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विभाजन की विभीषिका – षड्यंत्र और संदिग्ध भूमिकाएं

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कृष्णमुरारी त्रिपाठी

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद अंग्रेजों को देश से खदेड़ने के लिए भारत की जनता आर- पार की लड़ाई में आ चुकी थी. राष्ट्रीयता के मन्त्र से दीक्षित स्वातन्त्र्य वीर-वीराङ्गनाएँ स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए उद्यत हो चुके थे. स्वातन्त्र्य वीर सावरकर – नेताजी सुभाष चन्द्र बोस आदि की विचार भूमि पर आधारित सशस्त्र क्रान्ति के आन्दोलन से अंग्रेज भयभीत हो चुके थे. इसी बीच जब अंग्रेजों को यह स्पष्टता हो गई कि वे अधिक दिन भारत में शासन नहीं कर सकते हैं. तो ब्रिटिश कैबिनेट मिशन के रूप में भारत में हिन्दुस्तानी सरकार की घोषणा के लिए अंग्रेज बाध्य हो गए. “द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन की कमजोर स्थिति ने भारत में स्वतंत्रता की राह सरल कर दी थी. जल्दी ही भारत के स्टेट सेक्रेटरी, पैथिक लारेंस ने 19 फरवरी, 1946 को स्वशासन की दिशा में एक घोषणा की”. (यूनाइटेड किंगडम की संसद, भारत में कैबिनेट, 19 फरवरी 1946)

ब्रिटिश कैबिनेट मिशन के अंतर्गत ब्रिटिश संसद ने तीन महत्वपूर्ण कदम उठाने का निर्णय लिया था. पहला – संविधान तैयार करने के लिए ब्रिटिश भारत के निर्वाचित प्रतिनिधियों और रियासतों के साथ प्रारंभिक चर्चा करना. दूसरा – संविधान बनाने के लिए एक निकाय या व्यवस्था का गठन करना. और तीसरा यह कि एक ऐसी एग्जीक्यूटिव काउंसिल बनाना, जिसे मुख्य भारतीय दलों का समर्थन मिला हुआ हो.

इस सम्बन्ध में वी.पी. मेनन ने अपनी पुस्तक में लिखा है – “इसके लिए 24 मार्च को तीन वरिष्ठ ब्रिटिश अधिकारियों का एक कैबिनेट मिशन भारत आया. उन्होंने भारतीय नेताओं और रियासतों के महाराजाओं अथवा उनके प्रतिनिधियों से मिलना शुरू किया. अधिकतर रियासतों ने मिशन से वादा किया कि वे भारत में हो रहे इन परिवर्तनों में सहयोग देने के लिए तैयार हैं.” (वी.पी. मेनन, द ट्रांसफर ऑफ पॉवर इन इंडिया, लॉन्गमैन : बॉम्बे, 1957, पृष्ठ 264)

अनेक मुलाकातों और उठा-पठक के बाद 16 मई को ब्रिटिश संसद ने कैबिनेट मिशन की रिपोर्ट के आधार पर भारत में संविधान सभा के गठन की सूचना दी. और इस प्रकार से इसके अन्तर्गत ए, बी,सी सहित ब्रिटिश चीफ कमिश्नर प्रांत और देशी रियासतों के प्रतिनिधित्व का प्रावधान किया था.

भारत में तीन महीने व्यतीत करने के पश्चात कैबिनेट मिशन वापस लौट गया और कांग्रेस ने इसकी सभी शर्तें मान ली थीं. वहीं वर्ष 1937 की भांति ही कैबिनेट मिशन को लेकर भी जवाहरलाल नेहरू अतिशय आतुरता दिखा रहे थे. इस सम्बन्ध में प्रमुख तथ्य सामने उभरकर आते हैं – “कांग्रेस कार्यसमिति की 6 जुलाई को बम्बई में बुलाई गयी बैठक में जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि यह प्रश्न, अभी अथवा बाद में मिशन की शर्तों को मानने का नहीं है. यह केवल संविधान सभा में प्रवेश की सहमति का प्रश्न है”. (वी.पी. मेनन, द ट्रांसफर ऑफ़ पॉवर इन इंडिया, लॉन्गमैंन : बॉम्बे, 1957, पृष्ठ 280)

चैम्बर ऑफ प्रिंसेस की स्थाई समिति की बैठक में मिशन का स्वागत किया गया. कुछ शर्तों को स्पष्टीकरण के लिए जरूरी समझा गया और उसके लिए 21 नवम्बर को वार्ता – समिति बना दी गयी. इसमें चैम्बर के चांसलर भोपाल के नवाब के साथ पटियाला के महाराजा, नवानगर के जामसाहेब, सी.पी. रामस्वामी अय्यर, सुल्तान अहमद, मिर्ज़ा इस्माइल, डी.के. सेन, ए. रामस्वामी मुदालियार, के. एम. पणिक्कर, बिलासपुर के राजा (मनुभाई मेहता के स्थान पर), डूंगरपुर के महरवाल (डूंगरपुर के महाराजा विदर्भ सिंह के स्थान पर), वी.टी. कृष्णामचारी और रामचंद्र काक शामिल थे. हालांकि, चैम्बर पूरी तरह से सभी रियासतों का प्रतिनिधित्व नहीं करता था. कुछ रियासतें इसमें शामिल भी नहीं होना चाहती थीं. कोचीन और बड़ौदा ऐसी रियासतें थीं, जिन्हें व्यक्तिगत तौर पर बातचीत करना अनुकूल लगा. (एस.एम. गोखले, इंडियन स्टेट्स एंड कैबिनेट मिशन प्लान, पृष्ठ 61)

इस समय तक ब्रिटिश संसद ने लगभग यह तय कर लिया था कि भारत का नया संविधान भारतीय ही तैयार करेंगे. और गठित होने वाली संविधान सभा में भी केवल भारतीय शामिल होंगे. हालांकि, इस सम्बन्ध में आवश्यक शर्तों को अधिनियमित करने की शक्ति ब्रिटिश संसद के पास ही थी. आगे चलकर नेहरू की अदूरदर्शिता-अतिशय आतुरता के कारण परिणाम विभाजन के पक्ष में सामने आए.

जब जुलाई 1946 में संविधान सभा के गठन के लिए ब्रिटिश भारत में चुनाव हुए तो कांग्रेस को सामान्य सीटों में बहुमत मिला, जबकि मुस्लिम लीग मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों की 78 सीटों में से 72 में जीती. इसके पूर्व 1937 के साम्प्रदायिक चुनावों से भी नेहरू ने कोई सबक नहीं लिया. और मुस्लिम लीग 1946 के इन नतीजों से भारत विभाजन की आग से देश को दहलाने में जुट गई थी. जिन्ना ने 16 अगस्त, 1946 से ही ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ की घोषणा करते हुए मुसलमानों को हिन्दुओं का नरसंहार करने के लिए निर्देशित कर दिया. सोहरावर्दी सहित तमाम मुस्लिम नेता हिन्दुओं के नरसंहार, बलात्कार, क्रूरता की पराकाष्ठाओं की अति पर उतारू हो चुके थे. इसकी वीभत्सकारी भयावहता तत्कालीन पंजाब व बंगाल क्षेत्र सहित मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में सर्वाधिक थी.

इस सन्दर्भ में यह ऐतिहासिक तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि – “मिशन के अनुसार संविधान सभा एकीकृत थी, जिसमें कांग्रेस, मुस्लिम लीग, अन्य दलों और रियासतों को शामिल होना था. शर्तों के अनुसार मुसलमानों के लिए अलग से कोई संविधान सभा नहीं थी. दूसरी ओर मुस्लिम लीग की एक अलग और पूरी तरह से स्वतंत्र संप्रभु देश की मांग भयावह रूप ले चुकी थी. मोहम्मद अली जिन्ना ने लीग के निर्वाचित सदस्यों को दिल्ली बुलाया. उन्होंने बंगाल, पंजाब, सिंध, नार्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस, असम और बलूचिस्तान को जोड़कर पाकिस्तान की मांग के साथ संविधान सभा में कभी हिस्सा न लेने की प्रतिज्ञा भी ली”. (चौधरी खालिकज्मान, पाथवे टू पाकिस्तान, लॉन्गमैन : लाहौर, 1961, पृष्ठ 340-41)

उस समय अन्य दलों और सशक्त कांग्रेसी नेताओं का मत था कि संविधान सभा का सत्र मुस्लिम लीग के बिना नहीं बुलाना चाहिए और ब्रिटिश सरकार ने भी यह स्पष्ट कर दिया था कि बिना लीग के संविधान सभा नहीं बुलाई जाएगी. लेकिन नेहरू और उनके सहयोगियों पर अपनी ही सनक हावी थी. वे तो सितम्बर 1946 में ही पहला सत्र बुलाना चाहते थे. लेकिन 9 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा का पहला सत्र आहुत हुआ. जबकि इसमें मुस्लिम लीग, रियासतों की ओर से कोई भी प्रतिनिधि शामिल नहीं हुआ. जवाहरलाल नेहरू की इस हठधर्मिता का परिणाम यह हुआ कि – भारत का विभाजन अपने आखिरी चरणों में पहुंच गया.

भारत विभाजन के अगले अध्याय के रूप में 20 फरवरी, 1947 को ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स में भारत की स्वतंत्रता को लेकर चर्चा हुई और ठीक, इसी दिन ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने कहा था कि – जून 1948 से पहले हिंदुस्तानी सरकार को सत्ता सौंप दी जाएगी. हालांकि उस समय अंग्रेजों की सोच भारत को सम्पूर्ण रूप से स्वतन्त्र करने की नहीं थी. बल्कि ‘डोमेनियन स्टेट’ के रूप में ब्रिटेन के प्रभुत्व पर संचालित करने की थी. जो 15 अगस्त, 1947 से लेकर 25 जनवरी 1950 तक यानि संविधान लागू होने के पूर्व तक ‘डोमेनियन स्टेट ‘ के रूप में कार्यरत रहा. 15 अगस्त, 1947 से लेकर 21 जून 1948 तक लॉर्ड माउंटबेटन स्वतंत्र भारत के गर्वनर जनरल रहे और गवर्नर जनरल के रूप में लॉर्ड माउंटबेटन का अनुमोदन उनके खास वफादार जवाहरलाल नेहरू की अस्थायी सरकार वाली कैबिनेट ने किया था.

भारत को डोमेनियन स्टेट के रूप में स्वतंत्र करने के लिए क्लीमेंट एटली ने तत्कालीन गवर्नर वेवल का त्वरित इस्तीफा लिया था. और उसके स्थान पर माउंटबेटन को भारत का गवर्नर जनरल बनाए जाने की बात एटली ने ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स में बताई थी और यहीं से क्लीमेंट एटली – माउंटबेटन के खतरनाक मंसूबों का क्रम प्रारम्भ हो जाता है, जिसकी परिणति अन्ततोगत्वा भारत विभाजन की विभीषिका के रूप में हुई. डॉ. भीमराव अम्बेडकर की ‘पाकिस्तान ऑर द पार्टीशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक का पहला संस्करण 1945 में आया था. इसमें उन्होंने सन् 1945 में ही सचेत कर दिया था कि – “अगर भारत का विभाजन होता है तो पाकिस्तान में हिन्दुओं और सिक्खों का भविष्य सुरक्षित नहीं रहेगा”. लेकिन भारत विभाजन के गुनहगारों के लिए सत्ता लोलुपता प्रथम प्राथमिकता में थी. अतएव उन्होंने शुतुरमुर्ग की भांति रेत में सिर धंसाए हुए भारत का बंटवारा होने दिया. और वीभत्स नरसंहारों से देश की धरती को रक्तरंजित होने दिया..!

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