जयराम शुक्ल
हैसियत का मतलब औकात नहीं होता. प्रशांत भूषण की हैसियत अरबों रुपयों की है, पर ……? सर्वोच्च न्यायालय ने बस इतने का ही आंकलन किया है.
किस्सा मशहूर है कि रीवा के महाराजा ने जबलपुर के राजा गोकुल दास को दो कौड़ी का सेठ बना दिया. दो कौड़ी के सेठ बनाने का मतलब यह नहीं कि उनकी सारी मिल्कियत छीन ली. मतलब यह कि महाराजा ने गोकुलदास की औकात बता दी, दो कौड़ी का जुर्माना करके.
मिल्कियत से हैसियत तय होती है और शख्सियत से आपकी औकात. यह फर्क लगभग वैसे ही है, जैसे कि मूल्य और कीमत. मूल्य गुणवत्ता का मापक है और कीमत दाम का. लेकिन अब सब गड्डमगड्ड है. अब जैसे वस्तुओं का मूल्य होता है और आदमी की कीमत. फलां ने बड़ी मूल्यवान वस्तु खरीदी, वहीं दूसरी ओर ढेका पार्टी ने दूसरे दल से करोड़ों के दाम में विधायक खरीदे.
पहले मेले में ढोर-डंगर खरीदे जाते थे. अच्छे नस्ल के घोड़ों की ऊँची बोली लगती थी. अब विधायकों की लगती है. सो इसीलिए राजनीति के व्यापार में ‘हार्स ट्रेडिंग’ शब्द का चलन निकल पड़ा है. तो जैसे मूल्य और कीमत में महीन पारदर्शी फर्क बचा है, वैसे ही औकात और हैसियत में है.
तो कॉरपोरेट के सबसे महंगे वकील प्रशांत भूषण की औकात को सुप्रीम कोर्ट ने एक रूपए में आंका. यह एक रुपया समय व परिस्थिति के अनुरूप गुणानुवर्ती भी होता है. जैसे हरीश साल्वे साहब ने यूनाइटेड नेशन की कोर्ट में भारतीय कुलभूषण जाधव का मुकदमा एक रुपए की फीस पर लड़ा. यहां एक रूपए का मूल्य बड़ी से बड़ी हैसियत वाले राष्ट्रों पर भारी पड़ता है. साल्वे की फीस का एक रुपया पाकिस्तान के खजाने में जमा सारी मिल्कियत से मूल्यवान है.
प्रशांत भूषण और हरीश साल्वे एक ही वृत्ति के दो किनारे हैं. एक मूल्यों की अधोगामिता का तो दूजा उर्ध्वगामिता का. एक जब चाहे तब देश व लोकतांत्रिक संस्थाओं के खिलाफ लड़ता है तो दूसरा अपना महंगा वक्त राष्ट्र की पैरवी के लिए हवन करता है.
हम लोग उम्मीद बांधे बैठे थे कि इंदिरा गांधी को इलाहाबाद हाईकोर्ट में पटकनी देने वाले शांतिभूषण का बहादुर सपूत जुर्माना की बजाय जेल चुनेगा और अपनी उस कथित लड़ाई को और धारदार बनाएगा… लेकिन पूरी बहादुरी वैसे ही लुप्त हो गई जैसे उस किस्से के एक पात्र की जो ‘जूता खाने की बजाय प्याज खाने का विकल्प चुनता है, और अंततः जूते भी खाता है और प्याज भी’.
तीन महीने की सजा और तीन साल की वकालत पर प्रतिबंध के मुकाबले एक रुपये का जुर्माना चुनौती भरे हाइवे के मुकाबले पतली गली चुनने जैसा है. डरपोक और सुविधानुसार जिंदगी जीने वालों को पतली गली ही भाती है.
प्रशांत भूषण को उसी सर्वोच्च न्यायालय ने यह सजा सुनाई, जिसकी उदात्तता की वजह से वे चर्चित प्रशांतभूषण बने. आपने शायद ही कभी सुना हो कि भूषण साहब ने शाहबानो या निर्भया जैसी गरीब व मजलूमों की लड़ाई कभी किसी कोर्ट में लड़ी हो. साधारण आदमी की तो इनके चैंबर तक पहुंच ही नहीं. हाँ, यह जरूर सुना होगा कि प्रशांत जी..कोयला, स्पैक्ट्रम व अन्य मामलों में जरूर खड़े दिखते हैं जो धनिकों और कॉरपोरेट से जुड़ा होता है.
पिता-पुत्र भूषणों की एक मामले में बड़ी महारत है और वह है..दो कॉरपोरेट घरानों की लड़ाई में इंटरवीनर बनना. इंटरविनर का मतलब कोई तीसरा हस्तक्षेपकर्ता. आप पता लगाएं सुप्रीम कोर्ट के प्रायः उन मुकदमों में जहां दो औद्योगिक घराने, या सरकार और कॉरपोरेट के बीच कोई मुकदमा चलता है तो प्रशांत भूषण चुपके से इंटरवीनर बनकर घुस जाते हैं. पूरी वकालत ही जब मीडिया के प्रचार पर टिकी हो तो फिर मीडिया के लिए तो ये लंचोपरांत जर्दा-पान-मसाला के जायके की तरह हैं.
जनहित याचिका लगाने के भी ये महारथी हैं. इनकी याचिकाओं में जनहित का तत्व कितना रहता है, यह ….याकूब मेमन, कसाब और अफजल गुरू की फाँसी टालने वाले इनके अभियानों से समझ सकते हैं. वकालत के पेशे में पॉजिटिव से ज्यादा निगेटिव वैल्यू मायने रखती है. सो इसी वैल्यू को बनाए रखने के लिए प्रशांत भूषण हर उस जगह मिल जाएंगे, जिसे देशहित में नहीं माना जाता..भले ही संविधान और कानून में उस पर बहस करने की उदात्त व्यवस्था हो.
उधर जब जम्मू-कश्मीर से 370 उठाने की तैयारी चल रही थी तो इधर प्रशांत जी पाकिस्तान की मंशा व माँग के अनुरूप वहां जनमत संग्रह कराने की धुन पकड़े हुए थे. क्या कभी आपने सुना कि इन्होंने कश्मीर के दमित-पीड़ित व निर्वासित हिन्दुओं के लिए कभी कोई आवाज उठाई. नहीं न, लेकिन ये शाहीनबाग जमावड़े के स्वयंभू कानूनी सलाहकार बिना-बुलाए ही बन बैठे.
अरविंद केजरीवाल ने इनकी इसी फितरत को सबसे पहले जाना और.पार्टी से निकाल बाहर किया. आखिर दो कंबलों में गांठ बैठ भी कैसे सकती है.
इस पर कोई दो राय नहीं कि प्रशांत भूषण एक विशेष वैचारिक वर्ग की आँखों के तारे हैं. वह वर्ग एक रूपये के जुर्माने की व्याख्या अपने हिसाब से कर रहा है. तीन महीने की जेल व वकालत पर पाबंदी के विकल्प पर चुप है.
लोकतांत्रिक संस्थाओं के हमलावरों को ‘एक रुपये’ का जुर्माना उनकी औकात को हर वक्त याद दिलाता रहेगा, भले ही वह कितनी बड़ी हैसियत वाले क्यों न हों…
(नोट – लेखक के निजी विचार हैं)