जब दुनिया उपभोगवाद की ओर बढ़ रही थी, तब भी हमारा संकल्प था पर्यावरण संरक्षण
शीतल पालीवाल
भारत पर्यावरणीय मुद्दों को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व की स्थिति में है. बीते कुछ वर्षों में जहां विभिन्न देशों में वर्तमान दौर में कई इन्वायरमेंट एडवोकेट्स उभरे हैं, जो इन विषयों पर बात तो करते हैं, लेकिन उनकी कथनी और करनी में अंतर स्पष्ट दिखाई देता है. कभी कभी तो पर्यावरणीय विषयों की आड़ में अन्य देशों की सम्प्रभुता में दखल देना ही उनका उद्देश्य जान पड़ता है. वहीं भारत सदैव से प्रकृति पूजक रहा है. आज विश्व फैशन से लेकर जल संरक्षण तक की तकनीकों की सीख भारत से ले रहा है.
यह प्रेरणा हमें कहां से मिली …?
विश्व आज पर्यावरण को आधुनिक विषयों में सम्मिलित करता है. वर्ष 1730 में जब ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति चरम पर थी तो इस कारण पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हो रही थी. फ्रांस में 1730 में पेरिस जैसे बड़े शहरों के विस्तारीकरण के लिए पर्यावरणीय संसाधनों का अंधाधुंध दोहन हो रहा था और रूस व अमेरिका में भी यही स्थितियां थीं. जब दुनिया के लिए तथाकथित आधुनिकता की दौड़ में पर्यावरण संरक्षण जैसा कोई विषय अस्तित्व में ही नहीं था, तब भारत में समकालीन परिदृश्य कुछ और ही था.
सन् 1730 में जोधपुर के छोटे से गाँव खेजड़ली में तेजा दशमी के दिन जब महाराजा के आदेश पर सैनिक वृक्ष काटने आए तो, गांव की महिला अमृता देवी ने विरोध करते हुए कहा – मैं हरे वृक्ष नहीं काटने दूंगी. सैनिक नहीं माने तो पेड़ बचाने के लिए अपने प्राण न्योछावर करने को तैयार हो, वह पेड़ से लिपट गई और प्रकृति प्रेम ऐसा कि एक आह्वान पर न केवल खेजड़ली, बल्कि आसपास के 84 गांवों से 363 लोगों ने पेड़ों से लिपटकर अपने प्राण न्योछावर कर दिए, इनमें अमृता देवी की तीन बेटियों रत्ना, आसू और भागू के नाम भी शामिल हैं. इन सबकी प्रेरणा थे, प्रकृति प्रेम के भारतीय मूल्य. जिसकी शिक्षा अमृता देवी और पूरे विश्नोई समाज को गुरु जाम्भोजी से मिली थी. गुरु जाम्भोजी की ही उक्ति थी ‘सिर सांठे रुख रहे तो भी सस्तो जाण’. अर्थात् प्राणों के बदले भी यदि पेड़ की रक्षा होती है तो पीछे नहीं हटना चाहिए. गुरु जाम्भोजी सहित भारत के अनेकों संत-महात्माओं की मुख्य शिक्षाओं में पर्यावरण संरक्षण सम्मिलित था.
संयुक्त राष्ट्र की जनरल असेंबली द्वारा 1972 में 5 जून को पर्यावरण दिवस घोषित किया गया. परन्तु भारत के लोग आदिकाल से हर दिन पर्यावरण दिवस मानते आए हैं. हर दिन उसकी रक्षा के लिए संकल्पित रहते थे. ये भारत के सामाजिक मूल्य थे, इसलिए अमृता देवी ने एक क्षण भी न सोचा और प्राणोत्सर्ग कर दिए. पेड़ों की रक्षा धर्म है, यह मानते हुए वह धर्म से पीछे नहीं हटीं.
आज जब पूरा विश्व पर्यावरणीय संकट की चुनौती का सामना कर रहा है, तब अमृता देवी को आदर्श के रूप में याद करना हमारे लिए गौरव का विषय होना चाहिए. अमृता देवी व खेजड़ली वासियों का बलिदान सम्पूर्ण विश्व के लिए एक सीख है. लेकिन क्या हम एक समाज व देश के रूप में उन्हें वह उचित स्थान दिला पाए जो उन्हें मिलना चाहिए, इस दिशा में हमें सोचना होगा.