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महाराजा रणजीत सिंह जी की पुण्यतिथि पर विशेष

   – इकबाल सिंह लालपुरा

महाराजा रणजीत सिंह 40 साल राज करके जून 27, 1839 को इस नश्वर संसार को अलविदा कह गए. 2020 ईस्वी में उनकी मौत के 181 वर्ष बाद बीबीसी द्वारा किए गए एक सर्वे में उन्हें संसार का महानतम शासक चुना गया. उनके बाद दूसरे नंबर पर अफ्रीकी शासक एमिलकारकैब्रिएल, तीसरे नंबर पर विन्स्टर चर्चिल ब्रिटानिया और चौथे नंबर पर अब्राहम लिंकन का नाम आता है. यह चुनाव दुनिया के इतिहास में राजाओं और शासकों के समाज पर उनके अच्छे प्रभाव के बारे में था. महाराजा साहब के राज में धार्मिक कट्टरवाद के मुकाबले सहनशीलता, आजादी और सहयोग की नीति प्रधान थी. महाराजा साहब लोगों को एक दूसरे के साथ जोड़ने वाले तथा खुशहाली और सहनशीलता के प्रतीक हैं. उनका राज-काज केवल पंजाब ही नहीं उत्तर पश्चिमी भारत का भी सुनहरा समय था.

बीबीसी के एडिटर मेट वेल्टन के अनुसार उनकी नीतियां दुनिया को खुशहाल बनाने के लिए मार्गदर्शक बनकर समाज की सहायता कर सकती हैं. जहां तक उनकी उपलब्धियों की बात है, फकीर सैय्यद वहीदुद्दीन जो फकीर अजीजुद्दीन विदेश मंत्री सरकार खालसा के अंश में से हैं, वे असली रूप रणजीत सिंह में लिखते हैं कि रणजीत सिंह सभी कसौटियों पर खरे उतरते थे. वह एक छोटी सी रियासत जो मुगल राज की बर्बादी के बाद अस्तित्व में आई उसके वारिस थे. जो बढ़ते-बढ़ते बड़े राज-काज का मालिक बन गया, जिसका इलाका तिब्बत से सिंध तक और दर्रा खैबर से सतलुज तक फैला हुआ था. वह अंग्रेज, जिनकी ताकत पूरे भारत में फैल चुकी थी, का एक मित्र, विरोधी, सहायक सब कुछ था, जिससे वह डरते थे और उसका सत्कार भी करते थे. इस देश ने सदियों से अफगानों के झगड़े, धोखे और लूट मार ही सहन की थी. उन सबका बदला उन्होंने लिया और भारत का हारा हुआ, हिस्सा तो वापिस लिया ही और उससे ज्यादा अफगानिस्तान के झगड़ों में मध्यस्थता भी की.

केवल फकीर खानदान ही नहीं जो भी उनसे मिला, उनके संपर्क में आया वो उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका. अपना आप तो सब को अच्छा लगता है, पर जब विरोधी या विश्लेषक प्रशंसा करें, तभी असली सच उजागर होता है.

उस समय पंजाब की यात्रा करने आए विदेशी यात्री उनकी चमत्कारी बुद्धि और राज प्रबंध देखकर वाह-वाह कर उठते थे. मिस्टर मूरक्राफ्ट ने अपने सफरनामा में लिखा है कि मैंने एशिया में महाराजा रणजीत सिंह जैसा बुद्धिमान राजा अभी तक नहीं देखा. विक्टर यक्मो‘लेटर फ्रॉम इंडिया 1839’में लिखते हैं, “उसकी बातचीत डरावने सपने की तरह है. वह पहला इतना जिज्ञासु भारतीय है, जिससे मैं मिला हूं, उसके समक्ष हमारा बुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति भी साधारण है.” सर एलग्जेंडर बरनर्स लिखते हैं, “मैं कभी भी हिंदुस्तान में किसी पुरुष को मिलकर इतना प्रभावित नहीं हुआ, जितना कि इस आदमी से बिछड़ते हुए हो रहा हूँ. बिना शिक्षा व बिना किसी सलाहकार के वह अपने सारे राजपाठ के काम इतनी चुस्ती और होशियारी से करता है और फिर भी वह अपनी ताकत का प्रयोग इतनी हमदर्दी के साथ करता है, जिसकी मिसाल भारतीय शासकों में बहुत मुश्किल से मिलती है” (ई.1834) डब्लू. जी. उसबर्न  (कोर्ट एंड कैंप ऑफ महाराजा रणजीत सिंह 1840 में) लिखता है, “वह इस तरह का व्यक्ति था, जिसे कुदरत ने विशेषता और बड़प्पन की प्राप्ति के लिए पैदा किया था. यह सही है कि वह ताकत के जोर पर राज करता है. परंतु इंसाफ के मामले में वह बताते हैं कि युद्ध के समय को छोड़कर उसने किसी भी व्यक्ति की जान कभी भी नहीं ली.

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उसकी हकूमत बहुत सारे तहजीब पसंद हुकुमरानों की तुलना में जनमत की कार्रवाई में बहुत आजाद है.” डब्ल्यू एल मैकग्रेगर “हिस्ट्री ऑफ सिक्ख्स 1846” में लिखता है, “यह साफ जाहिर है कि वह एक आम मनुष्य नहीं है, परंतु ऐसी मानसिक शक्तियों का मालिक है जो पूर्वी और पश्चिमी दोनों दुनिया में कभी-कभी ही देखने को मिलती हैं.” कैप्टन लिओ पोलार्ड फूनआरलिश “ट्रैवल्स इन इंडिया 1845” में लिखता है कि युद्ध में वह हमेशा अपनी सेना में सबसे आगे रहता था. दृढ़ इरादे और सहनशक्ति के मामले में उसकी प्रजा में उस जैसा कोई नहीं था. शिक्षा की कमी की कसर, उसके कमाल दर्जे की मानसिक शक्तियां जो उसे कुदरत से मिली थीं, ने पूरी कर दी थी. उनकी दूरदृष्टि और मनुष्यता के अनुभव की विशेषता, उसे उच्च दर्जे पर टिके रहने में सहायता करती थी. वफादार नौकर और बहादुर सिपाही उनकी उच्च दर्जे की सेवा में थे. “हिस्ट्री ऑफ पंजाब” 1840 ईस्वी में कैप्टन मरे लिखते हैं कि रणजीत सिंह की तुलना मोहम्मद अली और नेपोलियन के साथ की जाती है, परंतु यदि उसकी शख्सियत को उन्हीं स्थितियों और पदवी के संदर्भ में देखा जाए तो वह इन दोनों से बहुत महान था. उसके स्वभाव में निर्दयता का थोड़ा सा भी अंश नहीं था. उसने किसी भी दोषी को बड़े से बड़े अपराध के लिए कभी भी फांसी नहीं दी. मानवता और जीवन के लिए दया रणजीत सिंह का खास गुण था. कोई भी ऐसी मिसाल नहीं मिलती है, जिसमें उसने अपने हाथ जान-बूझकर खून से रंगे हों. इतिहास की पुस्तकें महाराजा रणजीत सिंह की महानता और विलक्षण प्रतिभा की कहानियों और टिप्पणियों के साथ भरी हुई है, केवल यही नहीं महाराजा रणजीत की तरफ से जारी हुकम और जीवन की घटनाएं भी उनकी बहादुरी, इंसाफ पसंद, धर्मनिरपेक्षता, तरक्की, सहनशीलता और दयालुता की गवाही देती हैं.

महाराजा अपने बचपन के नाम बुध सिंह और फिर रणजीत सिंह, दोनों नामों के गुणों बुद्धि और बहादुरी से भरपूर थे. महाराजा रणजीत सिंह खुद को श्री गुरु गोविंद सिंह जी के रणजीत नगारे की तरह गुरु की आवाज बताने वाला बताते थे. किसी भी राजा का सबसे बड़ा गुण उसका न्यायप्रिय होना होता है. जिस राज्य में इंसाफ होता है, वहां तरक्की और आपसी भाईचारा अपने आप ही बढ़ जाता है.

उदाहरण के तौर पर महाराजा रणजीत सिंह के दो नीचे लिखे हुकम बताने योग्य हैं.

हुकम – सच्चे खेर खाह फकीर नुरुद्दीन जी के साथ सरकार का यह आदेश है कि कोई भी आदमी शहर में लोगों के ऊपर जुर्म जबरदस्ती ना करे. अगर महाराजा स्वयं किसी लाहौर वासी के विरुद्ध ऐसा आदेश दें जो सही ना हो तो उस आदेश को महाराज के सामने पेश किया जाए और उस आदेश में जो उचित होगा वह बदलाव किया जाएगा. बहादुरी के रक्षक मलावा सिंह को हमेशा सलाह दी जाए कि वह उचित अधिकारों को ध्यान में रखते हुए कोई फैसला ले, जिसमें थोड़ा सा भी जुल्म ना हो. इसके अतिरिक्त उसको यह भी बताया जाए कि अपने आदेश शहर के पंचों और जजों के साथ सलाह सहमति करने के बाद ही जारी करें तथा दोनों धर्मों के अनुसार चाहे कुरान या वेदों को ध्यान में रखते हुए इन्साफ हो. इसी में हमारी खुशी है. (महाराजा के दरबार से भेजी गई तारीख 31 भादो संवत 1881)

 

दूसरा फैसला हुकम उज्जवल दीदार निर्मल बुध सरदार अमीर सिंह जी हमारे नेक खेर खाह फकीर नूरुद्दीन जी अगर महाराजा साहिब का प्यारा लड़का खड़क सिंह (युवराज), कुंवर शेर सिंह जी, राजा कल्याण बहादुर, सरदार सुचेत सिंह जी या जमादार कोई भी ऐसा काम करें जो न्यायोचित न हो तो आप इस बात को महाराज के ध्यान में लेकर आएं तथा सरकार के विश्वासपात्र नुमाइंदों को आदेश भेजा जाए कि वह भी कोई ऐसा काम ना करें. इसके अलावा किसी की जमीन पर कब्जा ना किया जाए, किसी के घर ना गिराया जाए, ना ही आप किसी को आज्ञा दें कि किसी लकड़हारे, घास बेचने वाले, तेल बेचने वाले, घोड़ों को नाल लगाने वाले, कारखाने में काम करने वाले के साथ कोई बुरा व्यवहार करे तथा जालिम को जुलम करने से रोका जाए और सब को अपना हक मिले किसी के साथ किसी भी तरह का अन्याय ना हो. (लाहौर दरबार तारीख 19 को संवत 1888)

 

यह दरबारी आदेशों के केवल उदाहरण मात्र हैं. परंतु आज देश की आजादी के 73 साल बाद भी कोई इस तरह के आदेश जारी नहीं कर सका है. इसके अलावा सरकारी नौकरियों में अलग-अलग धर्मों तथा अलग-अलग आस्थाओं के अफसर लगाए गए, जो विश्व भर से नौकरी करने आए थे. जिनमें मुसलमान, हिन्दू, ईसाई, सिक्ख, खत्री, ब्राह्मण, डोगरे, राजपूत, पठान, इतालवी, फ्रांसीसी, अंग्रेज, अमरीकन, स्पेनिश, रूसी इत्यादि अधिकारी थे. सरकारी रिकॉर्ड दरबार खालसा के अनुसार 54 विदेशी अफसरों का रिकॉर्ड मौजूद है. विदेशी अफसर उस वक्त के अंग्रेजी सरकार से अच्छी फ़ौज साजों समान बनाने में सहायक होते थे. 92000 पैदल, 31800 घुड़सवार और 784 बड़ी छोटी तोपें सरकार खालसा के पास थीं.

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लाहौर दरबार के आर्थिक खुशहाली का इसी बात से पता चलता है कि विदेशी नौकरी करने के लिए लाहौर दरबार में आते थे. सालाना आमदनी ₹3,24,75,000 थी. लेफ्टिनेंट कर्नल स्टेन बैक के अनुसार रणजीत सिंह के खजाने में उनकी मौत के समय 8 करोड़ नगदी या इतने ही पॉन्ड थे. इसके अलावा हीरे-जवाहरात, घोड़े, हाथी आदि कई लाख थे. शायद यूरोप के किसी भी शासक के पास इतने बेशकीमती हीरे नहीं होंगे, जितने कि लाहौर के दरबार के पास थे.‘दी पंजाब 1846 ईसवी’ सामाजिक रूप से खुले दिल स्वभाव के कारण महाराजा साहब स्वयं और शाही परिवार हिन्दू, मुसलमान और सिक्खों के धार्मिक त्योहारों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते थे. महाराज के प्यार की वजह से ही हिन्दू, मुसलमान और सिक्ख पूजा-पाठ के मौकों पर उन्हें याद करते तथा उनकी तरक्की और जीत की कामनाएं मांगते थे. महाराज साहब का दिन रोज सवेरे श्री गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी और गुरमत अनुसार पूजा पाठ करके ही शुरू होता था और वह श्री गुरु गोविंद सिंह के हुकम सदा बोलते थे “देहुरा मसीत सोई पूजा निवाज ओई, मानस सभै एक पै अनेक को भ्रामाउ है.”

महाराजा रणजीत सिंह ने बहादुरी और हिम्मत से एक बड़े राज्य की स्थापना की थी, जिसका वृतांत बहुत लंबा है, पर असली रणजीत सिंह का प्रभाव और पक्ष एक रहम दिल बादशाह का था. जो पिता की तरह दयालु है ना कि केवल एक विजेता बादशाह की तरह. पूर्ण मनुष्य, दयालु और विजेता तीनों गुणों का सुमेल ही महाराजा रणजीत सिंह का जीवन था.

गोली के साथ शेर मारने की बजाय तलवार के साथ उसका मुकाबला करने वाले को वह बहादुर मानते थे. उन्हें ‘शेरे पंजाब’ कहकर बुलाना भी अंग्रेजों ने ही शुरू किया था. अपनी संसारिक यात्रा 27 जून 1839 ईस्वी को पूर्ण करने से 4 दिन पहले उन्होंने अपने रिश्तेदारों और दरबारियों को संबोधित करते हुए अपनी अंतिम इच्छा जाहिर की, “बहादुर खालसा जी आपने खालसा राज की स्थापना के लिए जो बलिदान और रक्त की नदियां बहाई है, वह व्यर्थ नहीं गया. इस समय आप अपने आसपास जो कुछ भी देख रहे हैं सब आप की कुर्बानियों का ही फल है. मैंने गुरु के और आपके भरोसे से एक साधारण गांव से उठकर पंजाब के बाहर अफगानिस्तान, कश्मीर, तिब्बत व सिंध की दीवारों तक खालसा का राज स्थापित कर दिया है. अब कुछ दिनों का ही मेला है, थोड़े समय तक मैं आप सबके बीच नहीं रहूंगा. मुझसे जो कुछ भी हो सका मैंने आपकी सेवा की, धीरे-धीरे सरदारी के मोतियों को पिरोकर एक माला बना दी है, अगर एक दूसरे के साथ मिलकर रहोगे तो बादशाह बने रहोगे, अगर बिखर जाओगे तो मारे जाओगे. प्यारे खालसा जी, आप सब की तलवार की ताकत पूरे संसार में प्रसिद्ध है. डर बस इस बात का है कि यह तलवार हमारे आपस के घरों में ही ना खटक जाए. आप सबने गुरु कलगीधर पातशाह जी का अमृत धारण किया है, जिसमें सारे संसार का ज्ञान है. हमेशा पतासे की तरह घुल मिल कर रहना और समय आए तो तलवार की तरह सख्त और तेज भी हो जाना. गरीब और दुखियों की ढाल बनकर और जालिमों पर तलवार बनकर चमकना. दुश्मनों की चाल से हमेशा सावधान रहना. आजादी मुझे जान से भी प्यारी है, सिक्खों के झंडे हमेशा बुलंद रहे यही मेरी आखिरी इच्छा है. कोई विदेशी अगर पंजाब में पैर रखता है तो इसका अर्थ वह मेरी छाती पर पैर रखे हुए है. गैरों के झंडे के सामने झुकना मेरी शान को बेचने बराबर होगा. अगर आप किसी के गुलाम बन जाओगे तो मेरी आत्मा दुखी होगी, अब और बातों का समय नहीं है.”

महाराजा रणजीत सिंह आज भी अपने लोगों की कल्पना में जिंदा है. भला हो विदेशी विद्वानों का जिन्होंने 181 वर्षों बाद महाराजा रणजीत सिंह को संसार का सर्वश्रेष्ठ राजा चुना है, परंतु अफसोस है उन्हीं की धरती पर उनकी रणनीति और राजनीति को आगे नहीं बढ़ा सके.

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