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मतांध आक्रांता औरंगजेब व टीपू सुल्तान से हमदर्दी क्यों?

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महाराष्ट्र के अहमदनगर एवं कोल्हापुर में हुई हिंसक झड़पों के बाद एक बार फिर से औरंगज़ेब व टीपू सुल्तान चर्चा में रहे. गौरतलब है कि बीते 6 जून को कोल्हापुर के कुछ युवाओं ने औरंगज़ेब व टीपू सुल्तान की तस्वीर के साथ आपत्तिजनक ऑडियो संदेश स्टेटस में लगाए थे, जिसके विरोध में 7 जून को कुछ हिन्दू संगठनों ने विरोध प्रदर्शन किया. कोल्हापुर के पुलिस अधीक्षक महेंद्र पंडित के अनुसार प्रदर्शन समाप्त होने के पश्चात जब भीड़ वापस जा रही थी, तब उपद्रवियों ने पथराव शुरु कर दिया, जिससे मजबूर होकर पुलिस को भी बल-प्रयोग कर भीड़ को नियंत्रित करना पड़ा.

इससे पूर्व अहमदनगर में 4 जून को सुबह नौ बजे एक जुलूस निकाला गया था. इस जुलूस में गाने बज रहे थे, जिस पर लोग डांस कर रहे थे. इसी जुलूस में चार लोग औरंगजेब के पोस्टर लेकर चल रहे थे. 6 जून को इसके विरोध में अहमदनगर में हिन्दू संगठनों ने विरोध-प्रदर्शन आयोजित किया, जिस पर कट्टरपंथी एवं असामाजिक तत्त्वों ने पत्थरबाजी शुरु कर दी और कई वाहनों को क्षतिग्रस्त कर दिया.

ध्यान देने वाली बात यह है कि आए दिन कुछ गिने-चुने लोग औरंगज़ेब व टीपू सुल्तान को नायक की तरह पेश करते हैं. अतीत के किसी शासक को नायक या खलनायक मानने के पीछे ऐतिहासिक स्रोतों एवं साक्ष्यों के अलावा जनसाधारण की अपनी भी एक दृष्टि या धारणा होती है. वह दृष्टि या धारणा रातों-रात नहीं बनती, अपितु उसके पीछे उस समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक जड़ों, परंपराओं, जीवन-मूल्यों, जीवनादर्शों से लेकर संघर्ष-सहयोग, सुख-दुःख, जय-पराजय, गौरव-अपमान आदि की साझी अनुभूतियों के साथ-साथ, उस शासक द्वारा प्रजा के हिताहित में किए गए कार्यों की भी महती भूमिका होती है. इस देश की आम जनता ने लंबी अवधि तक शासन करने वाले, सफल सैन्य व विजय-अभियानों का संचालन करने वाले या विस्तृत भूभागों पर आधिपत्य स्थापित करने वाले राजाओं की तुलना में उदार, सहिष्णु, समदर्शी, परोपकारी, प्रजावत्सल एवं न्यायप्रिय राजा तथा लोकहितकारी राज्य को अधिक मान एवं महत्त्व दिया है. मज़हबी मानसिकता से ग्रसित कट्टरपंथी या क्षद्म पंथ निरपेक्षतावादी बुद्धिजीवी एवं इतिहासकार भले ही औरंगज़ेब और टीपू सुल्तान को लेकर भिन्न दावा करें, परंतु आम धारणा यही है कि ये दोनों क्रूर, बर्बर, मतांध एवं आततायी शासक थे. ऐतिहासिक साक्ष्य एवं विवरण भी इसकी पुष्टि करते हैं.

औरंगज़ेब की कट्टरता एवं मतांधता को दर्शाने के लिए 9 अप्रैल, 1669 को उसके द्वारा ज़ारी राज्यादेश पर्याप्त है, जिसमें उसने सभी हिन्दू मंदिरों एवं शिक्षा-केंद्रों को नष्ट करने के आदेश दिए थे. इस आदेश को काशी-मथुरा सहित उसकी सल्तनत के सभी 21 सूबों में लागू किया गया था. औरंगजेब के इस आदेश का जिक्र उसके दरबारी लेखक मुहम्मद साफी मुस्तइद्दखां ने अपनी किताब ‘मआसिर-ए-आलमगीरी’ में भी किया है. 1965 में प्रकाशित वाराणसी गजेटियर की पृष्ठ-संख्या 57 पर भी इस आदेश का उल्लेख है. इतिहासकारों का मानना है कि इस आदेश के बाद गुजरात का सोमनाथ मंदिर, काशी विश्वनाथ मंदिर, मथुरा का केशवदेव मंदिर, अहमदाबाद का चिंतामणि मंदिर, बीजापुर का मंदिर, वडनगर का हथेश्वर मंदिर, उदयपुर में झीलों के किनारे बने 3 मंदिर, उज्जैन के आसपास के मंदिर, चित्तौड़ के 63 मंदिर, सवाई माधोपुर में मलारना मंदिर, मथुरा में राजा मानसिंह द्वारा 1590 में बनवाया गया गोविंददेव मंदिर सहित देशभर के सैकड़ों छोटे-बड़े मंदिर ध्वस्त करा दिए गए. मज़हबी ज़िद व जुनून में उसने हिन्दुओं के त्योहारों एवं धार्मिक प्रथाओं को भी प्रतिबंधित कर दिया था. 1679 ई. में उसने हिन्दुओं पर जजिया कर लगा, उन्हें दोयम दर्ज़े का नागरिक या प्रजा बनकर जीने को विवश कर दिया. तलवार या शासन का भय दिखाकर उसने बड़े पैमाने पर हिन्दुओं का मतांतरण करवाया.

इस्लाम न स्वीकार करने पर उसने निर्दोष एवं निहत्थे हिन्दुओं का क़त्लेआम करवाने में भी कोई संकोच नहीं किया. मज़हबी सोच व सनक में उसने सिख धर्मगुरु तेगबहादुर का सिर कटवा दिया, गुरु गोविंद सिंह जी के साहबजादों को जिंदा दीवारों में चिनबा दिया, संभाजी को अमानुषिक यातनाएँ देकर मरवाया. जिस देश में श्रवण कुमार और देवव्रत भीष्म जैसे पितृभक्त पुत्रों और राम-भरत-लक्ष्मण जैसे भाइयों की कथा-परंपरा प्रचलित हो, वहाँ अपने बूढ़े एवं लाचार पिता को कैद में रखने वाला तथा अपने तीन भाइयों दारा, शुजा और मुराद की हत्या कराने वाला व्यक्ति सामान्य जनों का आदर्श या नायक नहीं हो सकता! सम्राट अशोक के अपवाद को उदाहरण की तरह प्रस्तुत करने वाले लोग स्मरण रखें कि लोक में उसकी व्यापक स्वीकार्यता का मूल कारण उसका प्रायश्चित-बोध एवं मानस परिवर्तन के बाद सत्य, अहिंसा, प्रेम, करुणा जैसे शाश्वत मानवीय सिद्धांतों के प्रति उपजी उसकी दृढ़ निष्ठा थी, न कि साम्राज्य-विस्तार की लालसा या युद्ध-पिपासा.

आश्चर्य नहीं कि टीपू सुल्तान का महिमामंडन करने वाले लोग उसकी क्रूरता, मतांधता एवं कट्टरता के विवरणों से भरे ऐतिहासिक प्रमाणों एवं अभिलेखों आदि पर एकदम मौन साध जाते हैं. 19 जनवरी, 1790 को बुरदुज जमाउन खान को एक पत्र में टीपू ने स्वयं लिखा है – ‘क्या आपको पता है कि हाल ही में मैंने मालाबार पर एक बड़ी जीत दर्ज की है और चार लाख से अधिक हिन्दुओं का इस्लाम में कनवर्जन करवाया है.’ सईद अब्दुल दुलाई और अपने एक अधिकारी जमान खान को लिखे पत्र में वह कहता है, ‘पैगंबर मोहम्मद और अल्लाह के करम से कालीकट के सभी हिन्दुओं को मुसलमान बना दिया है. केवल कोचिन स्टेट के सीमावर्त्ती इलाकों के कुछ लोगों का कनवर्जन अभी नहीं कराया जा सका है. मैं जल्द ही इसमें भी क़ामयाबी हासिल कर लूँगा.’ टीपू ने घोषित तौर पर अपनी तलवार पर खुदवा रखा था – ‘मेरे मालिक मेरी सहायता कर कि मैं संसार से क़ाफ़िरों (ग़ैर मुसलमानों) को समाप्त कर दूँ.’

‘द मैसूर गजेटियर’ के अनुसार टीपू ने लगभग 1000 मंदिरों का ध्वंस करवाया था. स्वयं टीपू के शब्दों में, ‘यदि सारी दुनिया भी मुझे मिल जाए, तब भी मैं हिन्दू मंदिरों को नष्ट करने से नहीं रुकूँगा’ (फ्रीडम स्ट्रगल इन केरल). 19वीं सदी में ब्रिटिश सरकार में अधिकारी रहे लेखक विलियम लोगान की ‘मालाबार मैनुअल’, 1964 में प्रकाशित

केट ब्रिटलबैंक की ‘लाइफ ऑफ टीपू सुल्तान’ आदि पुस्तकों तथा उसके एक दरबारी एवं जीवनी लेखक मीर हुसैन किरमानी के विवरणों से ज्ञात होता है कि टीपू वास्तव में एक अनुदार, असहिष्णु, मतांध, क्रूर एवं अत्याचारी शासक था. ग़ैर-मुस्लिम प्रजा पर बेइंतहा जुल्म ढाने, लाखों लोगों का जबरन मतांतरण करवाने तथा हजारों मंदिरों को तोड़ने के मामले में वह दक्षिण का औरंगज़ेब था. आरोप तो यहाँ तक लगते हैं कि उसने अफ़ग़ान शासक जमान शाह सहित कई विदेशी शासकों को भारत पर आक्रमण हेतु आमंत्रण भेजा.

क्या यह अच्छा नहीं होता कि औरंगज़ेब और टीपू सुल्तान जैसे कट्टर एवं मतांध शासकों को नायक के रूप में स्थापित करने या ज़ोर-जबरदस्ती से बहुसंख्यकों के गले उतारने की कोशिशों की बजाय मुस्लिम समाज रहीम, रसखान, दारा शिकोह, बहादुर शाह ज़फ़र, अशफ़ाक उल्ला खां, खान अब्दुल गफ़्फ़ार खान, वीर अब्दुल हमीद एवं ए.पी.जे अब्दुल कलाम जैसे नायकों व चेहरों को सामने रखता? इससे समन्वय, सहिष्णुता एवं सौहार्द्र की साझी संस्कृति विकसित होगी. कट्टर एवं मतांध शासकों या आक्रांताओं में नायकत्व देखने व ढूँढने की प्रवृत्ति अंततः समाज को बाँटती है. यह जहाँ विभाजनकारी विषबेल को सींचती है, वहीं अतीत के घावों को कुरेदकर उन्हें गहरा एवं स्थाई भी बनाती है.

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