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‘भारत के स्वराज्य’ का उद्घोष था श्री शिवराज्याभिषेक

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छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक का 350वीं वर्षगांठ

लोकेन्द्र सिंह

आज का दिन बहुत पावन है. आज से ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की स्थापना का 350वां वर्ष प्रारंभ हो रहा है. विक्रम संवत 1731 में आज ही की तिथि, ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को स्वराज्य के प्रणेता एवं महान हिन्दू राजा श्री शिव छत्रपति के राज्याभिषेक और हिन्दू पद पादशाही की स्थापना से भारतीय इतिहास को नई दिशा मिली. कहते हैं कि यदि छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म न होता और उन्होंने हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना न की होती, तब भारत अंधकार की दिशा में बहुत आगे चला जाता. महान विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद भारतीय समाज का आत्मविश्वास निचले तल पर चला गया. अपने ही देश में फिर कभी हमारा अपना शासन होगा, जो भारतीय मूल्यों से संचालित हो, लोगों ने यह कल्पना करना ही छोड़ दिया था. तब शिवाजी महाराज ने कुछ वीर पराक्रमी मित्रों के साथ ‘स्वराज्य’ की स्थापना का संकल्प लिया और अपने कृतित्व एवं विचारों से जनमानस के भीतर भी आत्मविश्वास जगाया. विषबेल की तरह फैलते मुगल शासन को रोकने और उखाड़ फेंकने का साहस शिवाजी महाराज ने दिखाया. गोविन्द सखाराम सरदेसाई अपने पुस्तक ‘द हिस्ट्री ऑफ द मराठाज-शिवाजी एंड हिज टाइम’ के वॉल्यूम-1 के पृष्ठ 97-98 पर लिखते हैं कि ‘मुस्लिम शासन में घोर अन्धकार व्याप्त था. कोई पूछताछ नहीं, कोई न्याय नहीं. अधिकारी जो मर्जी करते थे. महिलाओं के सम्मान का उल्लंघन, हिन्दुओं की हत्याएं और धर्मांतरण, उनके मंदिरों को तोड़ना, गोहत्या और इसी तरह के घृणित अत्याचार उस सरकार के अधीन हो रहे थे.. निज़ाम शाह ने जिजाऊ माँ साहेब के पिता, उनके भाइयों और पुत्रों की खुलेआम हत्या कर दी. अनगिनत उदाहरण उद्धृत किए जा सकते हैं. हिन्दू सम्मानित जीवन नहीं जी सकते थे’. ऐसे दौर में मुगलों के अत्याचारी शासन के विरुद्ध शिवाजी महाराज ने ऐसे साम्राज्य की स्थापना की जो भारत के ‘स्व’ पर आधारित था. उनके शासन में प्रजा सुखी और समृद्ध हुई. धर्म-संस्कृति फिर से पुलकित हो उठी.

हिन्दवी स्वराज्य 350 वर्ष के बाद भी प्रासंगिक है क्योंकि वह जिन आदर्शों पर खड़ा था, वे सार्वभौगिक और कालजयी हैं. हिन्दवी स्वराज्य की चर्चा इसलिए भी प्रासंगिक है क्योंकि संयोग से केंद्र में आज ऐसी शासन व्यवस्था है, जो भारत को उसके ‘स्व’ से परिचित कराने के लिए कृत-संकल्पित है.

हिन्दवी स्वराज्य का स्मरण एवं उसका अध्ययन हमें ‘स्व’ के और अधिक समीप लेकर जाएगा. प्रसिद्ध इतिहासकार जदुनाथ सरदार के अनुसार, “शिवाजी के राजनीतिक आदर्श ऐसे थे कि हम उन्हें आज भी लगभग बिना किसी परिवर्तन के स्वीकार कर सकते हैं. उन्होंने अपनी प्रजा को शांति, सार्वभौमिक सहिष्णुता, सभी जातियों और पंथों के लिए समान अवसर, प्रशासन की एक लाभकारी, सक्रिय और शुद्ध प्रणाली, व्यापार को बढ़ावा देने के लिए एक नौसेना और मातृभूमि की रक्षा के लिए एक प्रशिक्षित सेना देने का लक्ष्य रखा”. यदि हम वर्तमान सरकार की शासन व्यवस्था के सिद्धांतों को देखें, तो उसके केंद्र में भी लगभग यही विचार है. प्रधानमंत्री बार-बार यह उल्लेखित करते हैं कि उनकी सरकार ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ के मंत्र को लेकर चल रही है. शिवाजी महाराज ने राज्य को ‘स्व’ का आधार देते हुए भारत केंद्रित नीतियों को बढ़ावा दिया, जैसे- फारसी और अरबी को हटाकर स्वभाषा का प्रचलन, विदेशी मुद्रा की जगह स्वराज्य की नयी मुद्रा शुरू करना, किसानों और सरकार के बीच से बहुत समय से प्रचलित आढ़ती व्यवस्था को हटाकर राजस्व संग्रह करने के लिए रैयतवाडी व्यवस्था प्रारंभ की, सीमा सुरक्षा के नए प्रबंध, विदेश नीति में बदल, राज्य व्यवस्था को सुचारू बनाने के लिए अष्टप्रधान मंडल की व्यवस्था, सैन्य सशक्तिकरण पर जोर और मुगलों की अन्य व्यवस्थाओं को ध्वस्त करके नयी व्यवस्थाएं खड़ी करना. हिन्दवी स्वराज्य की भाँति ही वर्तमान केंद्र सरकार भी मानती है कि कृषि एवं उद्योग को प्रोत्साहन देकर लोगों की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है. जब लोग आत्मनिर्भर होंगे, तब ही राज्य भी आत्मनिर्भर होकर प्रगति की दिशा में आगे बढ़ेगा. मुद्रा प्रबंधन में भी सरकार शिवाजी महाराज की तरह सजग है. जाली नोटों से निपटने एवं कालेधन पर चोट करने के लिए केंद्र सरकार ने विमुद्रीकरण की प्रक्रिया को अपनाया. जब एक बार फिर सरकार को लगा कि दो हजार रुपये के नोट के रूप में कालाधन जमा होने लगा है और जाली नोट की संख्या भी बढ़ रही है, तब एक बार फिर सरकार ने मुद्रा प्रबंधन के सिद्धांत का पालन करते हुए नोट के प्रचलन को बंद कर दिया.

कल्याणकारी राज्य की स्थापना का एक और सिद्धांत है कि राजनीति में परिवारवाद के लिए स्थान नहीं होना चाहिए. जब छत्रपति शिवाजी महाराज ने ‘स्वराज्य’ की स्थापना की, तब उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया था कि यह भोंसले घराने का शासन नहीं है, यह मराठा साम्राज्य भी नहीं है, यह हम सबका ‘स्वराज्य’ है. इसमें सबकी समान भागीदारी है. यह ईश्वरी की इच्छा से स्थापित ‘हिन्दू साम्राज्य’ है. इसलिए उन्होंने अपने साम्राज्य को महाराष्ट्र साम्राज्य, मराठी साम्राज्य, भोंसले साम्राज्य नाम न देकर, उसे ‘हिन्दवी साम्राज्य’ और ‘हिन्दू पद पादशाही’ कहा. मुगल साम्राज्य के ज्यादातर किलों का प्रमुख औरंगजेब का कोई रिश्तेदार ही था. जबकि हिन्दवी स्वराज्य में किलेदार की नियुक्ति की कड़ी और पारदर्शी व्यवस्था थी, तय मापदंड पर खरा उतरने वाले व्यक्ति को ही किले की जिम्मेदारी मिलती थी. उनके राज्य के शासन में किसी के लिए अनुशासन में ढील नहीं थी. जो नियम सामान्य नागरिक के लिए थे, उनका पालन महाराज भी उतनी ही कठोरता से करते थे. अपराध करने पर उनके रिश्तेदार भी सजा और कानून से बच नहीं सकते थे. उनका शासन सही अर्थों में प्रजा का शासन था. मछुआरों से लेकर वेदशास्त्र पंडित, सभी उनके राज्यशासन में सहभागी थे. स्वराज्य में छुआछूत के लिए कोई स्थान नहीं था. पन्हालगढ़ की घेराबंदी में नकली शिवाजी बनकर महाराज की रक्षा करने वाले शिवा काशिद, जाति से नाई थे. अफजल खान के समर प्रसंग में शिवाजी के प्राणों की रक्षा करने वाला जीवा महाला था. आगरा के किले में कैद के दौरान उनकी सेवा करने वाला मदारी मेहतर था.

हिन्दवी स्वराज्य के 350वें वर्ष में जब हम उसका अध्ययन करेंगे तो एक बात स्पष्ट तौर पर दिखायी देगी कि छत्रपति शिवाजी महाराज मात्र एक व्यक्ति या राजा नहीं, वे एक विचार और एक युगप्रवर्तन के शिल्पकार थे. इसलिए जब ईस्वी सन् 1680 में शिवाजी महाराज ने हिन्दवी स्वराज्य की राजधानी दुर्गदुर्गेश्वर ‘रायगढ़’ की गोद में अंतिम सांस ली, तो उनका विचार उनके साथ समाप्त नहीं हुआ. अकसर यह होता है कि कोई प्रतापी राजा अपने बाहुबल और सैन्य कौशल से बड़े साम्राज्य की स्थापना करता है, लेकिन उसकी मृत्यु के बाद वह साम्राज्य ढह जाता है. शिवाजी महाराज के साथ ठीक उलटा हुआ. उनके देवलोकगमन के बाद हिन्दवी साम्राज्य का अधिक विस्तार हुआ और वह समय भी आया, जब मुगलिया सल्तनत धूलि में मिल गई तथा भारतवर्ष में हिन्दवी स्वराज्य का परम पवित्र भगवा ध्वज गर्व से लहराने लगा.

छत्रपति शिवाजी महाराज के निधन के समय मुगल साम्राज्य उत्तर में काबुल प्रांत से लेकर दक्षिण में तिरुचिरापल्ली तक, पश्चिम में गुजरात तक और पूर्व में असम के बहुत बाहरी इलाके तक, भारत के एक बड़े हिस्से पर फैला हुआ था. ऐसा कह सकते हैं कि मुगल बादशाह की हुकूमत देश के हर हिस्से में चलती थी. लेकिन 1719 में अत्याचारी औरंगज़ेब की मृत्यु के 12 वर्षों के भीतर ही मराठों ने दिल्ली में प्रवेश किया और मुगल राजधानी के मुख्य मार्गों में भगवा ध्वज लेकर पथ-संचलन कर साफ संदेश दे दिया कि अब भारत विदेशी आक्रांताओं के चंगुल से स्वतंत्र होकर रहेगा. 1740 तक मालवा और बुंदेलखंड पर मराठों का आधिपत्य हो गया. 1751 में उन्होंने उड़ीसा को अपने अधीन कर लिया और बंगाल और बिहार पर चौथ लगाया. 1757 में उन्होंने गुजरात की राजधानी अहमदाबाद पर कब्जा कर लिया और 1758 में हम उन्हें पंजाब को अधीन करते हुए और अटक के किले पर भगवा ध्वज लहरा दिया. महाद जी सिंधिया ने 1784 में दिल्ली से मुगल सल्तनत को पूरी तरह उखाड़कर फेंक दिया. 1784 से 1803 तक दिल्ली के लाल किले की प्राचीर पर हिन्दू संस्कृति का परम पवित्र ‘भगवा ध्वज’ गर्व से लहराया. अब भारत की सीमाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी हिन्दवी स्वराज्य के योद्धाओं के कंधों पर आ गई थी. इसलिए दक्षिण में तटीय क्षेत्रों को पुर्तगालियों के कब्जों से मुक्त कराना हो या फिर उत्तर में अफगानिस्तान के मैदानों से प्रवेश करने वाले आक्रांताओं के वार झेलने हों, हिन्दू साम्राज्य की सेना ही मोर्चा लिए दिखायी देती है. हमें इस तथ्य से सबको अवगत कराना चाहिए कि अंग्रेजों के हाथों में भारत के शासन के सूत्र मुगलों से नहीं, अपितु हिन्दुओं के पराभव से पहुँचे. सन् 1803 में असई की लड़ाई के साथ ही भारत में अंग्रेजों का वर्चस्व बढ़ गया, जो तीसरे आंग्ल-मराठा युद्ध-1818 में अंग्रेजों की जीत के साथ लंबे समय तक स्थायी हो गया. स्मरण रखें कि हिन्दवी स्वराज्य पर हमला करने के लिए मुगलों ने ही अंग्रेजों को आमंत्रित किया था.

हिन्दवी स्वराज्य का यह सामर्थ्य, उसका वैभव, उसके सिद्धांत और आदर्श, आज भी हमारे लिए प्रेरणा और पथ-प्रदर्शक हैं. इसलिए ‘स्वराज्य-350’ के स्वर्णिम अध्याय के पृष्ठ उलटने के कर्मकांड से ऊपर उठकर उसके आदर्श को धरातर पर उतारने और उसे प्रगाढ़ करने का वातावरण बनाना चाहिए.

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