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जनजातीय गौरव दिवस – स्वयं को दोषी बताकर प्रजा की रक्षा करने वाली वीरांगना

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दीपक विश्वकर्मा

भारत का स्वतंत्रता संघर्ष हजारों वीर बलिदानियों/हुतात्माओं की स्मृतियों से भरा हुआ है. ग्राम/नगर/ वनवासी सभी ने इस देश की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया है. उन्हीं में एक प्रमुख नाम है अमर बलिदानी रामगढ़ की रानी अवन्तिबाई का.

16 अगस्त, 1831 को मध्यप्रदेश के सिवनी जिले के गांव मनकेहनी में जमींदार राव जुझारसिंह जी के घर एक बिटिया जन्मी, बिटिया क्या, मानो साक्षात आदिशक्ति, महामाया थी वह. कालान्तर में उनका विवाह रामगढ़ के राजकुमार विक्रमाजीत (जिन्हें कहीं कहीं विक्रमादित्य भी कहा जाता है.) से हुआ. उनके बड़े ही तेजस्वी 2 पुत्र अमानसिंह और शेरसिंह हुए.

रामगढ़ के अंतर्गत तकरीबन 750 गांव आते थे. जो ईश्वर कृपा से वन सम्पदाओं से परिपूर्ण/समृद्ध थे. दोनों पुत्र छोटे ही थे कि अचानक किसी बीमारी से राजा विक्रमाजीत कुछ रोगों से पीड़ित हो गए.

तब तक भारत में ब्रिटिश काफी पैर पसार चुके थे. यह समाचार सुन मानो उनकी बांछें खिल उठीं, तत्कालीन वाइसराय डलहौजी ने अपनी विस्तार नीति के षड्यंत्रों से रामगढ़ को हड़पने के लिए कोर्ट ऑफ वार्ड्स की कार्रवाई कर मोहम्मद अब्दुल्ला व शेख मोहम्मद को सलाहकार बनाकर रामगढ़ भेजा. लेकिन रानी अवन्तिबाई अंग्रेजी नीयत से परिचित थीं, नतीजतन उन्होंने दोनों ही सलाहकारों को राज्य से बाहर निकाल दिया.

परंतु क्रूर नियति को कुछ और ही स्वीकार्य था. 1855 में राजा विक्रमाजीत का स्वर्गवास हो गया. यह अंग्रेजों के लिए एक स्वर्णिम अवसर था, अंग्रेजों ने तुगलकी फरमान जारी करने शुरू कर दिए. दोनों ही बेटों अमानसिंह, शेरसिंह को अवयस्क घोषित कर रामगढ़ पर कसावट बढ़ा दी गई. परंतु रानी अवंतिबाई ने राज्य प्रशासन अपने हाथों में लेकर एक एक ब्रिटिश कानून/दिशा/निर्देशों को किनारे करना शुरू कर दिया. नतीजतन वह प्रजा में अतिलोकप्रिय हो चलीं. अब यह ब्रिटिशों को खटकने लगा था.

वहीं, दूसरी और भारत में ब्रिटिशों के विरुद्ध पहले स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी भड़क उठी थी. जल्द ही यह चिंगारी आग बनकर समूचे भारत में फैलती हुई माध्यभारत भी आ पहुंची. रामगढ़ भी अब इससे अछूता नहीं था. जुलाई 1857 में जबलपुर/मंडला सहित समूचे महाकौशल के लोगों/गांवों/जमींदारों ने ब्रिटिशों को लगान चुकाने से मना कर दिया. इससे अंग्रेज भड़क उठे और आम लोगों पर उनके अत्याचारों का क्रम आरम्भ हो गया.

इसी बीच विद्रोह की सूचना पर ब्रिटिशों ने गोंडवाना राज्य के राजा शंकरशाह व कुंवर रघुनाथ शाह को निर्मम मृत्युदंड दिया, जिससे आम लोगों ने भी विद्रोह कर दिया.

25 सितंबर, 1857 को मंडला में वनवासी क्रांतिकारियों/सेनानियों ने ब्रिटिश भवनों/कार्यालयों पर हमला करना शुरू कर दिया. इससे घबराए बाकी अंग्रेज अधिकारी/कर्मचारी मंडला छोड़ भाग गए. इसी बीच बौखलाए अंग्रेज अधिकारी वाडिंग्टन ने 5 क्रांतिकारियों को सरेआम फांसी देकर लोगों में डर फैलाने की नाकाम कोशिश की.

23 नवंबर को खैरी में वनवासी क्रांतिकारी और ब्रिटिश सेना आमने सामने हुईं. लगभग 2000 क्रांतिकारी हजारों ब्रिटिश सैनिकों से अपना सब कुछ मिटा कर भी आज़ादी पाने के मकसद से जा भिड़े. एक ओर कहां तीर कमान/भाला/तलवार दूसरी तरफ बंदूकें/गोलियां/तोपें, लेकिन क्रांतिकारी जिस हौसले से लड़े ब्रिटिश राज की जड़ें हिल गईं. आखिरकार वाडिंग्टन को मैदान छोड़कर भागना पड़ा. मंडला/रामगढ़ फिर आज़ाद हो चुके थे. इससे अंग्रेजों की रातों की नींद उड़ चुकी थी. इस पलटवार से घबराए वाडिंग्टन ने वहां गिरफ्तार किए गए 21 क्रांतिकारियों को भी सरेआम फांसी दी ताकि लोगों में डर फैले… लेकिन उसकी यह कोशिश भी नाकाम रही.

दूसरी तरफ रानी अवन्तिबाई पड़ोसी राज्यों/जमींदारों/सरदारों के साथ लगातार ब्रिटिश सेना की दूसरी टुकड़ियों से युद्धरत थीं. आधुनिक हथियारों से सज्जित ब्रिटिश सेना को बैकअप फ़ोर्स भी लगातार मिलती जा रही थी.

इसके बाद घुघरी के लिए भी एक लंबी लड़ाई चली, लेकिन किस्मत को कुछ और ही स्वीकार था. दिल के सच्चे लेकिन युद्ध में वीर वनवासियों को वाडिंग्टन ने मैदान में छल से हराया. कई क्रांतिकारियों को निर्ममता से मारा गया. 6 महीने की लंबी लड़ाई के बाद आखिर वाडिंग्टन रामगढ़ जीतने में सफल रहा.

आखिरकार अंग्रेज गुप्तचर/सेना रानी अवन्तिबाई का पता लगाते हुए देवहारगढ़ के जंगलों में लड़ने को जा पहुंची. जहां रानी अवन्तिबाई के नेतृत्व में हजारों क्रांतिकारी अपना सबकुछ मिटाने को पहले से तैयार बैठे थे.

20 मार्च, 1858 को रानी साहिबा शाहपुर तालाब के नजदीक स्थित एक मंदिर में पूजा अर्चना करने के बाद मैदान में साक्षात काली बनकर टूट पड़ीं. चहुंओर मानो महाकाल तांडव कर रहे थे. चारों ओर तलवारें/बरछी/कटारें/ भाले सनन सनन चल रहे थे. खून की नदियां बह चलीं.

दूसरी ओर से तोपें दागी जा रहीं थीं. गोलियों की बारिश हो रही थी. मानो भरी दोपहरी में अमावस उतर आई हो. वह मंडला के लिए एक ऐसी ही रात थी. भला गोली/बंदूकों/तोपों का सामना तीर/कमान कब तक करते. एक एक कर सेना नायक/सरदार/क्रांतिकारी वीरगति को प्राप्त हो रहे थे. ब्रिटिश सेना चारों ओर से रानी को घेरती जा रही थी.

रानी अवन्तिबाई को वीर बलिदानी दुर्गावती जी याद आईं. उन्होंने भी प्रण किया कि अंग्रेज जीते जी उनके शरीर को छू नहीं पाएं. जब ब्रिटिश सैनिक बहुत नजदीक ही आ चुके थे, तो रानी ने अपने स्वाभिमान/आत्म सम्मान की रक्षा करने अपनी ही तलवार से बलिदानी हो गयीं.

प्रजा वत्सल रानी माँ ने अपने अंतिम बयान में विद्रोह का सारा दोष स्वयं स्वीकारते हुए. अपनी प्रजा को निर्दोष बताया.

आज ऐसी प्रजा वत्सल/वीरांगना रानी अवन्तिबाई को नमन.

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