धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले जम्मू कश्मीर में 1990 का दशक प्रदेश के लिए एक काले धब्बे से कम नहीं था. धर्म के नाम पर खूनी खेल खेला गया. इस्लामिक कट्टरपंथियों ने घाटी में कश्मीरी हिन्दुओं को चुन-चुन कर अपना निशाना बनाया. उन दिनों कश्मीर की मस्जिदों से रोज अज़ान के साथ-साथ कुछ और नारे भी गूंजते थे – ”यहां क्या चलेगा, निजाम-ए-मुस्तफा’, ‘कश्मीर में अगर रहना है, अल्लाहू अकबर कहना है” और ‘असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान’ मतलब हमें पाकिस्तान चाहिए और हिन्दू औरतें भी, मगर अपने मर्दों के बिना.
कश्मीरी हिन्दुओं को काफिर बताकर उन्हें घाटी छोड़ने के लिए मजबूर किया जाता रहा और अगर कोई ऐसा नहीं करता तो उसकी बेरहमी से हत्या कर दी जाती. 90 के दशक में इस्लामिक जिहादियों ने हजारों निर्दोष कश्मीरी हिन्दुओं को अपना शिकार बनाया. बहन बेटियों के साथ दुष्कर्म कर उनकी नृशंस हत्याएं की. यह मंजर इतना खौफनाक हो चुका था कि अपनों को बचाने के लिए लाखों की संख्या में कश्मीरी हिन्दुओं को अपनी मातृभूमि से पलायन करने को मजबूर होना पड़ा. जिन्होंने अपनी मातृभूमि नहीं छोड़ी, उन्हें इस्लामिक आतंकियों द्वारा मार दिया गया.
दुर्गानाथ की नृशंस हत्या
आतंक के उस दौर में सैकड़ों कश्मीरी हिन्दुओं के बीच दुर्गानाथ राफिज़ को भी आतंकियों का निशाना बनना पड़ा. 11 नवंबर, 1942 को जम्मू कश्मीर में जन्मे दुर्गानाथ राफिज़ श्रीनगर के जवाहर नगर में अपने परिवार के साथ रहते थे. उनके पिता का नाम जिया लाल राफिज़ था. दुर्गानाथ राफिज़ सीमा सुरक्षा बल में उपनिरीक्षक के पद पर थे और पंतचौक में तैनात थे. जवाहर नगर में दुर्गानाथ राफिज़ की कुल 3 दुकानें थी. उनमें से 2 दुकानें पहले से ही किराये पर थीं और मात्र एक दुकान खाली पड़ी थी. घाटी में आतंक फैलाने वाले इस्लामिक जिहादियों और दुर्गानाथ के पड़ोसियों की बुरी नजर उनकी प्रॉपर्टी पर थी. BSF में इंस्पेक्टर पद पर तैनात दुर्गानाथ जैसे मासूम समाज के इन दुश्मनों की साजिश को समझ ना सके.
एक दिन दुर्गानाथ राफिज़ की बंद पड़ी दुकान को किराए पर लेने के लिए एक स्थानीय मुसलमान उनसे संपर्क करने पहुंचा. सरल एवं सहज व्यक्तित्व वाले दुर्गानाथ राफिज़ ने सद्भावना से उस व्यक्ति के लिए दुकान का ताला खोल दिया. वो दुकान को अच्छे से देखकर किराए पर लेने के लिए राजी हो गया. किराए की बात आगे बढ़ी, जिसमें नियम और निर्धारित शर्तों के अनुसार किरायेदार को अग्रिम रूप से दुर्गानाथ राफिज़ को 10,000 रुपये का भुगतान करना आवश्यक था. लिहाजा उसने बात को टालते हुए किराए की अग्रिम राशि देने के लिए दुर्गानाथ राफिज़ को विश्वास में लेते हुए एक नई तारीख ले ली.
दुर्गानाथ राफिज़ ने भी बिना कुछ सोचे उस पर विश्वास करते हुए अगली तारीख दे दी. वह व्यक्ति अगले दिन पूरी तैयारी के साथ मार्केट में नजर आया, जिसे देखते ही दुर्गानाथ आगे बढ़े और उससे दुकान के बारे में बात करने लगे. बाते बनाते हुए शख्स ने दुर्गानाथ राफिज़ से कहा कि मैं पैसे अपने संग नहीं लाया हूँ, क्योंकि बाजार में खड़े कुछ लोगों की नजर हम दोनों पर है. उसने अनुरोध किया कि वह उसके साथ उसके घर चले, जहाँ वह उसे अग्रिम धन का भुगतान करेगा. दुर्गानाथ उसकी चाल को नहीं समझ पाए और बिना सोचे उसके घर की तरफ निकल पड़े.
दुर्गानाथ जिस विश्वास के साथ उसके साथ निकले वो फिर कभी लौटकर अपने घर नहीं आ सके. कुछ दिनों बाद दुर्गानाथ का शव 03 जून, 1992 को नाटीपोरा के पास बादशाह नगर में मिला. दुकान के लिए एडवांस पैसे मांगने पर इस्लामिक कट्टरपंथियों ने उनकी जुबान काट दी थी. उनके शरीर को क्षत विक्षत कर दिया था. सर धड़ से अलग मिला और गर्दन को भी चाकुओं से कई बार गोदा गया था. हैरानी की बात यह कि हत्या में शामिल हैवानों को सजा भी नहीं मिली और जिसने उन्हें मौत के जाल में फंसाया था, उसी ने बाद में उनकी दुकान पर कब्जा कर लिया.