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समाज को सही दिशा में ले जाने किये हमें भारत से जुड़ी कहानियां दिखानी होंगीं

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जिस समाज की हम परिकल्पना करते हैं, उसके बीज सिनेमा द्वारा बोए जा सकते हैं

विश्व संवाद केंद्र भारत तथा भारतीय चित्र साधना द्वारा रविवार 30 अगस्त को समाज प्रबोधन में भारतीय सिनेमा की भूमिका पर ऑनलाइन परिसंवाद का आयोजन किया गया. परिसंवाद का विषय था – क्या सिनेमा सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन एवं प्रबोधन का माध्यम बन सकता है?

परिचर्चा में निर्देशक एवं लेखक संजय पूरण सिंह, लेख चारुदत्ता आचार्य, प्रोड्यूसर व ज़ी न्यूज रिपोर्टर क्षमा त्रिपाठी उपस्थित रहीं. परिचर्चा का संचालन माखन लाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक डॉ. राकेश योगी ने किया.

परिसंवाद का आरंभ राकेश योगी ने सिनेमा तथा उसके सामाजिक प्रभावों संबंधी प्रश्न से किया. जिस पर संजय पूरण सिंह ने कहा कि सिनेमा, साहित्य और आदर्शों को दर्शाने का बहुत ही प्रभावकारी माध्यम है, अपनी फिल्म लाहौर का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि इस फिल्म में खेल के माध्यम से सद्भावना का संदेश दिया. आवश्यक नहीं है कि जो फिल्में अधिक कमाई करती हैं, वे अच्छी ही हों. बड़े सितारों की उपस्थिति, या मनोरंजक होने के कारण अच्छा पैसा कमाती हैं, लेकिन उन्हें अच्छी फिल्म की श्रेणी में नहीं रख सकते. ठीक उसी प्रकार अधिक कमाई ना करने वाली फिल्में भी अपने कन्टेंट और विषय के कारण अच्छी हो सकती हैं.

जिस समाज की हम परिकल्पना करते हैं, उसके बीज सिनेमा द्वारा बोए जा सकते हैं. अगर समाज को सही दिशा में ले जाना है तो हमें हमारे नायकों की, भारत से जुड़ी कहानियों को लोगों को दिखाना पड़ेगा. आज का सिनेमा पुराने दौर का सिनेमा नहीं रहा है, आजकल प्रोपेगेंडा दिखाया जाता है. जैसे अमेरिका अपनी आर्मी को हर फिल्म में सशक्त दिखाता है. जिससे वह खुद को शक्तिशाली होने का गर्व महसूस करवाता है. हमारा साहित्य कॉपी होकर हॉलीवुड की फिल्मों में दिखाया जा रहा है. आज अगर कोई फिल्म ज्यादा पैसा कमा लेती है तो उसे बहुत ही कामयाब फिल्म कहा जाता है, जबकि उसके सामने अगर अच्छी कहानी वाली फिल्म कम पैसा कमाती है तो उसे बेकार कहा जाता है. हमारी मिट्टी में बहुत सी शौर्य गाथाएं पड़ी हैं और हमें अपने असली वीरों पर फिल्म बनानी चाहिए, जिसका हमारे पास अथाह भंडार है.

लोग पाश्चात्य सभ्यता की नकल कर उसे फिल्मों में दिखाना अधिक पसंद करते हैं. जबकि यदि हम ही अपनी संस्कृति के विषय में खुलकर बात नहीं करेंगे तो उसपर निरंतर प्रहार होते रहेंगे तथा विश्व के समक्ष हमारी छवि निम्न स्तरीय होती रहेगी. उन्होंने कहा कि फिल्म जगत में एक वर्ग है जो अपने एजेंडा को केन्द्रित करके काम करता है. उन्होंने बताया कि किस प्रकार एक विशेष समुदाय की भावनाओं के आहत होने का हवाला देते हुए उनकी एक फिल्म को पुरस्कार की श्रेणी से अंतिम समय में बाहर कर दिया गया.

चारु दत्त आचार्य ने चर्चा करते हुए कहा कि आज के सिनेमा का नाम ऑनलाइन कंटेंट हो चुका है. आज सिनमा लग्जरी आइटम हो गया है. जब टेलीविजन, ओटीटी मंच की सुविधाएं नहीं होती थीं, तब सामाजिक विषयों पर फिल्में बनाई जाती थीं. किन्तु वर्तमान में युवा पीढ़ी ओटीटी मंच तथा ऑनलाइन मनोरंजन के साधनों से अधिक प्रभावित है. जहां कोई मानक अथवा विनियम निश्चित न होने के कारण देशविरोधी एजेंडा अधिक देखने को मिला है. जबकि ऑनलाइन सिनेमा का दायित्व यह होना चाहिए कि समाज के बिंदुओं को दर्शाए, जिन पर चिंतन की आवश्यकता है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि एक विशेष समुदाय इसके नाम पर कुछ भी दिखा सकते हैं, किन्तु यदि हिंदुत्व तथा राष्ट्रीयता को दर्शाने  प्रयास किया जाता है तो उन्हें यह पसंद नहीं आता. ये ऐसे लोग होते हैं, जिनमें स्वयं सहिष्णुता की भारी कमी होती है, किन्तु दूसरों पर असहिष्णु होने का आरोप लगाते हैं.  आज के समय में जागरूकता होने के कारण ऐसे विषयों पर चर्चा परिचर्चा करना संभव हो पाया है, अन्यथा कुछ समय पहले तक ऐसी चर्चा करने का अर्थ अपनी आजीविका को संकट में डालने के समान होता था.

साहित्य का हमारे पास खजाना है, जिसमें दूरदर्शन ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है. दूरदर्शन ने हमें बहुत ही अच्छा सिनेमा दिखाया है. आज सरकार को दूरदर्शन को पुनः उसी रूप में स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए. आज ऑनलाइन कंटेंट में कोई सेंसरशिप नहीं है. फिल्म और सीरीज बनाने वाले आज हर कुछ सामग्री लोगों को परोस रहे हैं, पर उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि यह सब कुछ समय तक चलता है. अंत में लोग कहानी ही ढूंढते हैं.

क्षमा त्रिपाठी ने कहा कि कोरोना संकट के समय जब बाहर सब बंद है तो ऐसे में ऑनलाइन प्लेटफॉर्म ही लोगों के मनोरंजन का साधन सिद्ध हो रहे हैं, जो दर्शाता है कि लोग सिनेमा से दूर नहीं रह सकते. दिल बेचारा और सड़क 2 का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि दर्शक खुलकर अपनी पसंद को बता रहे हैं, पहले की भांति अब जो बनता है, वही दर्शक नहीं देखते. फिल्मी जगत में कुछ लोगों का वर्चस्व स्थापित है जो अपने विशेष एजेंडा तथा विचारधारा को ध्यान में रखकर कार्य करते हैं. हिन्दू विरोधी चीजों को दिखाकर एक खास वर्ग को केंद्र में रखा जा रहा है, किन्तु जब तान्हा जी तथा मणिकर्णिका जैसी फिल्में बनाई जाती हैं तो लोगों को पसंद नहीं आती हैं. अपनी संस्कृति का त्याग करके दूसरों की नकल करना चलन सा बनता जा रहा है. आज अगर कोई भारतीयता, भारत की कहानी से संबंधित फिल्म बनाता है तो उसके विपरीत उसी दिन किसी बड़े स्टार की फिल्म को लॉन्च करके उस फिल्म की गरिमा को ठेस पहुंचाई जाती है. यह ट्रेंड सा बन चुका है. इस विचारधारा से हमें अपना खोया हुआ वर्चस्व वापिस लेना है.

परिसंवाद का समापन करते हुए डॉ. राकेश योगी ने कहा कि हमारा इतिहास और साहित्य गौरव व शौर्य गाथाओं से परिपूर्ण है. आवश्यकता है तो मात्र उसे पहचानने की, जिससे हम स्वयं भी गौरवान्वित हो सकें तथा विश्व को भी अपनी समृद्ध सभ्यता की जानकारी दे सकें.

 

 

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