लवी चौधरी
भारत के चिंतन और दर्शन ने सुदीर्घकाल से विश्व जगत को स्पंदित किया है. पाश्चत्य जगत की भोगवादी चमक-धमक को छोड़कर स्वामी विवेकानंद का शिष्यत्व ग्रहण करने वाली मार्गरेट से भगिनी निवेदिता बनने की उनकी यह यात्रा न सिर्फ प्रेरणादायी है, बल्कि भारतीयता की ओजस्वी कहानी है. उन्होंने स्वामी विवेकानंद के आकर्षक व्यक्तित्व और सदाचार से प्रभावित होकर अपना देश छोड़ा, तथा उन्हीं के ज्ञान से पोषित होकर भारत को कर्मभूमि के रूप में वरण किया. एक शिक्षिका और लेखिका मार्गरेट से वह भगिनी निवेदिता के रूप में श्रेष्ठ आध्यात्मिक व सामाजिक कार्यकर्ता बन गईं.
विश्व में भारतीय संस्कृति की ध्वजा लहराने वाले स्वामी विवेकानन्द की शिष्या मार्गरेट नोबल का जन्म 28 अक्तूबर, 1867 को आयरलैंड में हुआ. उनके पिता सैमुअल नोबल एक पादरी थे. माँ मैरी हैमिल्टन एक सामाजिक कार्यकर्ता, शिक्षिका व लेखिका थीं. 1884 में एक स्थानीय स्कूल में बतौर शिक्षिका पढ़ाने लगीं. 1895 में मार्गरेट की सहेली ने एक भारतीय साधु से मुलाकात करवाने के लिए उन्हें आमंत्रित किया. मार्गरेट स्वामी विवेकानंद के अलौकिक व्यक्तित्व और विचारों से बहुत प्रभावित हुईं. स्वामी जी को समाज सेवा को प्रतिबद्ध निश्च्छल मार्गरेट में भारत की मातृशक्ति को जागृत करने का दैदीप्यमान व्यक्तित्व दिखा.
28 जनवरी, 1895 को मार्गरेट जन्मभूमि छोड़ हमेशा के लिए भारत आ गईं. भारत आने पर कोलकाता में उनके स्वागत के लिए स्वयं स्वामी जी उपस्थित थे. मार्गरेट ने भारत आने पर यह मान लिया था कि अब यही उनकी कर्मभूमि है और सेवाकार्य ही उनका परम लक्ष्य है. 25 मार्च, 1898 को भगवान शिव की विधिवत पूजा के बाद स्वामी जी ने आशीर्वाद दिया और मार्गरेट का नाम बदलकर निवेदिता रखा. भगिनी निवेदिता के जीवन को जब हम देखते हैं तो पता चलता है कि उन्होंने वेदांत को सीखा, अपनाया और जीया भी. इस क्रम में बंगाल में निरक्षरता के अँधेरे को मिटाकर विशेष रूप से महिला शिक्षा को भरपूर बढ़ावा दिया. 1899 में कोलकाता में प्लेग पीड़ितों की सेवा की और बाढ़ प्रभावितों की सेवा की. आजीवन अटल रहकर समर्पण भाव से जनता की सेवा में लग्न रहीं.
दीक्षा प्राप्त करने के बाद निवेदिता कोलकाता के बागबाज़ार में बस गईं. यहाँ पर उन्होंने लड़कियों के लिए एक विद्यालय प्रारंभ किया. लड़कियों के माता-पिता को उन्हें पढ़ने भेजने के लिए प्रेरित करती थीं. निवेदिता स्कूल का उद्घाटन स्वामी रामकृष्ण परमहंस की पत्नी मां शारदा ने किया था. निवेदिता को पता था – बाल विवाह जैसी कुरीतियों को खत्म करने के लिए लड़कियों को शिक्षित करना बहुत जरुरी है. धीरे-धीरे निवेदिता की लोकप्रियता बढ़ी तो उन्हें लोग “सिस्टर निवेदिता” के नाम से पुकारने लगे.
भगिनी निवेदिता ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी प्रभावी भूमिका निभाई. निवेदिता को स्पष्ट अनुभव हो चुका था कि ब्रिटिश शासन के अंत के बिना भारतीय एक आदर्श मानवीय जीवन नहीं जी सकते. देखा कि अंग्रेज़ सरकार किस तरह भारतीयों का शोषण कर रही है. भारत में अंग्रेजों के अत्याचारों को देख उनके विरुद्ध विचार, वाणी तथा कर्म से संघर्षरत हो गयी.
निवेदिता ने स्वतंत्रता की अलख जगाने के लिए विद्यालय को राष्ट्रीयता का केंद्र बनाया. बंकिमचन्द्र का गीत “वन्देमातरम” जो आजादी की लड़ाई का मंत्र था, वह पाठशाला का प्रार्थना गीत बन गया.
वर्ष 1905 में अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन किया. स्वास्थ्य खराब होने के बावजूद निवेदिता अंग्रेजी शासन के विरुद्ध आन्दोलन में कूद पड़ीं.
अपने अंतिम समय में निवेदिता ने संपत्ति, नकद राशि तथा अपनी लेखन से मिले धन को बैलूर मठ को समर्पित कर दिया. उनकी आखिरी इच्छा यही थी कि इस धन का उपयोग भारत की महिलाओं को राष्ट्रीयता की शिक्षा देने में किया जाए.
13 अक्तूबर, 1911 भारत की बेटी, भारत में बालिका शिक्षा, अध्यात्म, देशप्रेम और समाजसेवा का अलख जगाने वाली स्वामी विवेकानंद जी की सुयोग्य व गुणी शिष्या का देहांत हो गया. आज भी उनकी समाधि पर लिखा है – यहाँ भगिनी निवेदिता चिरनिद्रा में सो रही हैं, जिन्होंने भारत के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया.