पिंकेश लता रघुवंशी
अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥ (वाल्मीकि रामायण)
लंका विजयोपरांत लंका के वैभव और बनावट देख वहीं रहने के लक्ष्मण जी के आग्रह पर भगवान राम यही उत्तर तो देते हैं – लक्ष्मण! यद्यपि यह लंका सोने की बनी है, फिर भी इसमें मेरी कोई रुचि नहीं है. (क्योंकि) जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान है. उसी जन्मभूमि को पाने और अपने ही जन्म स्थान को सिद्ध करने के लिये भगवान राम को शताब्दियों का संघर्ष करना पड़ा, बाल रामलला को स्वयं कानूनी कार्यवाहियों का सामना करते हुए उन्हें भारतवर्ष की न्यायपालिका में यह सिद्ध करना पड़ा कि इसी अयोध्या नगरी में उसने जन्म लिया था, जिसके लिये वो परम वैभवशाली लंका नगरी का त्याग करके आए थे.
आश्चर्य है न जिस देश के कण-कण में राम व्याप्त हैं, जहाँ प्रत्येक भारतवासी अभिवादन में राम-राम कहने से लेकर राम नाम सत्य है, से अपनी जीवनलीला समाप्त करता है. जिस देश की पहचान ही राम है, उसे प्रमाणित करना पड़ा कि ये अयोध्या भूमि ही उसका जन्मस्थान है. मात्र न्यायपालिकाओं की लड़ाई ही नहीं, अनेक रक्तरंजित संघर्षों और असंख्य जीवनों की आहुति के पश्चात उस नन्हें रामलला को न्याय मिला है, जिसका संपूर्ण जीवन ही न्याय का पर्याय था.
आखिर ऐसा क्या है जो इस अवसर को भव्य और दिव्य बनाने के साथ-साथ हर भारतवासी का मन और देश का कोना- कोना उत्साह और ऊर्जा से भर रहा है, रक्षापर्व के स्थान पर दीपोत्सव मनाया जा रहा है. ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार राम वनगमन पश्चात अयोध्या लौटे थे और सम्पूर्ण अयोध्या नगरी दीपों से झिलमिला उठी थी. कोरोना के चलते हर भारतीय सशरीर अवश्य अयोध्या की पावन धरती पर नहीं पहुंचा, किंतु हर एक का मन उन क्षणों का साक्षी बना, जब सवा सौ करोड़ देशवासियों की और से प्रधानमंत्री पूजन की विधियों का निर्वहन कर समस्त भारतीयों के हस्तकमलो और मन मानस का प्रतिनिधित्व कर रहे थे.
अयोध्या संघर्ष के पांच सौ वर्ष – पांच अगस्त भूमिपूजन की यह तिथि और दिवस अपने में एक बड़ा संघर्ष और साधना समाहित किये हुये है. जनमानस की आस्था का केन्द्र अयोध्या नगरी को भगवान श्रीराम के पूर्वज विवस्वान (सूर्य) पुत्र वैवस्वत मनु ने बसाया था, तभी से इस नगरी पर सूर्यवंशी राजाओं का राज महाभारत काल तक रहा, और इसी नगरी में प्रभु श्रीराम का अपने पिता राजा दशरथ के महल में जन्म हुआ. महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में जन्मभूमि की तुलना दूसरे इन्द्रलोक से की है. महर्षि वाल्मीकि अयोध्या का वर्णन करते हुये लिखते हैं –
कोसल नाम मुदितः स्फीतो जनपदो महान.
निविष्टः सरयू तीरे प्रभूतधनधान्यवान..
वर्णन है कि भगवान श्रीराम के जल समाधि लेने के पश्चात अयोध्या कुछ काल के लिये कांतिहीन सी हो गयी थी, किंतु उनकी जन्मभूमि पर बना महल वैसे का वैसा ही था. भगवान श्रीराम के पुत्र कुश ने एक बार पुनः राजधानी अयोध्या का पुनर्निर्माण कराया. इस निर्माण के बाद सूर्यवंश की अगली ४४ पीढ़ियों तक इसका अस्तित्व अंतिम राजा, महाराज बृहदवल तक अपने चरमोत्कर्ष पर रहा. कौशलराज बृहदवल की मृत्यु महाभारत युद्ध में अर्जुन पुत्र अभिमन्यु के हाथों होती है. महाभारत युद्ध के पश्चात अयोध्या पुनः वीरान सी हो जाती है, किंतु श्रीराम जन्मभूमि का अस्तित्व फिर भी बना रहा.
अयोध्या नगरी का आगे उल्लेख मिलता है कि ईसा के लगभग १०० वर्ष पूर्व उज्जैन के चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य एक दिन आखेट करते-करते अयोध्या पंहुच गए, शारीरिक थकान होने के कारण अयोध्या में सरयू नदी के किनारे एक आम के वृक्ष के नीचे वे अपनी सेना सहित विश्राम करने लगे. उस समय यहां घना जंगल हो चला था और बसाहट भी कम हो गयी थी. महाराज विक्रमादित्य को इस भूमि में कुछ चमत्कार दिखाई देने लगे. तब उन्होंने खोज करना आरंभ किया और निकटस्थ योगियों व संतों से जानकारी में उन्हें ज्ञात हुआ कि यह श्रीराम की अवध भूमि है. उन्हीं संतों के निर्देशानुसार उन्होंने यहां भव्य मंदिर के जीर्णोद्धार के साथ ही कूप, सरोवर, महल आदि बनवाए. ऐसा बताया जाता है कि उन्होंने श्रीराम जन्मभूमि पर श्यामवर्ण कसौटी पत्थरों वाले ८४ स्तंभों पर विशाल मंदिर का निर्माण करवाया था. इस मंदिर की भव्यता और दिव्यता देखते ही बनती थी.
विक्रमादित्य के बाद के राजाओं ने समय-समय पर इस मंदिर की देख-रेख की. उन्हीं में से एक शुंग वंश के प्रथम शासक पुष्यमित्र शुंग ने भी मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था. पुष्यमित्र का एक शिलालेख अयोध्या से प्राप्त हुआ था, जिसमें उसे सेनापति कहा गया है तथा उसके द्वारा दो अश्वमेघ यज्ञों के किये जाने का वर्णन भी मिलता है. अनेक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गुप्तवंशीय चंद्रगुप्त द्वित्तीय के समय और तत्पश्चात लंबे समय तक अयोध्या गुप्त साम्राज्य की राजधानी थी. गुप्तकालीन महाकवि कालिदास ने अयोध्या का रघुवंश महाकाव्य में अद्भुत वर्णन किया है.
इतिहासकारों के अनुसार ६०० ईसा पूर्व अयोध्या एक महत्वपूर्ण व्यापार केन्द्र बन गया था. इस स्थान को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति ५वीं शताब्दी में ईसा पूर्व तब मिली, जब यह एक प्रमुख बौद्ध केंद्र के रुप में विकसित हुआ. उस समय इसका नाम साकेत था. चीनी यात्री फाह्यान ने यहां देखा कि अनेक बौद्ध मठों का रिकॉर्ड सुरक्षित रखा गया है. यहां पर ७वीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग आया था. उसके अनुसार यहां २० बौद्ध मंदिर थे, जिनमें लगभग ३००० भिक्षु रहते थे. वह अपने यात्रा वृतांत में स्पष्ट वर्णन करता है कि यहां अयोध्या में हिन्दुओं का एक प्रमुख भव्य मंदिर है, जहाँ प्रतिदिन हजारों की संख्या में हिन्दू तीर्थयात्री दर्शन करने के लिये आते है. यहाँ मैं स्पष्ट कहना चाहती हूँ कि इसके अतिरिक्त बौद्ध धर्म का अयोध्या में अन्य कोई वर्णन नहीं रहा. अतः जो लोग बौद्ध धर्म के नाम पर विद्वैष और वैमनस्य फैलाकर इस भूमि पर बौद्ध मंदिर होने का अभियान चला रहे हैं, एकबार चीनी यात्रियों ह्वेनसांग और फाह्यान के यात्रा वृत्तांतों का ध्यान से अध्ययन कर लें.
इसके बाद ईसा की ११वीं शताब्दी में कन्नौज नरेश जयचंद यहां आया और उसने मंदिर पर लगे सम्राट विक्रमादित्य के प्रशस्ति शिलालेखों को निकलवाकर अपना नाम लिखवा दिया. पानीपत के युद्ध के बाद जयचंद का भी अंत हो गया. अब भारत पर विदेशी आक्रांताओं का आक्रमण और बढ़ गया. आक्रमणकारियों ने काशी, मथुरा के साथ ही अयोध्या में भी लूटपाट की और पुजारियों की हत्या कर मूर्तियों को खंडित करने का क्रम जारी रखा. किंतु १४वीं शताब्दी तक वे अयोध्या में राम मंदिर को तोड़ने में सफल नहीं हो पाए.
विभिन्न आक्रमणों और आघातों के बाद भी सभी झंझावातों को सहते हुए श्रीराम जन्मभूमि पर बना भव्य मंदिर १४वीं शताब्दी तक अपना अस्तित्व बचाए रहा. कहा जाता है कि सिंकदर लोदी के शासनकाल के समय भी यहां मंदिर मौजूद था. १४वीं शताब्दी में भारत पर मुगलों का अधिकार हो गया और उसके बाद ही श्रीराम जन्मभूमि एवं अयोध्या को नष्ट करने के लिये अनेक अभियान चलाए गए. अंततः १५२७-२८ में इस भव्य मंदिर को तोड़ दिया गया और उसके स्थान पर बाबरी ढांचा खड़ा किया गया.
कहा जाता है कि मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के एक सेनापति ने बिहार विजय अभियान के समय अयोध्या में श्रीराम के जन्मस्थान पर स्थित भव्य और प्राचीन मंदिर को तोड़कर एक मस्जिद बनवाई थी, जो १९९२ तक विद्यमान रही.
बाबरनामा के अनुसार १५२८ में अयोध्या पड़ाव के दौरान बाबर ने मस्जिद निर्माण का आदेश दिया था. अयोध्या में बनाई गई मस्जिद में खुदे दो संदेशों से इसका संकेत भी मिलता है. इसमें एक संदेश विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिसका सार है – जन्नत तक जिसके न्याय के चर्चे हैं, ऐसे महान शासक बाबर के आदेश पर दयालु मीर बाकी ने फरिश्तों की इस जगह को मुकम्मल कर दिया. यह थी चोरी और ऊपर से सीनाजोरी, जिसका खामियाजा वर्षों तक भारतवासी भोगते आए हैं.
कहीं-कहीं यह भी कहा जाता है कि अकबर और जहांगीर के शासनकाल में हिन्दुओं को चबूतरे के रुप में सौंप दी गई थी, किंतु क्रूर आततायी औरंगजेब ने अपने पूर्वज बाबर के सपने को पूरा करते हुए यहाँ भव्य मस्जिद का निर्माण कर उसका नाम बाबरी मस्जिद रख दिया था.
(लेखिका बरकतउल्ला विश्वविद्यालय भोपाल कार्यपरिषद, तथा विद्या भारती मध्यभारत प्रांत कार्यकारिणी की सदस्य हैं)