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“न जमीं मिली, न फलक मिला”

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डॉ. वंदना गांधी

“मेरा नाम शालिनी उन्नीकृष्णन था, नर्स बनकर लोगों को सर्व करना चाहती थी. अब फातिमा हूँ, आईएसआईएस टेरेरिस्ट.” फिल्म की अदाकारा का इतना परिचय देना ही पूरी फिल्म की कहानी कह देता है कि कैसे समाज की सेवा का सपना संजोए लड़की को षड्यंत्रपूर्वक धर्म परिवर्तन कराकर उसे आतंकवाद की आग में झोंक दिया जाता है.

‘द केरल स्टोरी’ शालिनी से फातिमा बनी एक लड़की की खौफनाक सच्चाई सामने लाती है. इसके साथ ही फिल्म इस बात को भी सामने लाती है कि किस प्रकार धर्म के नाम पर इंसानियत को ताक पर रखकर बड़े पैमाने पर लड़कियों का ब्रेनवाश कराकर, उनके अश्लील वीडियो बनाकर ब्लैकमेल कर, उन्हें गर्भवती बनाकर तो किसी के साथ रोजाना सामूहिक बलात्कार करके यानी येन केन प्रकारेण धर्मांतरण कर टूलकिट की तरह उपयोग करके आईएसआईएस आतंकवादी बना दिया जाता है.

‘द केरल स्टोरी’ फिल्म तो सिर्फ एक माध्यम है समाज को जगाने का, झकझोरने का, कि अब भी समय है जागो और अपने अंतर्मन में झांको कि आप अपने बच्चों को क्या संस्कार दे रहे हैं? अपने धर्म की आप में स्वयं कितनी समझ है और वह समझ बच्चों तक भी हस्तांतरित कर रहे हैं या नहीं? फिल्म में यह सच्चाई दिखाई गई है कि हम अपने बच्चों को धर्म से, संस्कारों से दूर रख रहे हैं.

बच्चों को पढ़ाई, कैरियर या अन्य व्यस्तता की आड़ में उन्हें उनके मूल धर्म की शिक्षा दे ही नहीं रहे हैं. तभी तो कितनी आसानी से दूसरे मजहब के लोग उनके दिमाग में अपना मजहबी ज्ञान भर पा रहे हैं. कितनी आसानी से हमारे आराध्य देवों पर चाहे वह शिवजी हों, श्रीराम हों या श्री कृष्ण भगवान हों, सोची-समझी रणनीति के तहत सभी पर प्रश्न उठाया जाता है. इस स्थिति में हमारी बच्चियां करारा जवाब देने के बजाय मौन रह जाती हैं. वे तार्किक तरीके से अपने सनातन धर्म की विशेषताओं को नहीं बता पातीं.

वे नहीं बता पातीं कि राम जी ने सीता माता की वापसी में वानरों का एवं सभी समाजों का सहयोग लेकर कैसे उन्हें एक सूत्र में पिरोया था और समाज में एक आदर्श स्थापित किया था. पूर्व नियोजित कार्यों को पूर्ण किया था, शबरी की वर्षों की प्रतीक्षा को समाप्त कर समाज के अंतिम व्यक्ति की निष्ठा को दृढ़ किया था, सामाजिक समरसता का भाव दृढ़ किया था. भगवान श्री राम ने ऋषियों को भय मुक्त किया था, जबकि वे चाहते तो सीता माता को क्षणभर में अकेले ही मुक्त करा सकते थे. लेकिन मानव रूप में उन्होंने सभी के साथ और विश्वास से यह कार्य किया था.

हम शिव जी के आम इंसान की तरह पत्नी की मृत्यु पर विह्लल होने या श्री कृष्ण जी के सोलह हज़ार कन्याओं से विवाह और इनके पीछे की दृष्टि, वासना या शारीरिक सुख लिप्सा नहीं थी. बल्कि स्त्री रक्षार्थ भावना एवं उन सोलह हज़ार रानियों के साथ आध्यात्मिक संबंधों की क्यों नहीं बच्चों को पूर्व से ही दृष्टि दे पाते हैं? हम बच्चों के दिमाग में धार्मिक शून्यता रखते हैं. इसीलिए उनके दिमाग में स्वयं के धर्म के प्रति कड़वाहट या निम्नता भर दी जाती है‌ और उन्हें अपने मजहब की ओर आकर्षित कर पाते हैं.

‘द केरल स्टोरी’ सत्य की यात्रा है. समाज को सत्यता का आईना दिखाने का प्रयास है. फिल्म देखने के बाद लगता है कि सच में निर्माता-निर्देशक ने इस विषय पर जाने कितने वर्षों कार्य किया है. इसके बाद ही बहन बेटियों के मर्म को, उनकी अंतहीन वेदना को दर्शकों के सामने रखा है.

फिल्म में यह देखते हुए रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि मासूम और संपन्न परिवारों की बच्चियां जो समाज हितार्थ काम करने के उद्देश्य को लेकर घर से अपने सपनों की उड़ान भरने निकली थीं, लेकिन कैसे सहपाठी की कुटिल चालों में फंसकर, भटक कर कोई सेक्स स्लेव बन जाती है, तो कोई सामूहिक बलात्कार का दंश लेकर जीती है, कोई ब्लैकमेलिंग का शिकार होकर आत्महत्या तक कर लेती है. उस परिवार की वेदना का तो सोचकर भी सिहरन होती है कि कैसे सहन कर पाए होंगे परिवार के लोग यह सब.

सभी को यह फिल्म अपनी बच्चियों को, घर की महिलाओं को देखने के लिए प्रेरित करना चाहिए. संभव है कि समाज में हमारे अपने बीच हो रही ऐसी ही कुछ घटनाओं के प्रति जागरूकता लाकर इन घटनाओं को रोका जा सके. निर्माता-निर्देशक ने जो जोखिम लेकर समाज हित के विषय को सामने रखा है, वे अपने उद्देश्य में सफल हो पाएं, यही शुभेच्छा है. इस फिल्म का अन्य भारतीय भाषाओं में भी अनुवाद होना आवश्यक लगता है, जिससे अन्य प्रांतों में भी इस खतरे को समझा जा सके.

बच्चियों को विभिन्न कुतर्कों से अपने वश में करके, फंसाकर, उनका धर्म परिवर्तन कराकर, उनका दुरुपयोग करना एक छद्म युद्ध है. इसका सामना सारे समाज को मिलकर करना ही होगा. इसके लिए सबसे पहले सभी के मन में धर्म के प्रति गर्वोन्नत भाव सबसे आवश्यक है. साथ ही साथ बच्चियों के सहपाठियों के बारे में परिवार जनों को जागरूक रहना चाहिए. ‌बच्चियों से निरंतर संपर्क रखकर अपने आसपास घटित हो रही इस प्रकार की घटनाओं की घर-परिवार में खुलकर चर्चा करना भी सबसे महत्वपूर्ण है.‌ यह भी आवश्यक है कि बच्चों को बचपन से ही अपने धर्म के मूल के साथ-साथ सभी मत -पंथों के मूल सिद्धांतों एवं जीवन चर्या के मूल अंतरों को स्पष्ट रूप से समझाया जाए.

समझ नहीं पा रही हूं कि फिल्म का इतना विरोध क्यों हो रहा है? समाज के सामने अंडरवर्ल्ड की फिल्में परोसी जाती हैं, जिनमें अश्लील दृश्य, उटपटांग संवाद, फ़ूहड़ संगीत, निरुद्देश्य घटनाएं दिखाई जाती हैं. ऐतिहासिक घटनाओं पर बनी फिल्मों में ऐतिहासिक पात्रों की गलत छवि का प्रदर्शन किया जाता है, इतिहास को तोड़मरोड़ कर परोसा जाता है. जबकि ‘द केरल स्टोरी’ के रूप में हमारे सामने इतने साहस के साथ सच रखने का जो प्रयास किया गया है, उसे सराहा जाना चाहिए. यदि किसी को यह घटनाएं सच नहीं लगतीं तो वे इसे कहानी मानकर ही देख सकते हैं (वैसे निर्देशक के पास अनेकों घटनाओं, साक्ष्यों एवं पीड़ित लड़कियों के वीडियो उपलब्ध हैं).

यदि हम उन मां-पिता का दर्द अनुभव करें तो मस्तिष्क काम करना बंद कर देता है, दिमाग़ संज्ञा शून्य हो जाता है कि कैसे उनकी युवा, बुद्धिशील लड़की मजहबी चंगुल में फंस कर आत्महत्या को मजबूर हो जाती है, तो किसी लड़की को रोजाना पंद्रह से ज्यादा लोगों द्वारा बलात्कार का शिकार बनाया गया होगा या किसी को केवल हिजाब न पहनने के कारण मार्केट में मॉलेस्ट किया गया होगा. उफ़ ! क्या मन:स्थिति रही होगी उन लड़कियों की और उनके माता-पिता की. अंतहीन दर्द और वेदना के बीच असहनीय जीवन लेकिन कुछ न कर पाने की लाचार स्थिति.

फिल्म के अंत में पार्श्व में एक गीत बजता है – “न जमी मिली, ना फलक मिला”. यह गीत दिमाग को झंकृत कर देता है, झकझोर देता है.

सच में धर्मांतरण करा कर सीरिया भेजी गई, फिल्म में दिखाई गई लड़कियां हों या लव जिहाद के जाल में फंसी लड़कियां, सभी का यही हश्र होता है. उन्हें न तो जमीन मिलती और न ही वह ऊंचाइयां जिन पर उड़ने के उनके सपने होते हैं. वहीं दूसरी ओर जिन रेशमी सपनों की डोर थमाकर उन्हें मजहब में लाया जाता है, वहां दुरुपयोग कर उनकी आत्मा तक को मार दिया जाता है. इस प्रकार भुक्तभोगी लड़कियों में केरल की तरह सभी को सीरिया भेजकर आतंकवादी या सेक्स स्लेब या आत्मघाती बम तो नहीं बनाया जाता, किंतु उनकी जिंदगी नर्क की वेदना से कम नहीं होती.

ईश्वर सभी को सदबुद्धि दे ताकि मजहब के नाम पर सैकड़ों हजारों मासूम लड़कियों की जिंदगी को इस प्रकार की हैवानियत से मुक्त रखें. इंसानियत के आधार पर भी इन बच्चियों का हथियार की तरह उपयोग करना बंद हो. इनकी व्यथा और पीड़ा को सभी आत्मसात कर जागरूक हों, बस यही उम्मीद करती हूं. धर्म और राजनीति से दूर केवल इस विषय पर दिल और संवेदना से सभी को सोचना चाहिए.

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