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स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती जी ने जनजातीय क्षेत्रों में पहुंचाया ज्ञान

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स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती जी की हत्या को 16 वर्ष बीत चुके हैं. भले ही वह आज नहीं हैं, लेकिन स्वामी जी के अनुयायी उसी जोश और उत्साह के साथ उनके मिशन को आगे बढ़ा रहे हैं. अगस्त 2008 में जन्माष्टमी के दिन जनजातीय बहुल कंधमाल जिले के जलेशपेटा आश्रम में स्वामी जी की व उनके सहयोगियों की हत्या कर दी गई थी. स्वामी लक्ष्मणानंद हिन्दू परंपरा के किसी भी संन्यासी की तरह भगवा वस्त्र पहनते थे, लेकिन उनका पूरा जीवन व्यक्तिगत मोक्ष के लिए बिल्कुल भी नहीं था.

मृत्यु से चार दशक पहले एक अज्ञात लक्ष्मणानंद हिमालय में अपनी साधना को छोड़ कर पैदल ही दुर्गम कंधमाल जिले के चकापाद पहुंचे थे. जब वह हिमालय में साधना कर रहे थे, तभी उन्हें किसी ने ओडिशा के गरीबों व जनजातीय लोगों के लिए कुछ करने के लिए कहा था. उन्होंने कंधमाल जिले को अपनी कर्मभूमि चुना जो शिक्षा और आर्थिक दृष्टि से बहुत पिछड़ा हुआ था.

1969 में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती जनजाति बहुल कंधमाल जिले के चकापद गांव पहुंचे. बहुत ही दुर्गम इलाका होने के कारण उन दिनों वहां पहुंचने का कोई साधन नहीं था. वे पैदल पहुंचे थे. उन्होंने चकापाद में संस्कृत विद्यालय की शुरुआत की.

अब इस विद्यालय और महाविद्यालय में 340 छात्राएं संस्कृत की शिक्षा प्राप्त कर रही हैं. वर्तमान में चकापाद में न केवल कंधमाल जिले के बच्चे पढ़ रहे हैं, बल्कि कंधमाल के अलावा आसपास के छह अन्य जिलों और 17 प्रखंडों के बच्चे भी वहां पढ़ रहे हैं. अधिकांश छात्र जनजाति वर्ग से हैं.

स्वामी जी स्त्री-पुरुष समानता के प्रबल समर्थक थे. 1988 में उन्होंने कंधमाल जिले के जलेशपेटा में प्रकल्प शंकराचार्य कन्याश्रम की स्थापना की. इसी कन्याश्रम में 23 अगस्त, 2008 में हत्यारों ने उनकी हत्या कर दी थी.

विश्व हिन्दू परिषद के केन्द्रीय मंत्री सुधांशु पटनायक बताते हैं – “स्वामी लक्ष्मणानंद जी ने जीवन भर यह माना कि जनजातीय लोगों की जड़ें भारतीय संस्कृति और परंपरा में गहरी हैं और उन्हें कभी भी पिछड़ा नहीं माना जा सकता. उनका दृढ़ विश्वास था कि एक खुशहाल और समृद्ध समाज के लिए महिलाओं को पुरुषों के बराबर दर्जा मिलना चाहिए. उन्होंने एक छोटे से क्षेत्र को आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास किया ताकि एक खुशहाल पारिवारिक जीवन के लिए भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बाहरी दुनिया पर निर्भर न रहना पड़े. शिक्षा किसी भी समाज के लिए वास्तविक सशक्तिकरण है. प्रलोभन और कन्वर्जन के माध्यम से विदेशी संस्कृति का आगमन भारत की संप्रभुता और अखंडता के लिए वास्तविक खतरा है. उनका पूरा जीवन अपने इस विश्वास के लिए समर्पित था. अपने रक्त की आखिरी बूंद तक इसके लिए प्रयासरत रहे”.

पटनायक कहते हैं – “संस्कृत और वेदों के प्रखर विद्वान स्वामी जी ने जनजातीय बच्चों को वैदिक सूत्र पढ़ाना शुरू किया. उनका मानना था कि भारत की धरती पर जन्मा कोई भी व्यक्ति संस्कृत का अध्ययन करने के लिए योग्य है. उनके लिए संस्कृत उनके दिल और दिमाग में आसानी से उतर जाएगी. संस्कृत को सभी वर्गों तक पहुंचाना चाहते थे”.

स्वामी जी के परिश्रम के कारण उनके संस्कृत माध्यम विद्यालय में धीरे-धीरे शास्त्री और उपशास्त्री तक की कक्षाएं शुरू हुईं. संस्कृत विद्यालय से पढ़ाई करने के बाद निकले अनेक जनजातीय छात्र आज अनेक महाविद्यालय, विश्वविद्यालयों में अध्यापक बनने के साथ साथ ओडिशा प्रशासनिक सेवा में योगदान दे रहे हैं. स्वामी जी के विद्यालय के छात्र कंधमाल और आसपास के जिलों में संस्कृत शिक्षक के रूप में कार्यरत हैं.

स्वामी लक्ष्मणानंद पहले दिन से ही इस धारणा के घोर विरोधी थे कि जनजातीय समाज बौद्धिक रूप से पिछड़ा हुआ है. उन्होंने इस पर बहस करने के बजाय अपने विद्यालय में इसके व्यावहारिक क्रियान्वयन के माध्यम से बहस से परे साबित कर दिया. उनके आलोचकों के पास शायद लड़ने के लिए कोई तर्क नहीं बचा था.

स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती जातिगत ऊंच-नीच में विश्वास नहीं करते थे और उन्होंने कभी नहीं माना कि भगवान की पूजा करना किसी जाति का एकाधिकार है. जैसे ही सुबह होती है, उनके आश्रम सह विद्यालय में छात्र, जिनमें से अधिकांश जनजातीय होते, देश के किसी भी बड़े मंदिर के विद्वान पंडितों की तरह वेद मंत्रों का उच्चारण करते हुए यज्ञ करते हुए दिखाई देते.

स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती का मानना था कि शिक्षा और जागरूकता स्वस्थ समाज की कुंजी है. इसके लिए वे शिक्षित करना चाहते थे और स्कूल चलाना चाहते थे. यहाँ की जनजातीय लड़कियाँ औपचारिक शिक्षा के अलावा गीता का पाठ करती हैं, वेद मंत्रों से वातावरण को शांत बनाती हैं और शिव महिमा स्रोत जाप करती हैं. स्वामी जी का यह भी मानना था कि लड़कियाँ भगवान का उपहार हैं, उन्हें किसी भी तरह की असुविधा नहीं हो सकती. लड़कियों को पढ़ाकर और उन्हें संस्कार देकर उन्होंने कंधमाल जिले के हर गाँव में ज्ञान पहुँचाया. घर लौटने के बाद कन्याश्रम में छात्राओं ने अपने गांव व अपने इलाके की महिलाओं को जागरूक किया.

वनवासी कल्याण आश्रम के प्रांत संगठन मंत्री विश्वामित्र महंत बताते हैं – “स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती जी का मानना था कि छात्रों को सिर्फ किताबों का ज्ञान देना ही काफी नहीं होगा. उन्हें हर तरह का काम आना चाहिए. वे छात्रों को पढ़ाई के साथ-साथ खेती के गुर भी सिखाते थे. यहां पढ़ने वाले सभी बच्चे पढ़ाई के साथ-साथ खेती भी करते हैं. यह काम अभी भी जारी है. अब पिछले कुछ वर्षों से यहां पढ़ने वाले छात्रों को कंप्यूटर की ट्रेनिंग भी दी जा रही है”.

शिक्षण के अलावा स्वामी जी को एक आर्थिक योद्धा और पर्यावरण कार्यकर्ता के रूप में देखा जाता है. उन्होंने सिंचाई और कृषि को अपने मुख्य क्षेत्रों के रूप में अपनाया और स्थानीय कंध जनजाति को लघु वन उपज एकत्र करने के पारंपरिक काम के साथ साथ कृषि को आजीविका के वास्तविक स्रोत के रूप में अपनाने के लिए प्रेरित किया.

स्थानीय पारंपरिक ज्ञान का उपयोग करते हुए पहाड़ी चोटियों से बहने वाले झरनों को डाइवर्ट कर पानी का स्टोरेज प्वाइंट बनवाया और लोगों को कृषि के उद्देश्य से पानी का उपयोग करने के लिए प्रेरित किया. यह कंधमाल में वास्तव में मौन क्रांति थी. उनके इन प्रयासों से स्थानीय जनजातीय समाज ने कृषि गतिविधियों में पर्याप्त सुधार किया और आराम से आजीविका अर्जित की.

कंधमाल आज ओडिशा में अपने जैविक कृषि उत्पादों के लिए प्रसिद्ध है. कंधमाल की हल्दी ने दुनिया भर में अपनी पहचान बनाई है. स्वामी जी ने ही स्थानीय जनजाति वर्ग के लोगों को खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया था. अगर उन्हें ओडिशा के अग्रणी हरित योद्धाओं में से एक कहा जाए तो गलत नहीं होगा. उन्होंने जनजातीय समुदाय से किसी भी कीमत पर वनों की रक्षा करने का आग्रह किया. उन्होंने लोगों से कहा कि कृषि के लिए वर्षा की आवश्यकता है और इसके घने जंगल वर्षा सुनिश्चित करते हैं. इसलिए प्रत्येक पेड़ भगवान से कम नहीं है.

दुनिया भर से बड़ी संख्या में ईसाई मिशनरी आए. प्रलोभन और लालच के जरिये सेवा की आड़ में कन्वर्जन का लक्ष्य लेकर कार्य करते थे. स्वामी जी इसके सख्त खिलाफ थे. वे विदेशी प्रायोजित मिशनरियों की सेना के बीच चट्टान की तरह खड़े थे. उनका मानना था कि जनजातीय संस्कृति का संरक्षण और उनका संवर्धन राष्ट्रीय आवश्यकता है. उनका मानना था कि चर्च जनजातीय लोगों का कनवर्जन करके उन्हें भारतीय मूल से काट रहा है. वे जनजातीय समुदाय को जगन्नाथ परंपरा से जोड़ना चाहते थे जो जनजातीय मूल से ही उभरी है. उन्होंने ओडिशा के जनजातीय हृदय क्षेत्र में जगन्नाथ रथ यात्रा का आयोजन किया. उन्होंने कंध जनजातीय समुदाय द्वारा पूजी जाने वाली धरणी पेनु (माता पृथ्वी देवी) को पुनर्स्थापित करने के लिए यात्रा की. इस कारण मिशनरियों की गतिविधियों को धक्का लगा.

स्वामी जी को कई बार जान से मारने का प्रयास किया गया. अपनी हत्या से एक साल पहले उन्होंने सार्वजनिक रूप से मीडिया के सामने तत्कालीन कांग्रेस के राज्यसभा सांसद का नाम लिया था, जो 2007 में दारिंगीबाड़ी में उनकी हत्या की साजिश रचने के मुख्य साजिशकर्ता थे. एक साल बाद ‘पहाड़िया ब्रूंदा’ नामक एक अज्ञात संगठन से स्वामी जी को खत्म करने की धमकी वाला पत्र आया. कानून का पालन करने वाले नागरिक के रूप में स्वामी जी अपनी हत्या से एक दिन पहले पुलिस स्टेशन गए और पुलिस में शिकायत दर्ज कराई. प्रमुख टीवी चैनलों ने स्वामी लक्ष्मणानंद को मारने की धमकी भरे पत्र का व्यापक प्रचार किया था. इसके बावजूद उनके मौलिक अधिकार “जीने के अधिकार” की रक्षा नहीं की गई. जन्माष्टमी की रात को जलेशपेटा कन्याश्रम स्थित परिसर में उनकी निर्मम हत्या कर दी गई.

परिस्थितिजन्य साक्ष्य इस ओर इशारा करते हैं कि माओवादियों को कांट्रैक्ट किलर के रूप में इस्तेमाल किया गया और साजिशकर्ता हत्यारे नहीं हैं. इस मामले में दो-दो न्यायिक कमिशन गठित कर रिपोर्ट भी सौंप चुके हैं, लेकिन रिपोर्ट को अभी तक सार्वजनिक नहीं किया गया है.

हालांकि, स्वामी जी का मिशन सुचारू रूप से चल रहा है. जलेशपेटा संस्कृत कन्याश्रम में 18 महिला शिक्षक बच्चों को पढ़ा रही हैं. इसके अलावा 14 अन्य कर्मचारी अन्य कार्यों के लिए काम कर रहे हैं. पिछले दो साल में एक वेद विद्यालय भी स्थापित किया गया है. स्थानीय लोगों की मदद से यहां एक यज्ञ मंडप और गौशाला बनाई गई है.

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