प्रणय कुमार
लोकतांत्रिक मूल्यों को धत्ता बताते हुए सरकार का विरोध करते-करते कुछ लोग (राजनीतिक दल) देशविरोधी, समाज विघातक तत्वों के हाथों में खेलने लगते हैं. वे षड्यंत्रो को समझ नहीं पाते और जब तक समझते हैं तो काफी देर हो जाती है.
पहले जेएनयू-जामिया-एएमयू के विद्यार्थियों को उकसाकर, फिर शाहीनबाग में चल रहे धरने-प्रदर्शन को हवा देकर, फिर हाथरस में हुई कथित दलित उत्पीड़न की घटना को विश्व-पटल पर उछालकर और अब किसान-आंदोलन के नाम पर विपक्षी पार्टियों ने येन-केन-प्रकारेण दिल्ली की सत्ता को पाने की तीव्र लालसा एवं अंधी महत्त्वाकांक्षा को प्रकट करने में रंच मात्र भी संकोच नहीं दिखाया है. न ही न्यूनतम नैतिकता का परिचय दिया है. किसानों की आड़ लेकर चली जा रही चालों को लेकर प्रतिदिन खुलासे हो रहे हैं.
साजिश, षड्यंत्र, मंशा को इससे समझा जा सकता है कि बारह दौर की वार्त्ता, निरंतर किसानों से संपर्क और संवाद साधे रखने के प्रयास, उनकी हर उचित-अनुचित मांगों को मानने की पेशकश, यहां तक कि कृषि-क़ानून को अगले डेढ़ वर्ष तक स्थगित रखने के प्रस्ताव, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मध्यस्थता के बावजूद गतिरोध ज्यों-का-त्यों बना हुआ है. सरकार बार-बार कह रही है कि वह किसानों से महज़ एक कॉल की दूरी पर है. बातचीत के लिए सदैव तैयार एवं तत्पर है, फिर भी किसान-नेता आंदोलन पर अड़े हुए हैं? सवाल यह है कि किसानों-मज़दूरों-विद्यार्थियों-दलितों आदि के नाम पर चलाए जा रहे इन आंदोलनों के पीछे मंशा क्या है?
26 जनवरी को आंदोलन के नाम पर इन कथित किसानों ने जो किया उसके बाद तो यह तय हो गया कि उनकी नीयत में ही खोट है. जिस प्रकार उन्होंने लाल किले को निशाना बनाया, तिरंगे को अपमानित किया, पुलिस-प्रशासन पर हिंसक हमले किए, बच्चों-महिलाओं आम लोगों तक को नहीं बख़्शा, जैसे नारों-झंडों-भाषाओं का इस्तेमाल किया, जिस प्रकार वे लाठी-डंडे-फरसे-तलवार-बंदूकों से लैस होकर सड़कों पर उग्र प्रदर्शन करते दिखाई दिए – वे सभी स्तब्ध एवं व्यथित करने वाले हैं. बल्कि किसी के लिए यह विश्वास करना कठिन है कि ये किसान हैं? यहां तक कि दिशानिर्देशों एवं ट्रैक्टर-रैली निकालने से पूर्व पुलिस से किए वायदों की भी खुलेआम धज्जियाँ उड़ाईं. उन्होंने यह सब करने के लिए जो दिन चुना, वह भी अपने भीतर गहरे निहितार्थों को समाविष्ट किए हुए है. देश जानना चाहता है कि गणतंत्र-दिवस का ही दिन क्यों? कथित किसानों के परेड की ज़ुनूनी ज़िद क्यों? लालकिला पर हिंसक हमला क्यों? उस लालकिले पर जो देश के गौरव एवं स्वाभिमान, संस्कृति एवं विरासत का जीवंत प्रतीक का अपमान क्यों?
लालकिले पर 26 जनवरी, राष्ट्रीय पर्व पर जैसा उत्पात मचाया है, उससे लोकतंत्र शर्मसार हुआ है. उससे पूरी दुनिया में हमारी छवि धूमिल हुई है. उससे भी अधिक विस्मयकारी यह है कि अभी भी कुछ नेता, तथाकथित बुद्धिजीवी इस हिंसक आंदोलन को जन-आंदोलन की संज्ञा देकर महिमामंडित करने की कुचेष्टा कर रहे हैं.
अपनी मांगों को लेकर अहिंसक एवं शांतिपूर्ण प्रदर्शन या आंदोलन आंदोलनकारियों का लोकतांत्रिक अधिकार है. और लोकतंत्र में इसके लिए सदैव स्थान रहता है. यह सरकार और जनता के बीच उत्पन्न गतिरोध एवं संवादहीनता को दूर करने में प्रकारांतर से सहायक भी है. पर बीते कुछ वर्षों से यह देखने को मिल रहा है कि चाहे वह जे.एन.यू-जामिया-एएमयू में चलाया गया विद्यार्थियों का आंदोलन हो, चाहे नागरिकता संशोधन विधेयक के नाम पर शाहीनबाग में मुसलमानों का; चाहे दलितों-पिछड़ों के नाम चलाया गया आंदोलन हो या वर्तमान में कृषि-बिल के विरोध के नाम पर; ये सभी आंदोलन अपनी मूल प्रकृति में ही हिंसक और अराजक हैं. अपनी माँगों को लेकर देश की राजधानी एवं क़ानून-व्यवस्था को अपहृत कर लेना या बंधक बना लेना, हिंसक एवं अराजक प्रदर्शनों द्वारा चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार पर परोक्ष-प्रत्यक्ष दबाव बनाना, सरकारी एवं सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुँचाना, आने-जाने के मुख्य मार्गों को बाधित एवं अवरुद्ध करना, निजी एवं सरकारी वाहनों में तोड़-फोड़ करना, घरों-दुकानों-बाज़ारों में लूट-खसोट, आगजनी करना, राष्ट्रीय प्रतीकों एवं राष्ट्रध्वज का अपमान करना, मार-पीट, ख़ून-खराबे आदि को अंजाम देना- इनके लिए आम बात है. ऐसी हिंसक, अराजक एवं स्वेच्छाचारी प्रवृत्तियाँ किसी भी सभ्य समाज या लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए मान्य एवं स्वीकार्य नहीं होतीं, न हो सकतीं. इन सबसे जान-माल की भारी क्षति और रोज़मर्रा की ज़िंदगी तो बाधित होती ही होती है. आम नागरिकों के परिश्रम और कर से अर्जित करोड़ों-करोड़ों रुपए भी व्यर्थ नष्ट होते हैं, घात लगाकर बैठे देश के दुश्मनों को खुलकर खेलने और कुटिल चालें चलने का मौक़ा मिल जाता है.
सरकार और विपक्ष दोनों की जिम्मेदारी बनती है कि वह उन नागरिकों को समुचित प्रश्रय एवं प्रोत्साहन दे जो राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखते हुए ईमानदार करदाता एवं अनुशासित नागरिक के रूप में अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करते हैं. भिन्न-भिन्न प्रकार के आंदोलन या विरोध का नेतृत्व करने वाले नेताओं या समूहों की भी यह नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने भीतर के अराजक एवं उपद्रवी तत्त्वों की पहचान कर उन्हें बाहर का रास्ता दिखाएँ. संसदीय प्रक्रियाओं को खुलेआम चुनौती देने, संस्थाओं को धूमिल, ध्वस्त एवं अपहृत करने तथा क़ानून-व्यवस्था को बंधक बनाने की निरंतर बढ़ती प्रवृत्ति देश एवं लोकतंत्र के लिए घातक है. इन पर अविलंब अंकुश लगाना समय और सुव्यवस्था की माँग है. कदाचित एक भी सच्चा भारतवंशी नहीं चाहेगा कि दुनिया उसके महान एवं प्राणप्रिय भारतवर्ष की पहचान एक अराजक एवं स्वेच्छाचारी राष्ट्र-समाज के रूप में करे.