करंट टॉपिक्स

उच्च शिक्षा संस्थानों में भारतीयता का विरोध क्यों ?

Spread the love

विवेकानंद नरताम

“वो जो दिन को रात कहें तो तुरंत मन जाओ,

नहीं मानोगे तो वो दिन में नकाब ओढ़ लेंगे!

जरुरत हुई तो हकीकत को थोड़ा बहुत मरोड़ लेंगे!

वो मगरूर है खुद की समझ पर बेइंतहा,

उन्हें आईना मत दिखाइए, वो आईने को भी तोड़ देंगे!”

प्रो. शांतिश्री पंडित जी के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की पहली महिला उप-कुलुगुरु नियुक्त होने पर समाज के विविध घटकों से, विशेषकर अकादमिक जगत से जुड़े व्यक्तियों द्वारा अभिनन्दन स्वाभाविक प्रतिक्रिया है. उनके जैसे भारतीय विचारों से प्रेरित शिक्षाविदों का राष्ट्र की प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों के अत्यंत महत्वपूर्ण प्रशासकीय पदों पर नियुक्त होना सकारात्मक पहल है. प्रो. पंडित जैसे शिक्षा जगत से जुड़े व्यक्तियों का ऐसे महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त होना इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति को हमारे शिक्षा संस्थानों में लागू करना है. अभी तक की हमारी शिक्षा नीतियाँ प्रायः औपनिवेशिक अथवा सरल शब्दों में पश्चिम से आयातित विचारों से प्रणीत थीं. अगर आगामी राष्ट्रीय शिक्षा नीति का भारतीयता में अंतर्निहित होना आवश्यक है तो प्रो. पंडित जैसे लोगों का नेतृत्व इस दिशा में मील का पत्थर साबित होगा.

परन्तु उनकी नियुक्ति के उपरांत कुछ तथाकथित बौद्धिक लोग या फिर जिन्हें साम्प्रत काल में “लेफ्ट-लिबरल इंटेलेक्चुअल” कहा जाता है, उन्होंने असत्य और षड़्यन्त्रों की उल्टी करना शुरू कर दिया है जैसा कि वो आम तौर पर करते आये हैं.

प्रो. शांतिश्री पंडित के संपर्क में मैं गत कई वर्षों से रहा हूं. मैं अपने आप को सौभाग्यशाली मानता हूं कि मुझे उनका मार्गदर्शन एवं अभिभावक जैसा स्नेह मिलता रहा है. मूलतः वे तमिल और तेलगु भाषिक हैं और उनका सारा अध्ययन अंग्रेजी माध्यम में हुआ है. परन्तु जब से उन्होंने सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय में अध्यापन का दायित्व संभाला, उन्होंने मराठी में बोलना एवं पढ़ना सीखा. उनके साथ के वार्तालाप में उन्होंने मुझसे कहा “अरे, विवेक, हमारे विश्वविद्यालय में प्रमुखता से छोटे-छोटे गावों से मराठी माध्यम में पढ़ने वाले छात्र आते हैं. उन्हें शुरुआत में अंग्रेजी ठीक से समझ नहीं आती है. उन्हें अगर अंग्रेजी में पढ़ाया जाए तो उनके कुछ भी समझ में नहीं आएगा. वे परीक्षा के उत्तर भी तो मराठी में ही लिखते हैं. इसलिए मुझे मराठी बोलना एवं पढ़ना सीखना अनिवार्य था.” अपने छात्रों के प्रति वे कितनी संवेदनशील रही हैं, हम सबको इसका अंदाजा होगा.

मेरे जैसे अकादमिक यात्रा के प्रारंभिक पड़ाव पर खड़े कई लोगों का उन्होंने मार्गदर्शन किया है, सदैव उत्साहवर्धन किया है. यह मैं अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर कह रहा हूं. कोरोना काल के शुरुआती समय में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद वर्धा द्वारा छात्रों एवं शोधार्थियों के लिए व्याख्यानमाला चलाई जा रही थी. शांतिश्री जी तब अपने पति के स्वास्थ्य की देखभाल हेतु अमेरिका में रह रही थीं. मैंने उन्हें फ़ोन करके व्याख्यानमाला में मार्गदर्शन का आग्रह किया. उन्होंने बड़े उत्साह के साथ प्रस्ताव स्वीकार किया एवं आयोजकों को बधाई दी. उन्होंने हमेशा प्रोत्साहित ही किया.

पिछले एक-दो दिनों में, विशेषकर उनके उप-कुलुगुरु के दायित्व पर नियुक्ति के उपरांत उनके बारे में अनेक षड्यंत्रकारी बातें प्रसारित की जा रही हैं. कुछ सोशल मीडिया ट्रोलर्स सक्रिय भूमिका में आ गए है. बिना जाने कुछेक ने तो उनके अकादमिक साख पर भी सवाल उठाना शुरू कर दिया है.

उन्हें शायद पता नहीं, उनके (शांतिश्री पंडित) पिता जी तमिलनाडु कैडर के प्रशासकीय अधिकारी थे. उन्होंने Ph. D. कर रखी थी. उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं. उनकी माता जी पीटर्सबर्ग विश्वविद्यालय में तमिल एवं भारतीय ज्ञान परंपरा का अध्यापन केंद्र शुरू करने वाली प्रथम प्राध्यापिका रही हैं. प्रो. शांतिश्री का जन्म भी वहीं हुआ है. सेंट जेवियर महाविद्यालय, चैन्नई से स्नातक एवं परा-स्नातक की पढ़ाई में गोल्ड मैडलिस्ट रही हैं. जे.एन.यू. के अंतरराष्ट्रीय अध्ययन केंद्र से उन्होंने एम. फिल. और पीएचडी की है. गत साढ़े तीन दशकों से गोवा विश्वविद्यालय एवं सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय में अध्यापन का कार्य कर रही हैं. साथ ही उन्होंने विविध शासकीय संस्थाओं मे अनेक दायित्व निभाए हैं. यह सब उनके अविरत तप का फल है.

एक विशेष प्रकार का अकादमिक गिरोह उन सब को अपमानित करने के षड्यंत्रो में सदैव सक्रिय रहता है जो उनके मनमुताबिक कार्य नहीं करते. उनके जैसी सोच न रखने पर उन्हें अनेक अग्नि परीक्षाओं का सामना करना पड़ता है. क्योंकि इन लोगों ने आर. सी. मुजमदार जैसे इतिहासकारों पर साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने तक का लांछन लगाया है. पश्चिम के विचार एवं सिद्धांतों को जस के तस रटकर उन्हें भारतीय परिप्रेक्ष्य में थोपना यही उनके लिए बौद्धिकता की निशानी है. अब समय आ गया है कि राष्ट्रीय एवं भारतीयता के विचारों की मशाल लेकर चलने वाले सभी लोगों को इस प्रकार की मानसिकता का विरोध करना होगा.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *