उदयपुर. शनिवार (13 फरवरी) रात्रि का समय है. सिरोही रोड रेलवे स्टेशन की पटरियों से कोई 40 फीट की दूरी पर बसी हुई एक खुली बस्ती. अभी कुछ छितरे से मकान बने हुए हैं और सफेद चमकदार नवनिर्मित ऊंची अट्टालिकाएं भी हैं. जिनमें कुछ संभ्रात कहे जाने वाले लोग हैं, जिनके हर वाक्य में अंग्रेजी के कुछ शब्द जोड़कर अपनी आधुनिकता के जबरदस्ती प्रदर्शन करने की आतुरता और कृत्रिमता साफ झलकती है. वहीं, उसके ठीक विपरीत चार बांस के टुकड़े लगाकर कुछ छप्पर डाले हुए फटे पुराने कपड़े से ढके टापरे भी हैं.
निधि समर्पण अभियान के तहत कार्यकर्ता हर घर में जा रहे हैं….
अट्टालिकाओं से सम्पर्क के उपरांत एक छोटे से टापरे के पास भी पहुंचे, आवाज लगाई – जय श्री राम. जवाब भी कुछ सकुचाते हुए धीमी सी सर्दी की कंपकपाती आवाज में आया – जय श्री राम.
तंबू में अंधेरा था, कुछ झांककर देखा तो एक दंपति अपने 8-10 बच्चों के साथ. कोई 11-12 सदस्य उस तंबू में सिमट के बैठे हैं.
मुखिया ने नाम विक्रम नारायण बताया. हाथ में एक सधूक्कड़ी कटोरा लिये जो सामान्यतः कोई फक्कड़ साधु पानी पीने एवं खाना खाने के लिए अपनी झोली में रखते हैं. विक्रम नारायण उकड़ूँ बैठा हुआ, अपना खाना समाप्त करने ही वाला है. हम सबको देखकर कौतूहलवश जल्दी-जल्दी अंगुलियां चाट कर खाना समाप्त करने की जुगत में लग गया… खाना समाप्त किया. बाहर रखी एक जीर्ण टूटी बाल्टी से पानी लेकर हाथ धोए और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया.
तंबू की हालत, 11-12 सदस्यों का परिवार, जीर्ण-शीर्ण अवस्था के साक्षात्कार ने हमारे आत्मविश्वास को पहले ही डिगा दिया था. कुछ मांगना तो दूर, दृश्य की विपन्नता से उत्पन्न हृदय के कारुणिक प्रवाह ने हमें मौन कर दिया था.
फिर भी कुछ सकुचाते हुए दुःसाहस कर बोले….
“अयोध्या में रोमजी रु मंदर बणे है, जण वास्ते आया हो, थोरोई भाग चाहिजै”.
इतना कहते हुए स्थिति को संभालने की आतुरतावश कार्यकर्ता 10 के कूपन की बुक संभालते हुए तुरंत पूरक वाक्य जोड़ते हुये बोले “10 राई कूपन है, जको जो इच्छा वे श्रद्धा वे”.
इतना सुनते ही कुछ सोचते हुए विक्रमनारायण टापरे में बैठे अपने बच्चों के बीच से जगह बनाते हुए झुकते हुए जैसे-तैसे भीतर गया.
हम आश्वस्त हो गए कि 10 रुपये तो आ ही जाएंगे.
उसने अंदर जाकर अंधेरे में कुछ देर थैला टटोला, थोड़ी देर में एक नोट ले आया और हमें पकड़ा दिया.
कार्यकर्ताओ ने सोचा 10 का नोट होगा, पर ठीक से देखा तो 200 रुपये थे. फिर पूछा – कतरा करना है? वो बोला – जतराये है, ए रोमजी रा है….
पास खड़ा दूसरा तंबू वाला भी सुन रहा था, वह बिना कुछ कहे अंदर गया और नोट लाकर देते हुए बोला – “माराई लको पा”. ये भी 200 का नोट था…
शायद ये उनके परिवार की आज की मजदूरी थी या घर में बचा हुआ सब कुछ…. यही नहीं कूपन भरकर जब हाथ में दिया और फोटो लेने लगे तो कूपन में श्रीराम का चित्र देखकर माथे से लगा लिया, जिससे कैमरे ने उसका चेहरा तो नहीं लिया पर चरित्र ले लिया…
चित्र जरूर कुछ मैला कूचला था, पर चरित्र बिल्कुल निर्मल.
श्रद्धा और मन की महिमा देखिये, जहाँ वृहद अट्टालिकाओं के संभ्रांत कुबेरों ने ऑनलाइन पेमेंट करके जमा करने के नाम पर टरका दिया था या अनमने मन से कुछ भी देकर छुट्टी कर दी थी… वहीं दरिद्र नारायण के तंबुओं ने प्रसन्न होकर खुले मन से श्रद्धापूर्वक अपना सर्वस्व और सर्वश्रेष्ठ समर्पण किया….! कभी अतीत में श्रीराम मंदिर के सृजनकर्ता विक्रमादित्य थे तो आज भी वर्तमान में ऐसे प्रेरक हैं –विक्रम नारायण…
सच में वह विक्रम भी और नारायण भी…!