गिलगिट-बाल्टिस्तान
प्रशांत पोळ
भारतीय उपमहाद्वीप में जहां सबसे पहले यूनियन जैक उतरा, वह स्थान है गिलगिट – बाल्टिस्तान. १ अगस्त, १९४७. मूलतः गिलगिट-बाल्टिस्तान प्रदेश अनेक राजवंशों के हाथों जाते-जाते, उन्नीसवीं शताब्दी में जम्मू कश्मीर के डोगरा राजाओं के नियंत्रण में आया था.
यह प्रदेश अत्यंत सुंदर है. प्रकृति ने यहां मुक्त हस्त से अपना सौंदर्य लुटाया है. यहां उत्तुंग चोटियों वाले पहाड़, पाताल तक खाई, घने जंगल, बर्फ…. सब कुछ है. शांत स्वभाव के खूबसूरत लोग, खुली और शानदार हवा, खुशनुमा माहौल और बेहद आकर्षक निसर्ग, इस प्रदेश की सुंदरता को बढ़ाते हैं. साथ ही यह प्रदेश सामरिक रूप से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है. इसकी सीमाएं अफगानिस्तान, चीन, पाकिस्तान और भारत को जोड़ती हैं. इस पूरे क्षेत्र में पत्थरों पर उकेरी गयी अनेक मूर्तियां मिलती हैं, जिनमें अधिकतम गौतम बुद्ध की मूर्तियां हैं.
१८८५ में इस प्रदेश के सामरिक महत्व को समझ कर अंग्रेजों ने इसकी सुरक्षा करनी चाही. उन्हें रशिया से डर था कि कहीं रशियन्स इस पर कब्जा न कर लें. इसलिये अंग्रेजों के अधीन, कश्मीर के तत्कालीन महाराजा रणवीर सिंह ने गिलगिट एजेन्सी का निर्माण किया. यह एक प्रकार का सुरक्षा दल था, जिसका नियंत्रण अंग्रेजों के हाथों में था. लेकिन इस पूरे प्रदेश पर प्रशासनिक नियंत्रण महाराजा रणवीर सिंह का ही था.
१९३५ तक विश्व का परिदृश्य काफी कुछ बदल गया था. विश्व युद्ध के बादल दूर से दिखाई दे रहे थे. ऐसे में इस महत्त्वपूर्ण क्षेत्र को सीधे अपने हाथों में लेने के लिए अंग्रेजों ने डोगरा राजाओं के साथ समझौता किया. इसके तहत गिलगिट-बाल्टिस्तान का प्रदेश, ७५,००० रुपये में साठ वर्ष के लिए महाराजा ने अंग्रेजों को लीज पर दे दिया. किंतु जब विश्व युद्ध समाप्त हुआ और अंग्रेजों को भारत छोड़ना ही पड़ेगा यह स्पष्ट हुआ, तो लीज के समय से पहले, अंग्रेजों ने इस क्षेत्र को महाराजा हरिसिंह को सौंप दिया. इसलिये भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे पहले, अर्थात् १ अगस्त, १९४७ को, उगते सूरज के साथ यहां यूनियन जैक उतारा गया.
किंतु कश्मीर पाकिस्तान में नहीं होना, यह पाकिस्तानी नेताओं को बहुत अखर रहा था. पाकिस्तान के नाम में तो कश्मीर था, पर हकीकत में नहीं. इसलिये पाकिस्तान के नेताओं ने जम्मू कश्मीर की फौज में सेंध लगाना प्रारंभ किया.
एक अगस्त को जब अंग्रेजों ने ‘गिलगिट एजेन्सी’, अर्थात गिलगिट – बाल्टिस्तान का नियंत्रण महाराजा हरसिंह को सौंपा, तो महाराजा की तैयारी बहुत ज्यादा नहीं थी. अंग्रेजों ने यहां ‘गिलगिट स्काऊट’ नाम की बटालियन तैनात की थी. इसमें कुछ अंग्रेज अधिकारी को छोड़ दें, तो सारी बटालियन मुस्लिम थी. १ अगस्त को यह सारी फौज भी महाराजा के पास आ गयी. महाराज ने इस प्रदेश के गवर्नर के नाते ब्रिगेडियर घंसारा सिंह की नियुक्ती की. साथ ही ‘गिलगिट स्काऊट’ के मेजर डब्ल्यू. ए. ब्राऊन और कैप्टन ए. एस. मेथीसन भी कुछ दिनों के लिए दिये. ‘गिलगिट स्काऊट’ का सूबेदार मेजर बाबर खान भी इन सबके साथ था.
अक्तूबर के दूसरे सप्ताह से पाकिस्तानी सेनाओं ने कश्मीरी सेना में बगावत करवाना प्रारंभ किया. ८ – ९ अक्तूबर, १९४७ को होलार (वर्तमान में पाक अधिकृत कश्मीर में) में तैनात ‘2 जेके इन्फेंट्री’ के हिन्दू जवानों के साथ मुस्लिम जवानों की झड़प हुई. कोटली – रावलपिंडी रोड पर स्थित सहनसा तहसील मुख्यालय पर भी पाकिस्तानी सेना के जवानों ने स्थानीय युवकों के वेश में हमला किया.
यह सारे समाचार दिल्ली में गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल को मिल रहे थे. इसी बीच अपने राजगुरू स्वामी संत देव के प्रभाव में आकर महाराजा हरिसिंह, स्वतंत्र ‘डोगरीस्तान’ की कल्पना पर काम कर रहे थे. यह सब देखते हुए सरदार पटेल ने तत्काल प्रभाव से दो काम किये. पंजाब उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति मेहरचंद महाजन को जम्मू एंड कश्मीर प्रांत का प्रधानमंत्री (मुख्य सचिव) का दायित्व लेने के लिए कहा. इसके लिए उन्होंने महाराजा हरिसिंह को तैयार किया. १५ अक्तूबर को मेहरचंद महाजन ने कश्मीर के प्रधानमंत्री पद का दायित्व स्वीकार किया. सरदार पटेल ने दूसरा काम किया, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से अनुरोध किया कि वे श्रीनगर जाकर महाराजा हरिसिंह को भारत में विलय के लिए तैयार करें.
१७ अक्तूबर को शुक्रवार था. इस दिन विशेष वायुयान से श्री गुरुजी श्रीनगर गए. मेहरचंद महाजन सारा समन्वय कर रहे थे. शनिवार १८ अक्तूबर को महाराजा के निवासस्थान पर श्री गुरुजी और महाराजा की भेंट हुई. इस भेंट के दौरान कुंवर करण सिंह भी उपस्थित थे. उनके पांव में प्लास्टर होने के कारण वे बिस्तर पर थे. महाराजा ने श्री गुरुजी से कहा, “मेरा पूरा राज्य पाकिस्तान से घिरा हुआ है. सारे रास्ते सियालकोट और रावलपिंडी होकर जाते हैं. लाहौर यह हमारे लिए सबसे निकट का एयरपोर्ट है. ऐसी परिस्थिति में भारत में विलय कैसे कर दूं?” श्री गुरुजी ने उन्हें समझाया कि “आप एक हिन्दू राजा हैं. पाकिस्तान में विलीन होने से आपकी हिन्दू प्रजा को, आपके हिन्दू सिद्धांतों को कड़ा संघर्ष करना पड़ेगा. रास्ते तो निकाले जा सकते हैं, बनाए जा सकते हैं.” प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन ने भी श्री गुरुजी की बात का समर्थन किया. महाराजा ने विलय के लिये अपनी तैयारी दिखाई. उन्होंने श्री गुरुजी को ‘तोसा’, कश्मीरी शॉल भेंट की.
श्री गुरुजी १९ अक्तूबर को दिल्ली वापस पहुंचे. उन्होंने महाराजा की स्वीकृति वल्लभभाई पटेल को बताई. पटेल ने विलय के कागजात तैयार करने के लिए अपने विश्वस्त अधिकारियों को बताया. इधर, ‘श्री गुरुजी का महाराजा से मिलना और महाराजा का भारत के विलय के पक्ष में तैयार होना’, यह बातें कराची में जिन्ना और लियाकत अली खान तक पहुंच रही थीं. उन्होंने तत्काल पाकिस्तानी सेना को सामान्य नागरिकों के वेश में कश्मीर पर आक्रमण करने को कहा.
२२ अक्तूबर की शाम से पाकिस्तानी सेनाओं ने कश्मीर की सीमा के अंदर घुसना प्रारंभ किया. यह समाचार मिलते ही, महाराजा ने भारत सरकार से सेना भेजने का आग्रह किया. किंतु नेहरू ने कहा, ‘जब तक विलय पत्र पर हस्ताक्षर नहीं होते, सेना नहीं जाएगी’. अंततः २५ अक्तूबर को विलय पत्र पर हस्ताक्षर हुए (श्री गुरुजी और महाराजा की भेंट के ठीक एक सप्ताह के बाद) और २६ अक्तूबर से भारतीय सेना हवाई रास्ते से श्रीनगर पहुंचने लगी. लेकिन तब तक पाकिस्तानी सेनाओं ने कोटली, मीरपुर, मुजफ्फराबाद जैसे क्षेत्र हथिया लिये थे.
इसी बीच, पाकिस्तानी सेना के आक्रमण का समाचार मिलते ही ‘गिलगिट स्काऊट’ के मुस्लिम जवानों ने, सूबेदार मेजर बाबर और मेजर डब्ल्यू.. ए. ब्राऊन के नेतृत्व में ‘गिलगिट एजेन्सी’ के गवर्नर ब्रिगेडियर घंसारा का बंगला घेर लिया और उन्हें बंदी बना लिया. ब्रिगेडियर घंसारा के साथ जो थोड़े डोगरा हिन्दू जवान थे, सभी को मौत के घाट उतारा गया..!
१ अगस्त, १९४७ को अंग्रेजी चंगुल से मुक्त हुआ गिलगिट – बाल्टिस्तान, ३१ अक्तूबर, १९४७ को पाकिस्तानी फौजों के अधीन, पुन्हा गुलाम बन गया. भारतीय सेना ने आधे – अधूरे संसाधनों के बावजूद भी पाकिस्तानी सेना को न केवल रोक रखा था, वरन् पाकिस्तानी सेना पीछे हटने लगी थी. भारतीय सेना के अधिकारी नेहरू को आश्वस्त कर रहे थे कि अगले सात या आठ दिनों में हम कश्मीर को पाकिस्तान से मुक्त करा देंगे. किंतु नेहरू ने यह माना नहीं और कश्मीर का मामला यूएनओ में ले गए. तब से लेकर अब तक, कश्मीर की यह समस्या हमारे देश के लिए नासूर बनी है..!
(क्रमशः)