जयपुर. वेदों के क्लिष्ट सिद्धांत जब सरलीकृत हुए, तो वे पुराणों की कथाओं के रूप में बह निकले और जब पुराण लोक व्यवहार में उतरे, तो लोक परंपराओं में रच बस गए. नदियों को चुनरी ओढ़ाना भी एक ऐसी ही परम्परा है. जड़ में भी ईश्वरीय अंश मानने वाला भारतीय समाज प्रवाहमान और जीवनदायिनी नदियों को मां रूप में देखता है और मां, बहनों को विशेष अवसरों पर चुनरी ओढ़ाना उन्हें सम्मान देने सरीखा है.
ऐसा ही दृश्य, पिछले दिनों जयपुर के पास फागी में देखने को मिला. यहां बांडी नदी में बरसों बाद पानी आया तो गांव वासी भावुक हो उठे. गांव की महिलाओं ने पूरे रीति रिवाज से नदी में पानी आवक का स्वागत किया, नदी को चुनरी ओढ़ाई और कुमकुम-चावल, भोग व फूल अर्पित किए. बांडी नदी पहले बारहमासी थी, जो अब बरसाती भी नहीं रही.
ऐसा ही कुछ पाली जिले के सोजत में भी हुआ. भारी बारिश के बाद जब केलवाज नदी लबालब हुई, तो ग्रामीणों की खुशी का ठिकाना न रहा. महिलाओं ने पूरे पारंपरिक अंदाज में चुनरी ओढ़ाकर नदी रूपी मां का स्वागत किया.
राजस्थानी में कहा जाता है कि मेह और मेहमान का मान हमारी परंपरा है. स्थानीय बोलचाल की लोकोक्तियों में कहा गया है – मेह और पावणा (मेहमान) दोरा (मुश्किल) आवै हैं.
भारत में यमुना व नर्मदा को चुनरी ओढ़ाने के दृश्य तो कई बार देखने में आ जाते हैं क्योंकि उन्हें थोड़ा बहुत मीडिया कवरेज मिल जाता है. लेकिन सुदूर गांवों में जीवित यह परम्परा असली भारत के दर्शन कराती है.