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जबलपुर हिंसा – दंगे की यह रणनीति आज भी ज्यों की त्यों है

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रमेश शर्मा

देश में साम्प्रदायिक हिंसा और विध्वंस का इतिहास पुराना है. यह दंगाइयों की स्थाई रणनीति है कि पहले धावा बोलो और जब सुरक्षा एजेंसियां कार्रवाई करें तो स्वयं को पीड़ित बता कर हल्ला करो. सौ साल पहले मालाबार में हुई हिंसा से लेकर नूंह में घटी ताजा घटनाओं तक एक ही कहानी है. 1961 में जबलपुर की साम्प्रदायिक हिंसा भी इसी रणनीति का अंग थी. जो एक छात्रा के अपहरण, बलात्कार और पीड़िता द्वारा की गई आत्महत्या के बाद शुरु हुई.

जबलपुर में 1961 में हुई इस भीषण हिंसा की शुरुआत एक बीस वर्षीय छात्रा ऊषा भार्गव के अपहरण से आरंभ हुई. दो दिन बाद वह घर लौटी और उसने मिट्टी का तेल डालकर आत्महत्या का प्रयास किया. उसे घायल अवस्था में विक्टोरिया अस्पताल ले जाया गया. जहाँ 3 फरवरी, 1961 को उसका देहान्त हो गया.

मृत्यु पूर्व बयान में उसने दो युवकों मकसूद और लतीफ पर अपहरण और बलात्कार का आरोप लगाया. पीड़िता के मृत्यु पूर्व बयान में आरोपियों के स्पष्ट नाम आ जाने के बाद भी पुलिस उन्हे बंदी न बना सकी और जाँच के नाम पर गिरफ्तारी टाली गई.

आरोपियों में एक के पिता बीड़ी के बड़े व्यापारी थे, उनका अपना कारखाना था और “सब प्रकार से दबदबे” वाले थे. उनका संपर्क भोपाल नागपुर, दिल्ली आदि अनेक प्रमुख नगरों में था. उनके बीड़ी कारखाने में महिलाओं के शोषण की अनेक चर्चाएँ हुआ करती थीं. पर, ये चर्चाएँ कितनी सच और कितनी अतिरंजित थीं, कहा नहीं जा सकता. लेकिन, इस कारखाने में वालेन्टियरों की एक बड़ी टीम थी. जिनके रुतबे के कारण किसी का भी इस परिवार और कारखाने के विरुद्ध बोलने का साहस न होता था.

भारत को स्वतंत्र हुए 14 वर्ष होने जा रहे थे, पर न तो अंग्रेजी काल का प्रशासनिक तंत्र बदला था और न प्रशासनिक शैली. जिसमें हिन्दुओं के साथ घटे अपराध को प्रशासन उतनी गंभीरता से लेता ही न था, जितना वह अपराध गंभीर होता था. इस प्रकरण में भी यही हुआ था. ऊषा भार्गव का अपहरण दिन दहाड़े हुआ था. अनेक लोगों के सामने, पर अपहरणकर्ताओं को रोकने का किसी का साहस न हुआ और न सूचना मिलने पर पुलिस ने कोई तत्परता दिखाई.

स्वतंत्रता के बाद जबलपुर की यह पाँचवी साम्प्रदायिक तनाव की घटना थी. पर स्थानीय स्तर पर ही रहा दफा हो गई. ऊषा भार्गव का परिवार स्वतंत्रता संग्राम सेनानी परिवार था. नगर में सम्मानित था. जब ऊषा भार्गव के साथ इस जघन्य अपराध का समाचार आया, तब समाज ने रैली निकालकर आरोपियों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई की माँग की. वह शुक्रवार का दिन था. इस जुलूस पर पत्थर फैंके गए, इससे तनाव बढ़ गया. सावधानी के बतौर पुलिस बल बढ़ा दिया गया, पर आश्चर्यजनक तरीके से पाँच फरवरी की रात को हाथ में मशालें लेकर एक भीड़ निकली और हिन्दू घरों पर हमले हुए.

घटना को 62 वर्ष बीत गये हैं. घटना के प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं, उस रात को हुये हमले के बाद, दिन में भी हमले हुए. हनुमान ताल, घोड़ा नक्कास, गोहलपुर, बड़ा फुआरा आदि क्षेत्र में हिन्दुओं के घर हिंसा से बहुत प्रभावित हुए. न केवल घरों में आग लगाई गई, अपितु लूट और हत्याएँ भी हुईं. यह पूरी हिंसा एक तरफा थी. सात और आठ फरवरी को तो लगभग हर मोहल्ले से लाशें मिलीं. इसमें बड़ी संख्या में बाहरी लोग देखे गए. यह हिंसा पुलिस नियंत्रण के सामर्थ्य से बाहर हो गई. तब जबलपुर सेना के हवाले किया गया. जिसकी कमान ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह के हाथ में थी. सेना ने मोर्चा लिया और हमलावरों पर सख्त कार्रवाई की. पकड़े गये हमलावरों में कुछ इलाहाबाद के भी थे. जो हथियार बरामद हुए उससे लगता था कि दंगे की तैयारी बहुत पहले से की जा रही थी.

उधर, जबलपुर में हुई इस हिंसा का समाचार आसपास फैला तो अन्य नगरों में प्रतिक्रिया हुई. इस प्रतिक्रिया का इतना शोर मचाया गया कि मानों अल्पसंख्यकों का जीना मुश्किल किया जा रहा है. अंततः सेना के आने के बाद दोनों आरोपियों की धारा 376 सहपठित 511 में गिरफ्तारी हुई और 19 फरवरी, 1961 को कोर्ट में प्रस्तुत किया गया, जहाँ से उन्हें जेल भेज दिया गया.

यह बीड़ी व्यवसायी के राजनैतिक और व्यवसायिक संपर्कों का प्रभाव था कि तब एकाध समाचार पत्र को छोड़कर अधिकांश में पीड़िता और उसके परिवार की व्यथा और हमले का शिकार हिन्दू परिवारों की व्यथा नहीं, अपितु कानून व्यवस्था और अन्य नगरों में हुई प्रतिक्रिया का विवरण होता था. कुछ ने तो ऐसी तस्वीर पेश की मानों मुस्लिम समाज को दबाने के लिये ऊषा भार्गव काँड को मुद्दा बनाया गया.

नागपुर से प्रकाशित एक दैनिक और मुम्बई से प्रकाशित एक साप्ताहिक ने तो पीड़िता के चरित्र पर भी आपत्तिजनक पंक्तियाँ लिखीं. यह एक प्रकार से आरोपियों के पक्ष में वातावरण बनाने का प्रयास माना गया. इसके लिये पीड़ित परिवार ने इन दोनों समाचार पत्रों पर मानहानि वाद दायर किया. अपनी मृतक बेटी के मान की रक्षा करते हुए पिता भी संसार से विदा हो गए तो माँ ने सम्मान रक्षा के इस संघर्ष को आगे बढ़ाया.

दंगे की यह रणनीति आज भी ज्यों की त्यों है.

पहले दंगा करो, लूट करो, स्त्रियों का अपमान करो फिर राजनेताओं का संरक्षण लेकर शोर मचाओ. दंगा बताकर समाज की साम्प्रदायिक मानसिकता पर लंबे-लंबे लंबे लेख लिखो. जबकि जबलपुर की वह घटना एक निरीह छात्रा के साथ जघन्य अपराध और ऊपर से उन बस्तियों और व्यक्तियों के घरों पर एक तरफा हिंसा का प्रकरण था, जिन्होंने घोरतम पीड़ा सहते हुये संसार से विदा हुई ऊषा भार्गव के लिये न्याय की गुहार लगाई थी. नूंह में भी उन पीड़ितों पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा जो शांति से अपनी धार्मिक यात्रा पर निकले थे और जिन पर हमला किया गया था.

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