लखनऊ.
14 अगस्त, 1947 का काला दिन भला कैसे कोई भूल सकता है. आज भी जैसे ही यह दिन आता है, अपने पुरखों की धरती, अपनी माटी, अपना गाँव, घर और अपनों को खोने का दर्द ताजा हो जाता है. 14 अगस्त, 1947 की आधी रात जब भारत आजाद हो रहा था, तब देश के एक हिस्से पर धर्म के आधार पर पाकिस्तान खड़ा हो रहा था. दरअसल, 20 फरवरी, 1947 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेन्ट एटली ने एलान किया कि अँग्रेज हुकूमत ने 30 जून, 1948 से पहले सत्ता का हस्तान्तरण कर भारत छोड़ने का फैसला किया है. 2 जून, 1947 को विभाजन की योजना पर सहमति बनी और उसी साल 14 अगस्त को पाकिस्तान बन गया. जिस भारत माता की आजादी के लिये बरसों तक असंख्य हुतात्माओं ने संघर्ष किया, वह अँग्रेजों के षड्यंत्र और मुस्लिम लीग की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते दुनिया की सबसे बड़ी त्रासदी झेलने को मजबूर हुईं. देश का विभाजन इतना क्रूर था कि मुस्लिमों का देश पाकिस्तान बनते ही बड़ी आबादी बेघर हो गयी. लाखों घर, आँगन वीरान हो गए. आबाद बस्तियाँ जलकर खाक हो गयीं, लाशों से भरी ट्रेनें पाकिस्तान से वापस आयीं, खून से लथपथ बेटियों का शरीर आज भी वह दर्द भूलने नहीं देता.
उस विभीषिका की वीभत्स यादें आज भी घाव की तरह ताजा हैं. भारत विभाजन अभूतपूर्व मानव विस्थापन और पलायन की दर्दनाक कहानी है. यह एक ऐसी कहानी है, जिसमें लाखों लोग विपरीत वातावरण में नया ठिकाना तलाश रहे थे. यह विचलित करने वाली घटना थी, ऐसी भीषण त्रासदी थी, जिसमें लाखों लोग मारे गए और डेढ़ करोड़ लोगों का पलायन हुआ. इस त्रासदी को भारतीय स्मृति पटल से या तो मिटाने का प्रयास किया गया या उसके प्रति जानबूझकर उदासीनता बरती गई. इस त्रासदी के घाव इतने गहरे हैं कि आज भी देश के बहुत बड़े हिस्से, खासकर पंजाब और बंगाल में बुजुर्ग लोग 15 अगस्त को सिर्फ विभाजन के ही रूप में याद करते हैं. भारत विभाजन अनायास हुई घटना नहीं थी. इसके बावजूद विभाजन की विभीषिका की सरकारी उपेक्षा तुष्टीकरण के कारण अलगाववाद से मुंह मोड़ने की कोशिश थी. 75 वर्ष पुराने निर्णय के लिये आज की पीढ़ी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, परन्तु इसे झुठलाया भी नहीं जा सकता. यही कारण है कि मोदी सरकार ने 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका दिवस के तौर पर मनाने का निर्णय लिया. इसका मकसद यह था कि युवा पीढ़ी विभाजन के दौरान सही गयी यातनाएं और वेदना को जान सके. कैसे लोग अपनों के बीच बेगाने हो गए. अपने ही देश में बचने और भागने लगे. मजहब और धर्म के आधार पर न चाहते हुए लोगों को कराची, लाहौर, सिन्ध, पंजाब और पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) को छोड़ कर भागना पड़ा. विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मात्र घटनाओं को याद करने का अवसर नहीं. इससे हिंसक और असहिष्णु विचारधारा भी कठघरे में खड़ी होती है, जो इन त्रासदियों का कारण बनी. विभीषिकाओं की स्मृति याद दिलाती है कि कैसे देश विरोधी भावनाओं को भड़काकर राष्ट्र को झकझोर सकते हैं.
अखण्ड भारत के विभाजन के समय लाखों हिन्दू परिवारों को रातों-रात अपना सब कुछ छोड़ कर पाकिस्तान से भागना पड़ा था. पाकिस्तानी मुस्लिमों की भीड़ ने हिन्दुओं की बस्तियों को घेरकर जला दिया था. मासूम बच्चों, महिलाओं, बुजुर्गों तक को नहीं छोड़ा गया. विभाजन में ऐसे भी परिवार थे जिनके परिजन पाकिस्तान में छूट गए या बंटवारे की भगदड़ में भटक गए. जिन हिन्दू परिवारों को किन्ही परिस्थितियों में पाकिस्तान में रहना पड़ा, उन्हें वहाँ के मुस्लिमों ने बहुत यातनाएँ दीं. हिन्दू परिवारों को मुस्लिम बनाया गया, ऐसा न करने पर युवकों की हत्याएँ कर दी. बेटियों को उठा ले गए, जबरन धर्म परिवर्तन कराया.
ऐसे ही परिवारों से अवध प्रहरी ने विभाजन की विभीषिका और उसके बाद का हाल जाना –
चार घंटे में लाहौर छोड़कर भागना पड़ा
30 नवम्बर, 1932 को अखण्ड भारत के लाहौर में जन्मे विद्या सागर गुप्त बताते हैं कि 15 अगस्त 1947 तक हमारे क्षेत्र (लाहौर) में सब ठीक था. हमने सोचा भी नहीं था कि लाहौर छोड़ना पड़ेगा. हालाँकि हमने पूरी सावधानी बरती. वहाँ हमारी फैक्ट्रियाँ थी, हमारे यहाँ सैकड़ों कर्मचारी थे. सबका जीवन हमसे जुड़ा था. बँटवारे के बाद हमें लग रहा था कि हम सुरक्षित रहेंगे. मैं उस समय 9वीं का विद्यार्थी था. एहतियातन पिता जी ने परिवार के कुछ सदस्यों को हरिद्वार भेज दिया. दोनों तरफ अफरा-तफरी मची थी. भारत से पाकिस्तान जाने वाले मुसलमानों की संख्या कम थी, जबकि हिन्दू परिवार बड़ी संख्या में पकिस्तान से भाग रहे थे. इसलिये सबसे ज्यादा हिन्दू परिवार ही मारे गए. 16 अगस्त की सुबह 8 बजे तक हमारे घर में सब अपने काम में लगे थे. हमारे पिता हरबजराम जी के मुस्लिम मित्र पुलिस अधिकारी थे.
वे घर आए और पिता जी से कहा कि आज ही लाहौर छोड़ दो. पिता जी ने पूछा कि कहाँ जाएं तो उन्होंने कहा – हिन्दुस्तान, चले जाओ. उन्होंने पिता जी को बताया कि ऐसी खुफिया रिपोर्ट है कि जिसमें आपके परिवार का नाम भी है कि दो दिन में सबकी हत्या हो सकती है. इसके बाद पिता जी ने हम सभी सातों भाइयों को बुलाया. उन्होंने कहा कि हमें आज ही यहाँ से जाना होगा. हम 8 बजे से अपना सामान बाँधने लगे और 12 बजे तक फैक्ट्री और घर में ताला लगा दिया. पिता जी ने फैक्ट्री की चाबियाँ फोरमैन मोहम्मद अली को दे दी. पिता जी ने उनसे कहा था कि हम वापस आ सकते हैं.
पुलिस ने हमें बताया कि 16 अगस्त को दोपहर 12 बजे 40 बसों से हिन्दू सैन्यकर्मी और पुलिस वाले अमृतसर जाएंगे. पुलिस के सहयोग से उन 40 गाड़ियों के साथ हमारी भी दो गाड़ियाँ शामिल हो गयीं. हम 12 बजे पाकिस्तान के मुगलपुरा रेलवे स्टेशन के पास पहुँचे, जहाँ से हमें हिन्दू पुलिस के काफिले के साथ भेज दिया गया. मुगलपुरा पार करने के बाद हमारा काफिला रुक गया. रास्ते में हजारों शव पड़े थे. सेना की गाड़ियाँ पहले शव हटातीं फिर आगे बढ़ती थीं. हजारों हिन्दुओं को काट दिया था. ऐसे ही हरवंशपुरा, जल्लो, बाघा बॉर्डर तक लाशें पड़ी थीं. बाघा के बाद हिंदुस्तान का बॉर्डर अटारी आया. लाहौर से अमृतसर 40 मील यानि 60 किलोमीटर है. इतनी दूरी हम 5 घण्टे में पूरी कर पाए. हम सभी डरे थे. लाशें देखकर लगता था कि हम भी मारे जाएंगे. अमृतसर पहुँचने पर दो दिन एक कैम्प के पास अपनी गाड़ियों में ही रुके थे. वहाँ से लखनऊ पहुँचे. लखनऊ में हमारे मामा जी की बाराबंकी और जरवल रोड में दो चीनी मिलें थी. लखनऊ में उनकी दो कोठियाँ खाली पड़ी थीं. उन्हीं में से एक में हम रहने लगे.
ऐशबाग में 6 महीने रहने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने कोठी खाली करने का नोटिस दिया. हम मिन्नतें करते रहे, लेकिन सरकार ने एक नहीं सुनी. पिता जी ने उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल करके एक साल का समय माँगा, लेकिन 6 महीने का ही समय मिला. पिताजी लाहौर से जो कैश और जेवर लाए थे, उसे बेचकर ऐशबाग में जमीन खरीदी. छह महीने के अन्दर हमने कोठी खाली कर दी. पाकिस्तान में नॉर्दन इण्डिया आयरन प्रेस वर्क नाम की हमारी स्टील फैक्ट्री थी. हमने 10 महीने इन्तजार किया, लेकिन दोनों देशों में कोई समझौता नहीं हो सका. हमने लखनऊ में उसी नाम से फैक्ट्री डालकर काम शुरू किया.
यूपी विधानसभा के पहले चुनाव के लिए हमारी फैक्ट्री को 50 हजार बैलेट बॉक्स बनाने का आर्डर मिला. ऑर्डर पूरा होते ही फैक्टी विख्यात हो गई. परिवार विभाजन विभीषिका का दंश भूल तो नहीं पाया, लेकिन हम जीवन के विस्तार में लग गए. पिता जी जब तक जीवित रहे, हमेशा लाहौर को याद करते थे. पर वहाँ वे दोबारा नहीं गए. मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ा रहा. लाहौर में संघ की शखा में जाता था. लखनऊ में भी थोड़ा हालात सामान्य होने पर शाखा में जाने लगा. जनसंघ में कार्यकर्ता के रूप में काम शुरू किया, लोगों से पहचान बढ़ी.
भारत विभाजन के दौरान कुछ हिन्दू परिवार पाकिस्तान के सिन्ध में रह गए थे. तब सिन्ध के घोटकी तहसील क्षेत्र में लगभग 1300 हिन्दू परिवार थे. इनके संगठित होने के कारण ही बँटवारे के वक्त और उसके बाद मुस्लिमों की क्रूर भीड़ ने उन पर धावा नहीं बोला, हालाँकि हिन्दू परिवार हमेशा डरा ही रहा. एक ऐसा सिन्धी हिन्दू परिवार जो 1986-87 तक पाकिस्तान में था. ये लोग बँटवारे के बाद पाकिस्तान से भारत में रिश्तेदारों के पास लखनऊ आया करते थे, लेकिन विभाजन के 50 वर्षों के बाद उन्हें भी वहाँ से सबकुछ छोड़कर आना पड़ा –
बँटवारे के बाद रुके रहे पर, जान पर बन आई तो भारत आना पड़ा
भजनराम बताते हैं कि पाकिस्तान में हिन्दुओं के लिए हमेशा से असुरक्षा रही. पहले भी और आज भी मुस्लिम हिन्दुओं की बेटियों को उठा ले जाते हैं, घर लूट लेते हैं. हमारे पास वहाँ जमींदारी थी. कुछ जमीनें बँटवारे में चली गयीं, जो बची हम औने-पौने दामों में बेच कर चले आए. भजनराम ने बताया, विभाजन के 50 वर्षों बाद हमारे परिवार को सब कुछ छोड़कर आना पड़ा. हमने बहुत सोच समझकर यह निर्णय लिया कि पकिस्तान में नहीं रहना है. हम बड़ी तकलीफ और उम्मीदों के साथ घर-खेत-खलिहान बेचकर भारत आ गए. हालाँकि तकलीफ यह है कि आज भी परिवार के कुछ लोगों को यहाँ की नागरिकता नहीं मिली. नागरिकता के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाने पड़ते हैं. सिन्धी परिवार के मुखिया झम्मरमल थे. वे अपने 4 बेटों और 3 बेटियों के साथ सिन्ध (पाकिस्तान) के घोटकी गाँव में रहते थे. झम्मरमल के निधन के बाद उनकी बेटियों और चारों बेटों मीना राम, भजन राम, रमेश लाल और किशन लाल की शादी सिन्ध के ही हिन्दू परिवारों में हुई. अब चारों भाईयों का परिवार लखनऊ में रहता है. मीना राम का निधन 2 वर्ष पहले हो गया. अब मीना राम की पत्नी लाजबाई और अन्य परिजन नागरिकता के लिए परेशान हैं. जबकि 3 भाइयों को नागरिकता मिल चुकी है. भजनराम ने बताया कि मैं परिवार का अन्तिम व्यक्ति हूँ जो पकिस्तान से 1986-87 में भारत आया. हमने अपनी दुकान रिश्तेदारों को दे दी. वहाँ जमीने बेचकर जो पैसे मिले, उससे भारत आकर घर बनवा लिया. सिन्ध में हमारा बड़ा व्यवसाय था, अब सब खत्म हो गया. हम अपने जीवन की सुरक्षा और बच्चों के खातिर भारत आ गए. मीनाराम के बड़े बेटे बताते हैं कि हमें नागरिकता मिल जाए, हम अपना व्यवसाय करके जीवन चला लेंगे. हमारी दो बुआ अभी भी पाकिस्तान में हैं. हमारा ननिहाल वहीं है. हम चाहते हैं, सब यहीं आ जाएं. भारत के किसी कोने में किसी मुस्लिम के साथ कुछ होता है तो उसका बदला पाकिस्तान के मुसलामन हिन्दू परिवारों से लेते है. माँ लाजबाई एक बार अपने मायके वालों से मिलना चाहती है.