योगेश
गढ़ा गया इतिहास अब न छुपने पाएगा
12 अगस्त, 1765 को व्यापारिक मंशा लेकर भारत में आई ईस्ट इंडिया कंपनी ने मुग़ल बादशाह शाहआलम द्वितीय के साथ इलाहाबाद संधि की थी. इसी संधि की काली स्याही ने भारत की दासता की एक ऐसी कहानी लिखी, जिसका दुष्परिणाम आज तक देखने में आ रहा है. सफेद अंग्रेजों ने भारत के बौद्धिक विनाश का जो कुचक्र आरंभ किया था, काले अंग्रेजों की सूरत में वह फलीभूत हुआ. भारत की गौरवशाली, शौर्यवान, ऐतिहासिक व संघर्ष की परम्परा को शिक्षा पद्धति के बदल के साथ कहीं बहुत गहरे दबा दिया गया. यह तो भारत की मातृशक्ति का ही प्रताप है, जिसकी आध्यात्मिकता के कारण अभी भारत की संतानों के रक्त में सनातन पद्धति का प्रवाह शेष है. जिसके कारण बहुत कुछ विस्मृत होने पर भी किस्सों, कहानियों के माध्यम से हम अपना गौरवशाली इतिहास पूरी तरह से भूल नहीं पाए हैं.
इस वर्ष 1857 की राष्ट्रीय क्रान्ति की 163वीं वर्षगाँठ मनाई जा रही है. इस क्रान्ति को देसी और विदेसी इतिहासकारों ने अपनी – अपनी दृष्टि से देखने, इसके महत्व को आंकने व हमें समझाने की कोशिश की है. वामपंथी विष ने बहुत कुछ विद्रुपित किया, परन्तु 1857 के विद्रोह के स्वरूप और चरित्र पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालते हुए मार्क्स ने एक लेख में लिखा था, ‘मौजूदा भारतीय गड़बड़ी महज़ एक फौजी बग़ावत नहीं है, बल्कि एक राष्ट्रीय विद्रोह है. सिपाही उसके औजारों की ही भूमिका अदा कर रहे हैं.’ उन्होंने इस विद्रोह की तुलना 1789 की फ्रांस की महान क्रांति से की, वे मानते थे कि जैसे फ्रांसीसी राजशाही पर उसके कुलीन वर्ग ने पहला हमला किया था, न कि किसानों ने, इसी प्रकार भारतीय विद्रोह भी अंग्रेजों द्वारा उत्पीड़ित और अपमानित भूखी – नंगी जनता से शुरू नहीं हुआ, बल्कि अंग्रेजों द्वारा सजाई–दुलराई सेना की तरफ से ही शुरू हुआ. इसमें संदेह नहीं कि बंगाल आर्मी द्वारा विद्रोह कर देने के बाद अंग्रेज देश में अलग-थलग पड़ गए. न किसानों में उनके प्रति सद्भावना थी, न भूस्वामियों व ताल्लुकेदारों में और न ही दस्तकारों व मजदूरों में. यही कारण था कि पूरे उत्तर भारत में हरियाणा से लेकर बिहार तक और हिमालय से लेकर नर्मदा तक अंग्रेजी सत्ता जहां – तहां कुछ छावनियों तक ही सीमित होकर रही गई थी. बंगाल आर्मी के सवा लाख सिपाहियों में से केवल 7000 ही अंग्रेजी हुकूमत के साथ रह गए थे.
मुगल राज्य के अंतर्गत लगान कुल उपज का 1/4 से 1/6 हिस्सा लिया जाता था. परन्तु अंग्रेजी साम्राज्य के तहत लगान की दर कुल उत्पादन का आधे से भी अधिक हिस्सा तय किया गया और यह भी रबी और खरीफ की फसल के आने से पहले ही फरवरी एवं सितम्बर में नकद रूप में वसूल किया जाने लगा. अंग्रेजी सरकार किसानों के प्रति कोई हितकारी भावना नहीं रखती थी. किसानों को लगान चुकाने के लिए साहूकार से कर्ज लेना पड़ता था, वरना् सरकार उन्हें जेल में ठूंस देती थी. अजीब बात है कि लगान वसूल करने के लिए सरकार ने जितने घुड़सवार सिपाही नियुक्त कर रखे थे, उतने कानून-व्यवस्था के लिए नहीं थे. करनाल जिले में कानून व्यवस्था के लिए केवल 22 घुड़सवार रखे गए थे, जबकि लगान वसूलने के लिए 136 घुड़सवार सिपाही थे, जो किसान लगान नहीं दे पाते थे, वे गांव छोड़ कर भाग जाते थे. करनाल जिले की सैटलमैंट रिपोर्ट में लिखा है कि कई गांवों के किसान सामूहिक रूप से अपनी जमीन और घरों को छोड़ कर दूर-दराज के इलाकों में चले गए और गांव उजड़ गए. सोनीपत के परगने में सैटलमैंट रिपोर्ट में कहा गया कि 9 गांव जो 1826 में आबाद हुए थे. 1842 में उजड़ गए. रेवाड़ी परगने में भी 1836 की रिपोर्ट यही दशा दर्शाती है. यही हालत रोहतक और हिसार जिलों की थी. निस्संदेह हरियाणा में किसानों की दशा भारी लगान दर और वसूली के सख्त तौर-तरीकों से खस्ता हो रही थी.
1857 में हरियाणा का अधिकतर भू-भाग दिल्ली डिवीजन का अंग था. इसमें रोहतक, हिसार, पानीपत, गुडग़ांव और दिल्ली जिले शामिल थे. अम्बाला और थानेसर के जिले पंजाब के हिस्से थे. उत्तरी हरियाणा में जींद, बुड़िया, कलसिया (छछरौली) की रियासतों के अलावा कैथल, थानेसर, लाडवा, शाहाबाद, शामगढ़, धनौरा, गढ़ी कोताहा, कुंजपुरा, करनाल व पानीपत आदि की जागीरें थी. दक्षिणी हरियाणा में रेवाड़ी, फर्रूखनगर, पटौदी, वल्लभगढ़, झज्जर, लोहारू तथा रानियां की रियासतें थीं.
हरियाणा में बगावत
1857 से 1947 ई. तक असंख्य हुतात्माओं ने देश के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान किया. इस कालखण्ड में हजारों ऐसे अज्ञात वीर बलिदानी हैं, जिनका नाम अंधेरे में दबा रह गया और हम भी उन्हें भूल गए. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के आरंभ होने से तीन-चार वर्ष पहले ही जीन्द के लजवाना गांव के लोगों ने अंग्रेजी सरकार के पिट्ठू जीन्द के राजा से अपने आप को स्वतंत्र होने की न केवल घोषणा कर दी थी, अपितु छह महीने तक स्वतंत्र भी रहे. इस गांव के वीरों ने नम्बरदार भूरा और निगाहिया के नेतृत्व में सामंतशाही का डट कर मुकाबला किया और जीन्द, नाभा तथा पटियाला तीनों रियासतों की संयुक्त फौजों को बुरी तरह से पराजित भी किया. ग्रामीणों ने अपनी एक फौज तैयार की, जिसमें रियासती क्षेत्र से बाहर के अंग्रेज़ शासित प्रदेशों से जवान 18/- मासिक वेतन पर भर्ती किये जाते थे. जबकि जीन्द की रियासती फौज के सिपाहियों को 10/- मासिक वेतन मिला करता था. घमासान लड़ाई व तीन-तीन रियासतों की सम्मिलित फौज भी जब ग्रामीणों को हरा नहीं पाई तो राजा जीन्द ने अपने आका अंग्रेजों से मदद माँगी, जिसके बाद लजवाना गाँव टूटा और भूरा – निगाहिया को गिरफ्तार करके मृत्यु दण्ड दिया गया. इसी युद्ध में गांव की एक लड़की भोली / काली ने अद्भुत वीरता दिखाते हुए अकेले ही रियासती / अंग्रेज़ी फौज के 18 सिपाहियों का वध किया था. लजवाना गांव वहां से उजड़ कर सात गांवों में बंट गया व इस गांव के मलबे से जीन्द का दीवानखाना तथा जफर्गढ़ गांव में एक किले का निर्माण किया गया.
मुगलों से अपने गुरुओं की हत्या का बदला लेने के लिए पंजाब की देसी रियासतें अंग्रेजों का सहयोग कर रहीं थीं. परन्तु जनमानस अंग्रेजों के विरुद्ध था. दिल्ली तक अंग्रेजों को कुमुक न पहुंचे, इसके लिए सोनीपत और दिल्ली के बीच बसे लिबासपुर, कुंडली, बहालगढ़, खामपुर, अलीपुर, हमीदपुर सराय आदि गाँवों में ग्रामीणों ने सड़क मार्ग को बन्द कर दिया था. महम चौबीसी के प्रसिद्ध चबूतरे पर हुई पंचायत में यह निर्णय किया गया कि बरास्ता रोहतक और बरास्ता सोनीपत दिल्ली का मार्ग बन्द करने में महम इलाके के ग्रामीण उक्त गांवों का सहयोग करेंगे. इसमें भूरा – निगाहिया के वंशज व उनके क्षेत्र के लोगों ने भी सहयोग किया. लिबासपुर गांव में उदमीराम नामक युवक ने अंग्रेजों के काफिलों को रोकने के लिए 22 युवकों का एक दल बना लिया था. विद्रोह के दौरान उन्होंने बड़ी वीरतापूर्वक अंग्रेज सैनिकों के दिल्ली-पानीपत के बीच आने-जाने के रास्ते को रोक दिया. स्वतंत्रता संग्राम के विफल होने पर अनेक सेनानियों को कठोर सजाएं दी गईं, मृत्यु दण्ड दिए गए, कुण्डली के 3 व्यक्तियों सूरता राम, जवाहरा राम तथा बाजा को आजन्म काले पानी भेजा गया.
लेफ्टिनेंट मैकफर्सन ने 12 अगस्त को चीफ कमिश्नर लाहौर को लिखा, ‘पता चला है कि रोहतक जिले के बागी बादशाह की सहायता के लिए दिल्ली गए थे. अब वे वापिस रोहतक आ गए हैं. वे हिसार की तरफ बढ़ने की सोच रहे हैं.’ लाहौर के आर्मी मुख्यालय ने निर्णय लिया कि हांसी, हिसार और सिरसा को काबू करने के लिए लाहौर से अंग्रेजी फौज भेजी जाए. (फ्रेडरिक कूपर, क्राईसिस इन पंजाब 1858). दिल्ली के आजाद होने की खबर हिसार में भी फैल गई थी. हांसी और सिरसा में अंग्रेजों की छावनियां थी. सभी अंग्रेजी अफसरों में खलबली मच गई. उन्होंने देसी रियासतों से सैनिक मदद मंगवानी शुरू कर दी. खजाने का पैसा निकाल कर दूसरी जगह छिपा दिया. किले की सुरक्षा का इंतजाम कर दिया गया. हांसी, हिसार व सिरसा में मौजूद सैनिक टुकड़ियां बगावत कर दिल्ली की तरफ बढ़ चलीं. 29 मई को भारतीय सैनिकों ने बड़े पैमाने पर बगावत का झंडा बुलंद कर दिया. अंग्रेजी मेजर स्टाफ और अन्य अधिकारी व कर्मचारी हांसी छोड़ कर भाग निकले. जो नहीं भाग सके, उन्हें बागियों ने मार डाला.
हिसार जिले का ऐतिहासिक नगर हांसी रोहतक से 80 किलोमीटर पश्चिम में और हिसार से 20 किलोमीटर पूरब में स्थित है. प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय लाला हुक्म चंद जैन हांसी में कानूनगो थे. वे शहर में हिन्दुओं के मोहल्ले में रहते थे. शहर में एक मुसलमान जमींदार मिर्जा मुनीर बेग भी थे. ये दोनों अच्छे दोस्त थे. विद्रोह की खबर ने उन्हें झिंझोड़ डाला. हुक्म चंद जैन ने बादशाह को फारसी भाषा में एक पत्र लिखा. पत्र में मुगल बादशाह से सेना भेजने की प्रार्थना की और अपने हर प्रकार के सहयोग का विश्वास दिलाया. दोनों वीरों ने हांसी में मिल कर हिन्दू और मुसलमान सभी लोगों का नेतृत्व किया. सितम्बर के आखिरी हफ्ते में जब बादशाह बहादुरशाह जफर को अंग्रेजों ने कैद कर लिया, तो उनकी फाइलों में लाला हुकम चंद जैन का हांसी से लिखा उक्त पत्र मिल गया. अंग्रेजों ने तुरंत कार्यवाही की, सरकार के खिलाफ़ बगावत करने के अपराध में इन दोनों देश भक्तों को पकड़ लिया गया. लाला हुकम चंद जैन का भतीजा फकीर चंद जैन जो मात्र 13 वर्ष का था, उसे भी गिरफ्तार कर लिया गया. परन्तु अदालत ने उसे बरी कर दिया और लाला हुक्म चंद जैन तथा मिर्ज़ा मुनीर बेग को लाला जी की हवेली के सामने पेड़ पर लटकाकर कर 19 जनवरी 1858 के दिन फांसी दे दी गई. जघन्यता की पराकाष्ठा दिखाते हुए उस 13 वर्षीय बालक को जिसे अदालत ने बरी कर दिया था, उसे भी फांसी पर लटका दिया गया. उनकी लाशें उनके परिवारजनों को नहीं दी गई. उनका अंतिम अपमान करने की खातिर अंग्रेजी प्रशासन ने हुक्म चंद की लाश को परम्परा के विपरीत जमीन में गाड़ दिया और मिर्जा मुनीर बेग के शव को जला दिया गया. उन की जायदाद को जब्त कर लिया और घरों का सामान लूट लिया. कहा जाता है, उस समय लाला जी के नाम लगभग 9000 एकड़ ज़मीन और बेहिसाब सोना – चांदी था, उनकी पत्नी अपने दो लड़कों को लेकर वर्षों तक इधर-उधर भटकती हुई अपने बच्चों की परवरिश करती रही. आज उनके वंशज दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु व इंदौर में रहते हैं. दिल्ली में कानूनगो ब्रदर्स ऑफ़ हांसी के नाम से एक संस्था भी है. हरियाणा के गौरव लाला हुकम चंद जैन 1857 की क्रान्ति में अंग्रेजों द्वारा मंगल पाण्डे के बाद फाँसी पर लटकाए जाने वाले देश के दूसरे क्रान्तिकारी थे, उनके सम्मान में हरियाणा के गठन के उपरांत 1967 के गणतंत्र दिवस में दिल्ली में हरियाणा प्रदेश की झांकी में उनकी शहादत को दिखाया गया था (उक्त वर्णन लाला हुकम चंद जैन कानूनगो के परपौत्र दिल्ली निवासी अतुल कुमार जैन सुपुत्र लाला लखपत राय जैन ने लेखक को बताया है)
रोहणात का गांव हांसी से 8 मील दक्षिण में स्थित है. 1857 में दिल्ली के अंग्रेजी राज से स्वतंत्र करा लिए जाने के बाद तोशाम, रोहणात और उसके आसपास के कई गांवों ने 29 मई के दिन अंग्रेजी प्रशासन पर हमला बोल दिया. इन गांवों में हिन्दू, मुसलमान, जाट, रांघड़, ब्राह्मण, धानक, चमार, तेली व बनिए सभी विद्रोह में शामिल थे. वहां झज्जर और दादरी के नवाबों के सिपाही और बंगाल आर्मी के बागी सिपाही भी थे. तोशाम और हांसी का सारा इलाका देखते ही देखते आजाद हो गया. बिगड़े हालात पर काबू पाने के लिए अंग्रेजों ने 4 तोपें और 800 घुड़सवार हांसी भेज दिए. बीकानेर से भी मदद के लिए सेना आ गई. जनरल वानकोर्टलैंड की रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजी सेना ने 6 जुलाई को हांसी के पास विद्रोही गांव पर हमला कर दिया. बागियों के नेता सूबेदार गुरबख्श अपने 25 साथियों के साथ लड़ते – लड़ते शहीद हो गए. अंग्रेजी सेना को भी काफी नुकसान उठाना पड़ा. महाराजा बीकानेर हांसी और हिसार क्षेत्र में विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों का पूरी तरह साथ दे रहे थे. महाराजा स्वयं तीन हजार सैनिक और दस तोपें लेकर अंग्रेजों की मदद के लिए आ धमके थे. विद्रोहियों को पकड़ने में उसने अंग्रेजों की पूरी मदद की. अंग्रेजी अफसर ने भी महाराजा बीकानेर की गद्दारी के बदले उसे माकूल इनाम देने की सिफारिश की. अंग्रेज सेना ने पुट्ठी कलां गांव में तोपें लगाकर रोहणात पर गोलीबारी कर दी. हाजमपुर, भाटोल रांघडान, खरड़ अलीपुर और मंगाली को भी जला कर खाक कर डाला गया. कहते हैं कि गांव के विद्रोहियों व सैनिकों को पकड़ कर हाँसी में शहर के बीचों-बीच सड़क पर रोड़ी कूटने वाले रोलर के तले कुचल दिया गया. सड़क शहीदों के खून से रंग गई. इसी से इसका नाम लाल सड़क पड़ गया. रोहणात वासी न्योंदा राम बूरा यहीं शहीद हुए थे. बिरड़दास स्वामी को तोप से बांध कर उड़ाया गया. रोहणात और कई दूसरे गांव बेदखल कर दिए गए. उनकी जमीन व मकान 20 जुलाई 1858 के दिन नीलाम कर दिए गए. आज तालाब के किनारे एक चौबुर्जा कुआं और एक छोटी सी मस्जिद ही उस वक्त की निशानी बची है.