गत दिनों जैन आचार्य सुनील सागर जी महाराज ने ढाई दिन का झोपड़ा का विहार किया था. उसके बाद से ढाई दिन का झोपड़ा चर्चा में है. उन्होंने कहा था – संस्कृत पाठशाला एवं मंदिर के पौराणिक अवशेष यहां आज भी दिखते हैं. इससे पहले 9 जनवरी, 2024 को सांसद रामचरण बोहरा ने इस्लामिक आतंक की दासता का प्रतीक बताते हुए पर्यटन व संस्कृति मंत्रालय को एक पत्र लिखा था, जिसमें इसके मूल स्वरूप (संस्कृत विद्यालय व देवालय) में परिवर्तित करने का आग्रह किया था.
इतिहास की छात्रा रुचिका कहती हैं कि वास्तव में आज हमारे ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व के स्मारकों की जो स्थिति है, उससे किसी का भी हृदय द्रवित हो सकता है. स्वाधीनता के कई दशक बीत जाने के बाद भी किसी सरकार ने उनकी सुध नहीं ली. उल्टा संवैधानिक रूप से भी उन्हें अपनी मनमानी पर छोड़ देने की व्यवस्था कर ली. संविधान का अनुच्छेद 49 कहता है कि राज्य राष्ट्रीय महत्व के प्रत्येक स्मारक, स्थान और वस्तु का संरक्षण करेगा, जिसे बाद में “संसद द्वारा बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन राष्ट्रीय महत्व वाले घोषित किए गए” प्रत्येक स्मारक, स्थान और वस्तु का संरक्षण करना राज्य की बाध्यता होगी – कर दिया गया.
आज स्थिति यह है कि अधिकांश मंदिर, किले, बावड़ियां अतिक्रमण का शिकार हैं या खंडहर हो रहे हैं. हालांकि, ढाई दिन का झोपड़ा 1919 से संरक्षित है. लेकिन इसे इसका पुराना गौरव लौटाने की चेष्टा किसी सरकार ने नहीं की. यह आज भी आक्रांताओं के मजहबी उन्माद की गवाही दे रहा है.
ढाई दिन का झोपड़ा
इतिहासकारों के अनुसार, मूल रूप से यह सरस्वती कण्ठाभरण विद्यापीठ नामक संस्कृत अध्ययन का एक केन्द्र था, जिसमें मां सरस्वती के मंदिर के साथ एक संस्कृत महाविद्यालय था. इस विद्यापीठ का निर्माण महाराजा विग्रहराज चतुर्थ ने करवाया था. उनकी राजधानी अजयमेरु (वर्तमान अजमेर) थी. मूल इमारत का आकार चौकोर था. भवन के पश्चिम में माता सरस्वती का मंदिर था. 19वीं शताब्दी में, उस स्थान पर एक शिलालेख मिला था, जो 1153 ई. पूर्व का बताया जाता है. इससे यह अनुमान लगाया गया कि मूल भवन का निर्माण 1153 के आसपास हुआ होगा. जबकि कुछ स्थानीय जैन किंवदंतियों के अनुसार यह इमारत सेठ वीरमदेव कला द्वारा 660 ई. में बनवायी गई. यह एक पंच कल्याणक (जैन तीर्थ) था.
1192 ई. में, तराइन के दूसरे युद्ध में महाराजा पृथ्वीराज चौहान की हार के बाद मुहम्मद गोरी ने अजमेर पर कब्जा कर लिया और अपने सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक को मंदिर तोड़ने के आदेश दे दिए. मोहम्मद गोरी मंदिर परिसर में यथाशीघ्र नमाज पढ़ना चाहता था. कुतुबुद्दीन ऐबक को मंदिर तोड़कर इस्लामिक संरचना बनाने में ढाई दिन का समय लगा, इसलिए इसे ढाई दिन का झोपड़ा कहा जाता है. कुछ लोग इसे पंजाबशाह बाबा के उर्स से भी जोड़ते हैं, जो ढाई दिन चलता है.
इमारत की स्थापत्य कला
वर्तमान में यहां उस समय की जैन और हिन्दू दोनों स्थापत्य कलाओं के दर्शन होते हैं. इमारत में पत्थरों पर कई साहित्यिक कृतियां उकेरी हुई हैं, जिनमें ललिता विग्रहराज नाटिका और हरिकेली नाटिका के अंश सम्मिलित हैं. ललिता विग्रहराज नाटिका को सम्राट विग्रहराज चौहान के सम्मान में उनके दरबारी कवि सोमदेव ने संगीतबद्ध किया था. इस नाटिका के अनुसार उनकी सेना में 10 लाख सैनिक, 1 लाख घोड़े और 1,000 हाथी शामिल थे. हरिकेली नाटिका सम्राट विग्रहराज द्वारा लिखित है. झोपड़े की केंद्रीय मीनार में एक शिलालेख है, जिसमें झोपड़े के पूरा होने की तारीख जुमादा II 595 AH के रूप में अंकित है. अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार यह तारीख अप्रैल 1199 ई. है. झोपड़े की दक्षिणी मीनार पर कंस्ट्रक्शन सुपरवाइजर अहमद इब्न मुहम्मद अल-अरिद के नाम का एक शिलालेख है. झोपड़े में 25 फीट ऊंचे 70 खंभे हैं, जो आज भी मंदिर होने का प्रमाण देते हैं. अनेक रिपोर्ट से पता चलता है कि इसके निर्माण में 25-30 हिन्दू एवं जैन मंदिरों के खंडहरों का उपयोग किया गया है.
अलेक्जेंडर कनिंघम की रिपोर्ट
अलेक्जेंडर कनिंघम को 1871 में ASI के महानिदेशक के रूप में नियुक्त किया गया था. उसने Four reports made during the years, 1862-63-64-65 में इमारत का विस्तृत वर्णन किया है. कनिंघम लिखता है कि स्थल का निरीक्षण करने पर, उसने पाया कि यह कई हिन्दू मंदिरों के खंडहरों से बनाया गया था. इसका नाम ‘ढाई दिन का झोपड़ा’ इसके निर्माण की आश्चर्यजनक गति को दिखाता है और यह केवल हिन्दू मंदिरों की तैयार फ्री सामग्री के प्रयोग से ही संभव था.”
अब जब ढाई दिन के झोपड़े का मामला एक बार उठा है, तो देखते हैं सरकार इसे कितनी गम्भीरता से लेती है.