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मा. गो. वैद्य – निष्पक्ष संपादक, बेबाक टिप्पणीकार और उसूलों पर चलने वाले कार्यकर्ता !

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दिलीप धारुरकर

“हमारी विरोधी विचारधारा के आंदोलनों के समाचार हमें छापने ही चाहिए. हमारी विचारधारा, संपादकीय पृष्ठ पर, अग्रलेख या संपादकीय लेखों के माध्यम से रखिए.” ऐसी व्यवस्था बनाने वाले और कड़ाई से उसका पालन करवाने वाले संपादक, “मेरे लेखों पर किसी ने कोई विपरीत प्रतिक्रिया दी हैं, या टिकाटिप्पणी की है, या मुझे गालियां दी हैं, तो उसे बेहिचक छापिए…” ऐसा अपने संपादकीय सहयोगियों को बताने वाले सहिष्णु चिंतक, पाठक जिनके लेखन की, विश्लेषण की प्रतीक्षा करते थे, ऐसे बेबाक टिप्पणीकार, मूल्यों पर आधारित जीवन क्या होता है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण सामने रखने वाले, उसूलों पर चलने वाले कार्यकर्ता, विचारोत्तेजक वक्ता, व्यक्तिगत जीवन में अत्यंत संवेदनशील और स्नेहपूर्ण व्यवहार करने वाले… ऐसे अनेक गुणों से परिपूर्ण ऋषितुल्य व्यक्तिमत्व अर्थात मा. गो. उपाख्य बाबुराव वैद्य! ‘मैं तो सौ वर्ष जीउंगा’ ऐसा दृढ़ विश्वास व्यक्त करने वाले बाबुराव जी वैद्य को काल ने ९८वें वर्ष में ही हमसे छीन लिया. उनका और मेरा, लगभग चालीस वर्षों से, विविध कारणों से अत्यंत निकट का संबंध था. उनकी अनेक स्मृतियां मन में उभर रही हैं.

जब मैं ‘तरुण भारत’ का संपादक था, तब एक बैठक के लिए नागपुर गया था. वहां, बाबुराव जी का समय लेकर, उनसे मिलने उनके घर गया. साथ में एक संपादक भी थे. जाते समय संपादक मुझसे बोले, “मेरी अनुपस्थिति में, बाबुराव जी के लेख का एक वाक्य हमारे लोगों ने हटाया है. अब इस सप्ताह उन्होंने लेख नहीं भेजा है. देखते हैं, क्या कहते हैं.”

हम उनके घर गए. उन्होंने हमारा स्वागत किया. गपशप प्रारंभ हुई. मेरे साथ आए संपादक महोदय ने जरा डरते डरते पूछा, “बाबुराव जी, आपने इस सप्ताह का लेख नहीं भेजा है.”

इस प्रश्न पर बाबुराव जी का उत्तर, मेरे स्मृतिपटल पर हमेशा के लिए अंकित हो गया है.

उन्होंने कहा, “पिछले सप्ताह के मेरे लेख को, आपकी अनुपस्थिति में, आपके लोगों ने संपादित किया. जैसा संपादन करना आपका अधिकार हैं, वैसे ही ‘नहीं लिखना’, यह मेरा अधिकार हैं, जो मैंने जताया. अब धारुरकर जी को चाहिए होगा, तो उनके समाचार पत्र के लिए मैं लिखूंगा. लेकिन आपके लिए नहीं लिखूंगा.”

‘अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य’ यह शब्द मैंने हजारों बार सुना था. किन्तु उस संकल्पना की व्याख्या मैं प्रत्यक्ष सामने अनुभव कर रहा था.

मेरे समाचार पत्र के लिए बाबुराव जी के लेख आने लगे. दो सप्ताह बाद ही आए एक लेख में मुझे एक वाक्य जरा ठीक नहीं लगा. अभी दो सप्ताह पहले का प्रसंग मन मस्तिष्क पर ताजा था. वह वाक्य निकालने की हिम्मत नहीं हो रही थी. थोड़ा विचार किया और सीधे बाबुराव जी को ही फोन लगाया.

उनको कहा, “बाबुराव जी, इस हफ्ते का आपका लेख मुझे मिला है. मेरे सामने ही है. किन्तु उसमें ये जो वाक्य है, ये मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा है. इसमें आप ने जो लिखा है, वह व्यक्तिगत विषय लगता है. पाठकों तक उस विषय को लेकर जाने का औचित्य नहीं दिख रहा है.”

तत्काल बाबुराव जी ने कहा, “आप कह रहे हैं, वह ठीक है. उस वाक्य को हटाइए.”

एक मजबूत पहाड़, परिस्थिति को समझते हुए, मेरे जैसे अकिंचन, छोटे से व्यक्ति की बात मान कर कैसे पिघलता है, यह अनुभव बहुत कुछ सिखाने वाला था.

बाबुराव जी रा. स्व. संघ का चलता फिरता इतिहास थे. डॉ. हेडगेवार जी से लेकर तो डॉ. मोहन जी भागवत तक, सभी सरसंघचालकों के साथ उन्होंने निकटता से काम किया था. सभी सरसंघचालकों के परिवर्तन के वे साक्षी थे. संघ ने प्रवक्ता पद का सृजन किया, तब वह संघ के पहले प्रवक्ता थे. ‘विचारों की स्पष्टता और विचारों के अनुसार कठोर आचरण’ यह स्वीकार किए मूल्य थे. उन्होंने हिमालय की ऊंचाई को छुआ था, किन्तु मानवता और मानवी संबंधों को लेकर उनका रिश्ता जमीन से जुड़ा हुआ था.

मैं एक बार नागपुर से ‘नवेगांव बांध’ प्रकृतिक सौन्दर्य से भरपूर स्थान पर जा रहा था. नागपुर में पता किया, तो जानकारी मिली थी कि बाबुराव जी ‘लाखनी’ गांव में अपने बिटिया के घर गए हुए हैं. मेरे रास्ते पर लाखनी गांव था. वापसी में मैंने, लाखनी के पास पहुंचने पर उन्हें फोन किया. उन्होंने कहा, “मैं लाखनी में ही हूं. घर पर आइये.”

घर का पता बताया और कैसे आना यह भी बताया. उसके अनुसार ढूंढते हुए हम मुख्य रास्ते से अंदर की ओर मुड़े. मैं ड्राईवर को, ‘डॉ. राजहंस जी का घर पूछो’, ऐसा बोल ही रहा था, कि दूर रास्ते पर प्रत्यक्ष बाबुराव जी खड़े दिखे. उनके पास जाकर गाड़ी रोकी. वहां से घर अंदर के रास्ते पर काफी दूर था. मुझे संकोच हुआ. मैंने कहा, “बाबुराव जी, आप क्यूँ इतने दूर आए. हम लोग पहुंच जाते.”

“आप लोगों को घर ढूंढने में समय ना गवाना पड़े, इसलिए मैं आया.”

९५ वर्ष के भीष्म पितामह, मेरे जैसे एक बिलकुल जूनियर व्यक्ति को, ‘घर ढूंढने में कष्ट नहीं होना चाहिए’ इसलिए पैदल चलकर, इतने दूर आकर रास्ते में हमारी प्रतीक्षा करते खड़े रहते हैं. अहम के बुर्ज खड़े करके, उनकी नकली और झूठी ऊंचाई दिखाने के जमाने में, बाबुराव जी की ऊंचाई आसमान से भी ऊंची थी, यह मुझे अंदर से अनुभव हुआ.

बाबुराव जी जितने गंभीर विश्लेषक थे, कर्मठ कार्यकर्ता थे, उतने ही वे मज़ाकिया स्वभाव के और ममतामयी हृदय के थे. एक बार उनके घर पर बैठा था. वहां कुछ लोग उन्हें एक कार्यक्रम में बुलाने के लिए आए. वो चार – पांच लोग थे. बाबुराव जी ने मेरा परिचय उन से करवाया और पूछा, “चाय लेंगे ?”

उनमें से एक कार्यकर्ता जरा ढीठ था. उसने कहा, “नहीं, अभी तो भोजन करके ही हम आ रहे हैं.”

बाबुराव जी ने अपनी परिहास भरी शैली में कहा, “भोजन के पहले और भोजन के बाद भी चाय चलती है. नाम के लिए क्यों न हो, लेकिन मैं वैद्य हूं, इसलिए बताता हूं.”

वैद्य इस नाम पर ये ‘मज़ाक’ समझ में आने पर, हंसी के ठहाके लगे और चाय के लिए स्वीकृति भी मिली. बाद में चाय भी आई.

नागपुर में मैं ‘सूचना आयुक्त’ था, तब तक मेरे प्रत्येक प्रवास में, तीर्थस्थल का दर्शन लेने के भक्तिभाव से, मैं उनको मिलने के लिए जाता था. हर बार गपशप, हंसी – मज़ाक, कुछ खाना पीना होने के बाद, जब मैं जाने के लिए खड़ा होता, तो वे धीरे से इशारे से, अलमारी में उनकी लिखी पुस्तकों में से एक पुस्तक निकालने को कहते थे. उस पुस्तक को स्वतः अपने हाथ में लेकर, पुस्तक के पहले पृष्ठ पर लिखते थे, ‘मित्रवर्य धारुरकर यांना सप्रेम भेट’ और फिर हस्ताक्षर करके पुस्तक मेरे हाथ में देते थे. एकबा र मैंने पूछा, “बाबुराव जी, मैं सभी अर्थों में आपसे छोटा हूं. तो आप ‘मित्रवर्य’ ऐसा क्यूं लिखते हैं?” तो उन्होंने कहा, “आप मित्र ही हो. जो हैं, वही लिखा है.”

मैं जब नागपुर में था, तो एक बार रात को दस बजे रविभवन में मुझे कुछ ठीक नहीं लगा. अस्वस्थ सा लग रहा था. मेरे मित्र और ‘तरुण भारत’ के संपादक गजानन निमदेव को मैंने फोन किया. वे तुरंत आए. मुझे डॉ. ऋषिकेश उमालकर के यहां लेकर गए. उन्होंने मुझे एड्मिट किया. अगले दो दिन शनिवार – रविवार थे. शनिवार को पत्नी और बिटिया, दोनों आए. आराम तो लग रहा था. पर ‘एक दिन और निगरानी में रहो और सोमवार की सुबह औरंगाबाद चले जाना’, ऐसा डॉक्टर ने कहा. रविवार प्रातः मुझे पहली मंजिल के कक्ष में स्थानांतरित किया. दोपहर को मैं थोड़ा आराम कर रहा था, तभी दरवाजे पर खटखट हुई. पत्नी ने दरवाजा खोला, तो दरवाजे पर बाबुराव वैद्य. पीछे खड़े थे, तरुण भारत के वरिष्ठ पत्रकार और बाबुराव जी के सुपुत्र श्रीनिवास वैद्य. मैं लगभग चिल्लाया, “बाबुराव जी, आप यहां, इस ऊपर के मंजिल पर कैसे आए…?”

बाबुराव जी ने बड़े शांति और दृढ़ता के साथ कहा, “क्यों ? मित्र बीमार है, तो उसे मिलने के लिए नहीं आना क्या ?”

मैं चकित हुआ था और इस प्रेम से अभिभूत भी..!

उन्होंने कहा, “मुझे श्रीनिवास से जानकारी मिली. मैं सुबह ही आने वाला था. पर सुबह से टीवी चैनल वाले लोग, एक के पीछे एक, प्रतिक्रिया लेने आ रहे थे. अभी भी एक चैनल के लोग आए थे. उनको मैंने कहा, मेरे एक मित्र अस्पताल में भर्ती हैं. मैं उन्हें मिलने के लिए जा रहा हूं. उनसे भेंट होने के बाद, प्रतिक्रिया देता हूं. ओ.बी. वेन अस्पताल के सामने ही खड़ी हैं.”

मात्र वैचारिक बंधन से बंधे इस रिश्ते में, इतने बड़े व्यक्तित्व का ऐसा प्रेम और अपनापन जहां मिलता है, वहां अपने आप को निछावर करने की प्रेरणा मिलती है..!

सूचना आयुक्त के नाते मैंने नागपुर में पदभार ग्रहण किया. मैंने बाबुराव जी को फोन किया. उनसे मिलने गया. घर पहुंचने पर मैंने उनको नमस्कार करते ही साथ, उन्होंने चाची को इशारा किया. वे अंदर से एक थाली में शाल, श्रीफल, हल्दी, कुमकुम लेकर आई. मेरा सत्कार किया. बैठ कर गपशप हुई. काम के बारे में पूछताछ की. ड्रायफ्रूट्स खाने को दिये. मैं जाने को निकला, तो मेरे साथ चप्पल पहन कर बाबुराव जी भी चलने को निकले. मैंने उनको रोका और कहा, “बाबुराव जी, मैं आपके बेटे जैसा हूं. मुझे छोड़ने के लिए क्यों आते हैं आप?”

उन्होंने कहा, “मैं आपको छोड़ने के लिए नहीं आ रहा हूं. हमारे धारुरकर लाल बत्ती की गाड़ी में बैठे हुए मुझे देखना है.”

सूचना आयुक्त के नाते मेरी नियुक्ति होने के बाद ‘यह क्षण देखने के लिए पिता जी होते तो कितना अच्छा रहता’ ऐसा विचार मेरे मन में अनेकों बार आया था. बाबुराव जी का यह वाक्य सुनकर, यह कमी पूरी हुई ऐसा लगा था. आज फिर से अनाथ होने की अनुभूति हो रही है. किन्तु बाबुराव वैद्य जैसे ममता का वर्षाव करने वाले अनेक व्यक्ति बाबुराव जी की संस्कारी तालिम से ही तैयार हुए हैं.

चिरंतन विचार, बेबाक विश्लेषण, मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता, संगठन को समर्पित हृदय, विचारों को प्रत्यक्ष धरातल पर उतारकर जीने के अनुभव, अनेक पुस्तक, अनेक संवेदनशील प्रसंग यह अनमोल धरोहर बाबुराव जी ने हमारे लिए रख छोड़ी है और उसी के साथ करने जैसा बहुत कुछ दिया है, जिसे विस्मृति में डालना संभव ही नहीं है..!

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