरे सप्ताह में डेढ़ लाख पीपीई किट प्रतिदिन बनना प्रारंभ हो गए थे. मात्र चार माह में, भारत में पीपीई किट का उद्योग ७ हजार करोड़ का हो गया था, जो विश्व में चीन के बाद, दूसरे क्रमांक पर है.

और आज ? आज हम छह लाख पीपीई किट प्रतिदिन बना रहे हैं. डेढ़ हजार से ज्यादा पीपीई किट्स के निर्माता, HLL (हिंदुस्तान लाइफ केअर लिमिटेड) द्वारा दिये मानकों के अनुसार पीपीई किट्स का उत्पादन कर रहे हैं. दस से ज्यादा देशों को हम ये किट्स निर्यात कर रहे हैं, जिनमें अमेरिका, ब्रिटेन जैसे बड़े देश हैं, तो सेनेगल जैसे छोटे देश भी हैं. लगभग २ करोड़ ३० लाख किट्स का ऑर्डर लंबित है.

अर्थात् हम कर सकते हैं. हमने करके दिखाया है !

वेंटिलेटर के मामले में भी यही हुआ. कोरोना के प्रारंभिक दिनों में भारत में कुल १६,००० वेंटिलेटर्स थे, जिनमें से ८,४३२ सरकारी अस्पतालों में थे. अर्थात सत्तर वर्षों में हम मात्र १६,००० वेंटिलेटर्स जोड़ सके, और वो भी सारे के सारे आयातित, इंपोर्टेड. कोरोना की आहट लगते ही प्रधानमंत्री ने Empowered Group of Secretaries (EGoS) की एक समिति बनाई, जिसने अनुमान लगाया कि कोरोना के चलते, हमे कम से कम ७५,००० वेंटिलेटर्स की आवश्यकता लगेगी. तुरंत वेंटिलेटर्स के स्पेसिफिकेशन्स बनाकर MSME मंत्रालय के साथ समन्वय बनाया गया. और एक अद्भुत इतिहास रचा गया. मात्र ३ महीने में भारत में ही ६०,००० वेंटिलेटर्स बनाए गए, और वो भी वैश्विक मानकों के साथ. आयातित वेंटिलेटर्स की एक चौथाई कीमत के ये वेंटिलेटर्स, अस्पतालों में लग भी गए हैं और सत्तर वर्ष तक उन्हें आयातित करने वाला हमारा भारत, अब पांच – छह देशों को यह निर्यात कर रहा है.

ये जबरदस्त जीवटता वाला भारत है. ये नया भारत है..!

सिरेमिक टाइल्स की गाथा भी ऐसी ही है. भारत में चीन से ये टाइल्स आयात होती थी. भारत ने चीन से आयात कम करने की नीति बनाई, तो भारतीय निर्माता आगे आए. भारत का सिरेमिक हब है, गुजरात का मोरबी शहर. पिछले कुछ महीनों में मोरबी, राजकोट आदि शहरों में सिरेमिक के सौ -सवा सौ नए कारखाने खुल गए हैं. इस क्षेत्र में लगभग १,१०० करोड़ का निवेश हुआ है. पहले से स्थापित कंपनियां अपनी क्षमता बढ़ा रही हैं. कोरोना से पहले, ये उद्योग अपने उत्पादन का १८% निर्यात करते थे. अब यह प्रतिशत २३ तक पहुंचा है, और मार्च के अंत तक यह ३० प्रतिशत तक पहुंचने का अनुमान है. ग्राहक कह रहे हैं, ये टाइल्स तो चीनी टाइल्स से भी अच्छी हैं.

इन उत्पादनों को लगने वाला कच्चा माल है, सिरेमिक का पाउडर. यह राजस्थान में बनता है. मोरबी और राजकोट के उद्योगों ने इन राजस्थानी उद्योगों का व्यवसाय भी बढ़ा दिया है. मात्र नवंबर माह में राजस्थान के सिरेमिक पाउडर बनाने वाले उद्योगों ने ७०० करोड़ का व्यवसाय किया है..!

ऐसी अनगिनत कहानियां हैं. आत्मनिर्भरता की ओर भारत के ये दमदार कदम हैं.

अभी पिछले महीने ‘एपल’ ने घोषणा की है कि उनका आईफोन बनाने का सबसे बड़ा उत्पादन केंद्र भारत बनेगा. बाजार के इस झुकाव को देखकर भारत में विदेशों से बड़ी मात्रा में निवेश हो रहा है. इस चीनी महामारी के कठिन काल में भी भारत का विदेशी मुद्रा भंडार, अपनी ऐतिहासिक ऊँचाई को छू रहा है. अभी वह ५८६.०८ बिलियन USD है, जो एक कीर्तिमान है.

भारत को आत्मनिर्भर बनाने के अनेक पहलू हैं. अनेक पक्ष भी हैं. चंद्रयान और मंगलयान मुहीम से लेकर तो रक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता का उद्घोष करने वाला भारत, वैश्विक मंच पर अपनी साख बढ़ा रहा है.

९ अगस्त, २०२० को रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने रक्षा के क्षेत्र में १०१ अस्त्र शस्त्रों की आयात पर पाबंदी की घोषणा की. सारे विश्व को चौंकाने वाला समाचार था यह. रडार, मिसाइल्स से लेकर तो गोलाबारूद तक…अनेक वस्तुओं पर प्रतिबंध घोषित किया गया. इसके दूरगामी परिणाम होंगे. सात हजार से ज्यादा एम एस एम ई सैक्टर में काम करने वाले उद्योग, जो रक्षा क्षेत्र को उपकरण बनाने में सहयोग कराते हैं, उन्हें अच्छा खासा व्यवसाय, अगले पांच वर्षों तक मिलता रहेगा. बड़े हद तक, हम स्वयंपूर्ण तो होंगे ही, साथ में ३ से ४ वर्षों में, हम रक्षा उत्पादन बड़ी संख्या में निर्यात कर सकेंगे.

एक हजार वर्ष पहले, वैश्विक बाजार में, हम जिस शिखर को छू रहे थे, उसकी ओर जाने का मार्ग अब दिखने लगा है. यह ‘आत्मनिर्भर भारत अभियान’, हमारे देश का चित्र और हमारा भविष्य बदलने की ताकत रखता है. यदि भारतीय उद्योग जगत ने इस समय अपना पुरुषार्थ दिखाया, तो आने वाला कल, निश्चित रूप से हमारा है…!

(‘आत्मनिर्भरता’ बना ऑक्सफोर्ड शब्दकोश का २०२० का हिन्दी शब्द)

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