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स्वामी विवेकानंद का राजस्थान से संबंध और शिकागो यात्रा

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प्रमोद शर्मा

स्वामी विवेकानंद जी का राजस्थान से भी निकटता का सम्बन्ध रहा. उनके अनन्य भक्त और मित्र खेतड़ी के महाराजा अजीत सिंह ने उनकी शिकागो यात्रा की सम्पूर्ण व्यवस्था की थी. राजस्थानी कपड़ों और साफे में उनका जो चित्र दिखता है, वह राजस्थान की ही देन है. इन्हीं रेशमी वस्त्रों में धर्मसभा में गये थे.

स्वामी जी की राजस्थान यात्राओं का संक्षिप्त विवरण –

वर्ष 1891 का फरवरी माह, भोर का समय था. इतने में दिल्ली से जयपुर जाने वाली रेलगाड़ी अलवर स्टेशन पर आकर रुकी. उस रेल में से एक युवा सन्यासी हाथ में दण्ड-कमण्डल लेकर नीचे उतरा. सर्दी से बचने के लिए एक कम्बल और उसमें लिपटी 4-5 पुस्तकों के अतिरिक्त ऐसा कुछ भी उस सन्यासी के पास न था, जिसे सामान कहा जा सके.

28 वर्षीय मंझोले कद के इस सन्यासी के सिर के बाल घुटे हुए थे. भगवा वस्त्रों में लिपटा वह बिल्कुल ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे सूर्य अपने साथ लालिमा लिए आता है. स्टेशन से बाहर आकर उस सन्यासी ने देखा कि एक बंगीय सज्जन खड़े हैं. युवा सन्यासी ने उनसे पुकार कर पूछा “मोशाय, एखाने साधु सन्यासीर पाकिवार कि एक ठू स्थान हइते पारे?” पं. बंगाल से हजारों किमी. दूर जहां कोई बंगाली बोलना सुनना तक न जानता था, अपनी मातृभाषा सुनकर वह बंगीय सज्जन आल्हादित हो गए और लपककर उस युवा सन्यासी के पास पहुँचे. उन्होंने सन्यासी को प्रणाम कर बांग्ला भाषा में ही उत्तर दिया. “निश्चय. अपाने आज्ञा हय, आसून! (निश्चय ही, आज्ञा कीजिए, आइये).

यह सज्जन अलवर के सुप्रसिद्ध चिकित्सक गुरुचरण थे, जिन्हें स्वामी विवेकानन्द से राजस्थान में सबसे पहले परिचय प्राप्त करने का गौरव प्राप्त है.

गुरुचरण ने उन्हें अपने दवाखाने से थोड़ा सा ही आगे एक दुमंजिला मकान में ठहराया तथा अत्यावश्यक वस्तुओं की व्यवस्था कर अपने इष्ट मित्रों को सन्यासी के आगमन की सूचना देने निकल पड़े.

अलवर के राजा शिष्य बने

आकर्षक व्यक्तित्व के धनी स्वामी विवेकानन्द ने मात्र चार-पांच दिनों में ही बड़ी संख्या में अपने भक्त बना लिए. उनकी विद्वता की कीर्ति अलवर रियासत में दिन दूनी रात चौगुनी फैलने लगी. ऐसे ही एक

दिन अलवर रियासत के दीवान, मेजर रामचन्द्र ने भी स्वामी विवेकानन्द की ख्याति सुनी और सुना कि इस सन्यासी का उपनिषद, पुराण, कुरान व बाईबल पर अधिकार तो है ही, साथ में अंग्रेजी, संस्कृत इत्यादि पर भी नियंत्रण है. उत्सुकता वश वे भी स्वामी विवेकानन्द के दर्शन हेतु चल दिए. वे स्वामी विवेकानन्द से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने राजा मंगल सिंह से उनका परिचय कराने का निश्चय किया.

पाश्चात्य रंग-ढंग में पले-बढ़े मंगल सिंह के भारतीय दर्शन के प्रति तिरस्कार के भाव को बड़ी सहजता से स्वामी विवेकानन्द ने दूर कर दिया. इसी घटना से प्रभावित होकर मंगल सिंह ने स्वामी विवेकानन्द को अपना गुरु बनाया और इस प्रकार वह पूरे भारत में पहले ऐसे राजा हुए जो स्वामी विवेकानन्द के शिष्य बने.

अलवर में स्वामी विवेकानन्द ने संस्कृत भाषा के प्रयोग पर बहुत जोर दिया. इन्हीं की प्रेरणा के चलते सैकड़ों युवा संस्कृत भाषा पढ़ने-पढ़ाने के लिए प्रेरित हुए.

27 मार्च को स्वामी विवेकानन्द ने अलवर से प्रस्थान का निर्णय लिया, पर उनके भक्तजन उनको छोड़ते ही न थे. फलस्वरूप पाण्डुपोल तक स्वामीजी को रथ में यात्रा करनी पड़ी.

आबू में साधना

जयपुर में दो सप्ताह के प्रवास के दौरान उनका जयपुर रियासत के प्रधान सेनापति ठा. हरिसिंह लाड़खानी से घनिष्ठ परिचय हुआ. यहीं पर उन्होंने जयपुर रियासत के सभा पण्डित से पाणिनी रचित अष्टाध्यायी को समझा तथा उसे आत्मसात किया.

दो सप्ताह तक यहाँ रुकने के बाद स्वामी जी ने अजमेर, पुष्कर होते हुए आबू पर्वत (माउण्ट आबू) की तरफ प्रस्थान किया. गर्मियाँ स्वामी जी ने आबू पर्वत पर बिताईं. वहीं पर एक छोटी सी गुफा में स्वामी जी ने ध्यान आदि के अभ्यास का क्रम बनाया. वहीं पर किशनगढ़ राज्य के वकील फैज अली प्रतिदिन घूमने आया करते थे. उनसे स्वामीजी का घनिष्ठ परिचय हो गया था. एक दिन उन्होंने स्वामीजी से पूछा, मेरे लिए कोई सेवा बताइये तो स्वामीजी ने कहा कि इस गुफा पर किबाड़ लगवा दीजिए. स्वामीजी के आदेशानुसार उस गुफा पर किवाड़ तो लग गए पर मौलवी साहब ने स्वामीजी से अनुरोध किया कि वह उन्हीं के बंगले पर चलकर विश्राम करें. स्वामीजी ने उसे स्वीकार कर लिया.

ऐतिहासिक संयोग

उन दिनों अमीर या राज परिवार से जुड़े लोग पर्वतीय स्थानों पर अपने एक-दो मकान लेकर रखा करते थे, जिससे गर्मी के दिन वहां बिताये जा सकें. ऐसा ही एक बंगला आबू पर्वत पर खेतड़ी के महाराजा अजीत सिंह का था. वह भी प्रतिदिन वहाँ घूमने जाया करते थे.

उनके साथ एक मुंशी चला करता था, जो उनके दिन भर के क्रिया कलापों को एक रजिस्टर में लिखा करता था. इस रजिस्टर को वाकयात रजिस्टर कहा जाता था. यह रजिस्टर बताता है कि स्वामी विवेकानन्द और महाराजा अजीत सिंह की पहली भेंट 4 जून 1861 को हुई थी. पहली ही भेंट में स्वामी जी से मिलकर राजा अजीत सिंह बहुत प्रभावित हुए और विशेष अनुरोध कर उन्हें खेतड़ी लिवा ले गए. वर्षा आरम्भ होने से जब तापमान नीचे उतरा, तो दोनों मित्रों ने 24 जुलाई को जयपुर के लिए प्रस्थान किया. जयपुर में एक सप्ताह रुकने के बाद राजा अजीत सिंह स्वामी विवेकानन्द को साथ लेकर कोटपुतली होते हुए 7 अगस्त को खेतड़ी पहुँचे. दोनों लगभग पांच माह तक साथ रहे.

दोनों की निकटता इतनी बढ़ी कि स्वामी विवेकानन्द ने अपने एक मित्र को पत्र लिखते हुए राजा अजीत सिंह के बारे में कहा “समय- समय पर संसार में कुछ ऐसे लोग एक ही समय पैदा होते हैं, जिन्हें एक साथ मिलकर एक सम्मिलित क्षेत्र में काम करना होता है. मैं और अजीत सिंह दो ऐसी ही आत्माएं हैं, जिनका जन्म एक दूसरे को सहायता देने के लिए हुआ है. हम दोनों एक दूसरे के पूरक व प्रपूरक हैं”.

यह पत्र इस तथ्य का पर्याप्त प्रमाण है कि दोनों में कितनी निकटता थी. एक बार एक अन्यत्र स्थान पर भाषण देते हुए स्वामीजी ने कहा था कि “भारत वर्ष की उन्नति के लिए मैंने थोड़ा बहुत जो कार्य किया है, वह संभव नहीं होता यदि मेरी मुलाकात अजीत सिंह से न हुई होती”.

खेतड़ी महाराज की स्वामी जी के प्रति अनन्य भक्ति के कारण ही स्वामी जी का शिकागो (अमरीका) की धर्मसभा में जाना सम्भव हो सका. शिकागो जाने के लिये धन की सारी व्यवस्था महाराजा अजीत सिंह ने ही की थी. स्वामी जी की मातुश्री भुवनेश्वरी देवी तथा उनके छोटे भाई का खर्च चलाने के लिये महाराजा एक सौ रु. प्रति माह भी भेजते रहे.

द्वितीय यात्रा

खेतड़ी से विदा होते समय कोई पुत्र न होने से दुखी महाराजा ने स्वामी जी से एक पुत्र का आर्शीवाद मांगा. स्वामी जी कुछ समय तो विचार करते रहे फिर बोले, “अच्छा श्रीरामकृष्ण देव की कृपा से आपकी मनोकामना पूर्ण होगी”.

इस आर्शीवाद के फलस्वरुप सन् 1892 में महाराज को पुत्र प्राप्ति हुई. राजपुत्र के ‘अन्नप्राशन’ संस्कार के समय स्वामी जी का आशीर्वाद प्राप्त करने की इच्छा खेतड़ी महाराज को हुई. उन्होंने अपने मुंशी जगमोहन लाल को स्वामी जी को लिवा लाने के लिए मद्रास भेजा, किन्तु उस समय स्वामी जी शिकागो यात्रा की तैयारियों में व्यस्त थे. उन्होंने अपनी असमर्थता बताई पर मुंशी जी भी अपनी धुन के पक्के थे. उन्होंने स्वामी जी को खेतड़ी चलने के लिये तैयार कर ही लिया. 21 अप्रैल, 1893 को स्वामी जी खेतड़ी पहुँचे.

स्वामी जी के आगमन का समाचार मिलते ही महाराज अपने आसन से उतर आये तथा भूमि पर गिर कर स्वामी जी को साष्टांग प्रणाम किया. तीन सप्ताह खेतड़ी में रह कर 10 मई को उन्होंने प्रस्थान किया. महाराजा अजीत सिंह ने मुंशी जगमोहन लाल को स्वामी जी के साथ उनकी शिकागो यात्रा का प्रबन्ध करने के लिये भेजा. धर्म सभा में पहनने के लिये केसरिया रंग की अचकन तथा साफे का प्रबन्ध भी महाराजा ने किया.

तृतीय यात्रा

31 मई, 1893 को स्वामी जी ने पेनिन्सुला जहाज से अमेरिका के लिये प्रस्थान किया. अमेरिका, इंग्लैण्ड और यूरोप की यात्रा के बाद 14 जनवरी, 1897 को स्वामी जी कोलम्बो के समुद्र तट पर उतरे. 20 दिन श्रीलंका में बिता कर स्वामी जी मद्रास पहुँचे. देश भर में उनका अभूतपूर्व स्वागत हुआ. मद्रास में खेतड़ी महाराज के मुंशी जगमोहन लाल उपस्थित थे. साथ में महाराज की ओर से खेतड़ी आने का निमंत्रण भी था. राजस्थान और विशेषकर खेतड़ी के साथ तो स्वामी जी का घनिष्ठ सम्बन्ध था, अतः मद्रास से कलकत्ता ओर फिर दिल्ली होते हुए 1897 के लगभग आखिर में उन्होंने पुनः राजस्थान की धरती पर पैर रखा.

रेवाड़ी स्टेशन पर खेतड़ी नरेश के कर्मचारी उनकी अगवानी के लिए खड़े थे. किन्तु स्वामी जी ने पहले अलवर जाने का निश्चय प्रकट किया. अलवर में पांच छह दिन रुक कर स्वामी जी जयपुर पहुँचे. जयपुर से स्वामी जी के खेतड़ी की ओर प्रस्थान करने का समाचार मिलते ही महराजा अजीत सिंह खेतड़ी से 24 किमी. आगे बबाई कस्बे में उनकी अगवानी करने के लिये आये. खेतड़ी में स्वामी जी के आने के समाचार से हर्षोल्लास छा गया. एक विश्व विजेता की भांति उनका सम्मान किया गया. रात्रि को दीपावली के समान रोशनी की गई. खेतड़ी के ‘वाकयात रजिस्टर के अनुसार रोशनी करने में 13.5 मन (पांच क्विंटल से अधिक) तेल खर्च हुआ. लगभग दो सप्ताह तक कई स्वागत समारोह हुए. समारोह में स्वामी जी को भेंट में जो धन प्राप्त हुआ, वह उन्होंने राज्य की शिक्षण संस्थाओं के विकास के लिए दे दिया. खेतड़ी से विदा होते समय राजा जी ने स्वामी जी को तीन हजार रुपये भेंट किए. यह राशि रामकृष्ण मठ की स्थापना के लिए दे दी गई.

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