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समस्या का समाधान हां या ना में नहीं, संवाद में है

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डॉ. नीलम महेंद्र

लगभग एक पखवाड़े से जारी किसान आंदोलन भारत के सशक्त लोकतंत्र का बेहतरीन और विपक्ष की ओछी राजनीति का ताज़ा उदाहरण है. क्योंकि आंदोलन के पहले दिन से ही किसानों की मांगों का जिस प्रकार सरकार सम्मान कर रही है, उनकी आशंकाओं का समाधान करने का हर सम्भव प्रयास कर रही है वो सराहनीय है.

सरकार नरम और सकारात्मक रुख का परिचय दे रही है. चाहे कृषि मंत्री से लेकर गृहमंत्री तक विभिन्न स्तरों पर किसान नेताओं के साथ बैठकों का दौर हो. और या फिर अपने ताज़ा कदम में किसानों की मांगों को देखते हुए सरकार द्वारा कृषि कानूनों में संशोधनों का प्रस्ताव किसानों के पास भेजना हो. सरकार अपने हर कदम से बातचीत करके किसानों की समस्याओं को दूर करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता, अपनी नीयत और मंशा स्पष्ट कर रही है. दूसरी तरफ किसान आंदोलन में शामिल कुछ लोगों पर सवालिया निशान लग रहे हैं. क्योंकि इन कानूनों के जिन मुद्दों को उठाकर यह किसान आंदोलन खड़ा किया गया है, सरकार उन सभी पर संशोधन करने के लिए तैयार है. बावजूद इसके किसान नेता संशोधनों को मानने के बजाय कानून वापस लेने की अपनी मांग पर ही अड़े हैं.

….तो सवाल यहीं से खड़े हो जाते हैं क्योंकि….

  1. 2015 की शांता कुमार कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार देश के केवल6% किसानों को ही एमएसपी का लाभ मिलता है, लेकिन फिर भी किसान एमएसपी की मौजूदा व्यवस्था पर आश्वासन चाहते हैं जो सरकार लिख कर देने को तैयार है.
  2. किसानों को डर है कि मंडी व्यवस्था खत्म हो जाएगी. जबकि यह कटु सत्य है कि मौजूदा मंडी व्यवस्था के अंतर्गत मंडियों में ही किसानों का सर्वाधिक शोषण होता है. वो मंडियों में कम दामों पर अपनी उपज बेचने के लिए आढ़तियों के आगे विवश होते हैं और ये आढ़तिये इन्हीं फसलों को आगे बढ़ी हुई कीमतों पर बेचते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है. फिर भी “तथाकथित किसानों” की मांगों को देखते हुए केंद्र सरकार राज्य सरकारों को यह छूट देने के लिए तैयार है कि वे प्राइवेट मंडियों पर बहु शुल्क लगा सकती हैं.
  3. किसानों की आशंकाओं को देखते हुए सरकार कानून में संशोधन करके उन्हें सिविल कोर्ट कचहरी जाने का विकल्प देने को भी तैयार है.
  4. जिस कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कानून को लेकर भ्रम फैलाया जा रहा था कि किसानों की जमीनें प्राइवेट कंपनियों द्वारा हड़प ली जाएंगी, उसको लेकर भी कानून में स्पष्टता है कि खेती की जमीन गिरवी नहीं रख सकते.
  5. किसानों ने यह मुद्दा उठाया था कि नए कृषि कानूनों में कृषि अनुबंधों के पंजीकरण की व्यवस्था नहीं है तो सरकार ने संशोधन में आश्वासन दिया है कि कंपनी और किसान के बीच कॉन्ट्रैक्ट की30 दिन के भीतर रजिस्ट्री होगी.
  6. किसान बिजली से जुड़े नए कानून लागू करने के खिलाफ थे, सरकार ने आश्वस्त किया है कि बिजली की पुरानी व्यवस्था जारी रहेगी और वो बिजली संशोधन बिल2020 नहीं लाएगी.
  7. किसानों को आपत्ति थी कि नए कानूनों से वो निजी मंडियों के चुंगल में फंस जाएंगे. सरकार ने निजी मंडियों के रेजिस्ट्रेशन की व्यवस्था की है ताकि राज्य सरकारें किसानों के हित में फैसले ले सकें.

लेकिन किसान नेताओं द्वारा सरकार के प्रस्ताव को ठुकराना और संशोधन नहीं, केवल कानून वापस लेने की मांग पर अड़ जाना, सरकार के साथ बैठकों में कानून पर बात करने के बजाय (“यस और नो”) हां या ना” के प्लेकार्ड लहराना या फिर सरकार द्वारा संशोधन भेजने के बावजूद आंदोलन और तेज करने की घोषणा करना, जिसमें अडानी-अंबानी के सामान का बहिष्कार करना, जैसे कदम उठाए जा रहे हैं, इस आंदोलन में किसानों के पीछे छिपे असली चेहरों को बेनकाब कर रहे हैं. क्योंकि इससे पहले भी जब सरकार के साथ 9 तारीख को बैठक प्रस्तावित थी, तब किसान संगठनों द्वारा 8 दिसंबर को भारत बंद का आह्वान, इस बंद को समूचे विपक्षी दलों का समर्थन और राहुल गांधी, शरद पवार सहित विपक्षी दलों के एक प्रतिनिधि मंडल का राष्ट्रपति से मिलकर इन कानूनों को रद्द करने की मांग करना, ये सभी बातें अपने आप में इसके पीछे की राजनीति को उजागर कर रही हैं.

खास बात यह है कि इस आंदोलन में रहने खाने से जुड़े मूलभूत विषय हों या सरकार से बात करने की रणनीति तैयार करने जैसे गंभीर विषय हों, जिस प्रकार की खबरें सामने आ रही हैं या फिर प्रसाद के रूप में काजू किशमिश बांटने जैसे वीडियो सामने आ रहे हैं वो इस आंदोलन को शाहीन बाग़ जैसे आंदोलन के समकक्ष खड़ा कर रहे हैं. आंदोलन स्थल पर रोटी बनाने की मशीनें, हाइवे पर जगह जगह लगी वाशिंग मशीनें, वाटर पम्प का संचालन करने वाली मोबाइल सोलर वैन को मोबाइल फोन चार्ज करने और बैटरी बैंक के रूप में तब्दील करना, बिजली के लिए सोलर पैनल और इन्वर्टर का प्रयोग.

अगर हमारे किसानों ने हाइवे पर अपने दम पर यह इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा किया है तो इसका मतलब यह है कि हमारे किसान हर प्रकार से सक्षम हैं और आधुनिक तकनीक का प्रयोग भी बखूबी जानते हैं तो फिर वे अपने इस हुनर का प्रयोग      आंदोलन करने की बजाय खेती और फसल को उन्नत करने में लगाते तो वो खुद भी आगे जाते और देश की तरक्की में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान देते. लेकिन, देश के 86 प्रतिशत किसान छोटे किसान हैं जो खुद खेती में निवेश भी नहीं कर सकते. किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्या के आंकड़े उनकी दयनीय स्थिति बताने के लिए काफी हैं. इसलिए जब इस किसान आंदोलन के जरिए हमारे देश के किसानों की यह विरोधाभासी तस्वीरें सामने आती हैं तो इनसे राजनीति की बू आती है. जब केजरीवाल एक तरफ दिल्ली में कृषि कानूनों में से एक को लागू करते हैं और दूसरी तरफ किसानों के बीच जा कर इन कानूनों के विरोध में खड़े हो जाते हैं. या जब राहुल गांधी किसानों से कानून वापस लेने तक पीछे नहीं हटने का आह्वान करते हैं, लेकिन अपने चुनावी घोषणा पत्र में इन्हीं कृषि सुधारों को लागू करने का वादा करते हैं. या जब शरद पवार आज इन कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन का समर्थन करते हैं, लेकिन खुद कृषि मंत्री रहते हुए राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिख कर इन कृषि सुधारों को लागू करने की वकालत करते हैं.

राजनीति से इतर, सरकार द्वारा लाए इन कृषि कानूनों में छोटे किसानों के मद्देनजर और सुधार की गुंजाइश हो सकती है और किसान संगठनों का मुख्य उद्देश्य इन छोटे किसानों के ही हित की रक्षा करना होता है. इसलिए किसान नेताओं का दायित्व है कि वे विपक्ष के हाथों अपना राजनैतिक इस्तेमाल होने से बचाएं और देश के लोकतंत्र का सम्मान करते हुए सरकार से बातचीत कर आम किसानों के हितों की रक्षा की पहल करें ना कि अड़ियल रुख का परिचय दें. क्योंकि समझने वाली बात यह है कि विपक्ष की इस राजनीति में दांव पर विपक्ष नहीं, बल्कि किसानों का भविष्य लगा है.

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