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‘गीता प्रेस’ के सम्मान का विरोध करने वालों की मानसिकता?

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लोकेन्द्र सिंह

भारत सरकार ने गीता प्रेस, गोरखपुर को प्रतिष्ठित ‘गांधी शांति पुरस्कार’ देने का निर्णय कर सराहनीय कार्य किया है. इसी वर्ष गीता प्रेस ने अपनी स्थापना के 100 वर्ष पूर्ण किये हैं. अपनी इस 100 वर्ष की यात्रा में इस प्रकाशन ने भारतीय संस्कृति की खूब सेवा की है. भारतीयता के विचार को जन-जन तक पहुँचाने में गीता प्रेस का कोई मुकाबला नहीं कर सकता. वर्ष 1923 में स्थापित गीता प्रेस आज विश्व के सबसे बड़े प्रकाशकों में से एक है. अब तक 14 भाषाओं में 41.7 करोड़ पुस्तकें प्रकाशित कर नया कीर्तिमान बनाया है. इनमें से श्रीमद्भगवद्गीता की करोड़ों प्रतियां शामिल हैं. गीता प्रेस की नीति के कारण श्रीमद्भगवतगीता, श्री रामायण, श्री महाभारत सहित अनेक भारतीय ग्रंथ घर-घर तक पहुँच सके.

पुरस्कार की घोषणा के बाद गीता प्रेस को बधाई देते हुए प्रधानमंत्री ने उचित ही कहा – “गीता प्रेस ने पिछले 100 वर्षों में लोगों के बीच सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन को आगे बढ़ाने की दिशा में काफी सराहनीय कार्य किया है”.

आश्चर्य है कि कुछ लोगों/संगठनों को गीता प्रेस को पुरस्कार दिए जाने का निर्णय भी चुभ रहा है. सामान्य लोगों को भी यह समझ आ रहा है कि विरोध के पीछे की मानसिकता क्या है – गीता प्रेस ने हिन्दू धर्म-संस्कृति को जन-जन तक पहुँचाया है, क्या इसलिए उन्हें कष्ट है? देश में कुछ विचार समूह ऐसे हैं, जिन्हें प्रत्येक हिन्दू पहचान एवं भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पित संस्थाओं से चिढ़ है.

“गीता प्रेस को ‘गांधी शांति पुरस्कार-2021’ दिया जाना, सावरकर और गोडसे को पुरस्कार देने जैसा है”. यह विचार अत्यंत संकीर्ण सोच को प्रकट करता है. इस बेतुके बयान के समर्थन में जिस पुस्तक का जिक्र किया गया है, उसके लेखक को गीता प्रेस और उसके प्रकाशनों के प्रति बुनियादी जानकारी ही नहीं है. पुस्तक ‘गीता प्रेस एंड द मेकिंग ऑफ हिन्दू इंडिया’ में लेखक अक्षय मुकुल ने अनेक बुनियादी बातों को गलत ढंग से प्रस्तुत किया है. एक मजेदार तथ्य यह कि इस पुस्तक की प्रशंसा विवादित लेखिका अरुंधति रॉय ने की है. याद रहे, अरुंधति मानवता के दुश्मन खूंखार नक्सलियों को बंदूकधारी गांधीवादी बताती हैं. इस पुस्तक के आधार पर पूर्व में भी गीता प्रेस की प्रतिष्ठा को धूमिल करने का प्रयत्न किया जा चुका है. इस बात को तथ्यात्मक रूप से समझने के लिए डॉ. संतोष कुमार तिवारी का शोधपूर्ण आलेख ‘गीता प्रेस को बदनाम करने की कोशिश’ पढ़ना चाहिए, जो 20 मार्च 2017 को प्रकाशित हुआ था. उल्लेखनीय है कि डॉ. तिवारी ने ब्रिटेन के कार्डिफ विश्वविद्यालय से पीएचडी प्राप्त की है और वे झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग से प्राध्यापक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं.

विरोधियों की मानसिकता देखिए कि वे गीता प्रेस के सम्मान को नाथूराम गोडसे से जोड़कर एक यशस्वी प्रकाशन के संबंध में भ्रम और विवाद खड़ा करना चाहते हैं. ओछे राजनीतिक स्वार्थ के चलते स्वातंत्र्यवीर सावरकर के प्रति चिढ़ ने नेताओं को इतना अंधा कर दिया है कि उन्हें इस महान क्रांतिकारी के संबंध में न तो महात्मा गांधी के विचार स्मरण रहते हैं और न ही पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के विचार एवं कार्य. वितंडा खड़ा करने में आनंद लेने वालों को समझना होगा कि तथ्यों के घालमेल से सच नहीं बदल जाएगा. सच यही है कि गीता प्रेस के प्रति प्रत्येक भारतीय के मन में अगाध श्रद्धा है. गीता प्रेस ने अपनी अब तक की यात्रा में भारतीय संस्कृति की महान सेवा की है.

विरोधियों द्वारा यह कहना कि महात्मा गांधी और गीता प्रेस के प्रबंधकों के बीच घोर असहमतियां थीं – निराधार और मूर्खतापूर्ण कथन है. महात्मा गांधी और गीता प्रेस के संबंध कैसे थे, इसे दो प्रमाणों के आधार पर समझिये. गीता प्रेस की सुप्रसिद्ध पत्रिका ‘कल्याण’ के पहले अंक में महात्मा गांधी ने लेख लिखा था. इतना ही नहीं, बाद में भी गांधी जी कल्याण के लिए लिखते रहे. दूसरा तथ्य – पत्रिका के संपादक भाईजी हनुमान प्रसाद पोद्दार और प्रबंधन ने महात्मा गांधी के आग्रह को शिरोधार्य करते हुए ‘कल्याण’ में कभी विज्ञापन प्रकाशित नहीं किए.

गीता प्रेस का अध्ययन करने वाले विद्वान डॉ. संतोष तिवारी ‘गीता प्रेस : गांधी जी और कल्याण के रिश्ते’ में लिखते हैं – “कल्याण के अक्तूबर 1946 के अंक पर एक बार ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंध भी लगाया था. जब ‘कल्याण’ का प्रकाशन दोबारा शुरू हुआ तो श्री पोद्दार बापू से आशीर्वाद लेने गए थे. गांधी जी ने तब उनको यह सलाह दी थी कि कल्याण में कभी भी बाहर का कोई विज्ञापन या पुस्तक समीक्षा मत छापना. ‘कल्याण’ पत्रिका आज तक गांधी जी के उस परामर्श का अनुसरण करती आ रही है. गीता प्रेस किसी से कोई दान राशि भी स्वीकार नहीं करती है”.

एक अन्य तथ्य भी ध्यान रखिए कि भारत की स्वतंत्रता के संकल्प को शक्ति देने के लिए ‘राम-नाम जाप’ का आग्रह लेकर जब भाई पोद्दार मुंबई में महात्मा गांधी से मिले थे, तब गांधी जी ने ‘राम-नाम’ का प्रसार करने के लिए प्रशंसा की थी. वास्तविकता यह है कि महात्मा गांधी के साथ श्री पोद्दार का संबंध एक परिवार के जैसा था. 1932 में गांधी जी के पुत्र देवदास गांधी को अंग्रेजी सरकार ने गिरफ्तार करके गोरखपुर जेल में रखा था. गांधी जी के कहने पर श्री पोद्दार ने देवदास गांधी का पूरा ख्याल रखा और नियमित रूप से जेल में उनसे मिलते रहे. रिहाई के फौरन बाद जब देवदास गांधी बीमार पड़े, तब भी श्री पोद्दार ने उनका ख्याल रखा. महात्मा गांधी ने 21 जुलाई, 1932 को भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार को लिखे पत्र में प्रसन्नता एवं आश्वस्ति व्यक्त करते हुए लिखा – “भाई हनुमान प्रसाद, आज तुम्हारा पत्र मिला और तार भी. तुम जब तक वहाँ हो, तब तक मुझे देवदास की चिंता नहीं रहेगी. और फिर, देवदास ने मुझे लिखा है कि तुमने बहुत स्नेहपूर्ण बर्ताव किया है. डॉक्टर वाकई बहुत अच्छे आदमी हैं. समय-समय पर तुम्हारे पत्र मुझे मिलते रहेंगे, ऐसी मेरी सदैव आशा है” (देखें – संपूर्ण गांधी वाङ्मय (हिन्दी), खण्ड-50, पृष्ठ-274). कई लोग यह भी झूठ फैलाते हैं कि ‘कल्याण’ में महात्मा गांधी की हत्या के बाद उन पर कोई सामग्री प्रकाशित नहीं हुई. वास्तविकता यह है कि जब महात्मा गांधी की हत्या हुई तब ‘कल्याण’ में दो श्रद्धांजलियां प्रकाशित हुईं, जिनमें से एक स्वयं संपादक भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार ने लिखी थी. अपने संदेश में उन्होंने लिखा – ‘गांधी जी धर्म और जाति के भेद से ऊपर उठे हुए थे और सत्य एवं अहिंसा के सच्चे पुजारी थे’.

इसके बाद भी यदि कुछ लोग यह कहकर विरोध में छाती पीट रहे हैं कि महात्मा गांधी का गीता प्रेस के प्रबंधकों एवं संपादक भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार के साथ गहरा मतभेद था, तब वे किस-किस का विरोध करेंगे क्योंकि अनेक मुद्दों पर नेता जी सुभाषचंद्र बोस, सरदार भगत सिंह और बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर से लेकर अनेक महापुरुषों के साथ गांधी जी असहमतियां रखते थे.

गीता प्रेस का संकल्प देखिए कि उसने आज तक किसी से अनुदान प्राप्त नहीं किया. इसी संकल्प को बनाए रखते हुए गीता प्रेस के प्रबंधकों ने ‘गांधी शांति पुरस्कार-2021’ को तो स्वीकार किया, लेकिन पुरस्कार में मिलने वाली एक करोड़ रुपये की राशि को स्वीकार करने से मना कर दिया. एक करोड़ रुपये की राशि, बहुत बड़ी राशि है. गीता प्रेस का विरोध करने वाले गिरोह में ऐसे लोग भी शामिल हैं, जो अवार्ड वापसी समूह का हिस्सा रहे हैं. उस बनावटी अभियान में इन लोगों ने अवार्ड तो लौटाए थे, लेकिन उसके साथ मिली राशि को आज तक नहीं लौटाया है.

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