झाबुआ. रातीतलाई (झाबुआ) निवासी परमार दंपती का कहना है कि 25 जनवरी की रात हम ताउम्र नहीं भूल पाएंगे. रात 10.30 बजे फोन आया, सामने वाले व्यक्ति ने पूछा, आप रमेश जी बोल रहे हैं, मैंने जवाब में हां कहा. उन्होंने खुद को दिल्ली का अफसर बताते हुए कहा, ‘आपका और आपकी पत्नी शांति का नाम पद्मश्री के लिए चयनित हुआ है, पर यह बात किसी को नहीं बताइएगा.’ मैं समझा किसी ने मजाक किया है. कुछ देर बाद स्थानीय अफसरों के भी फोन आए, तब भरोसा हुआ कि ये हकीकत है. ‘इसके बाद हम लोग देर रात तक सो नहीं पाए’. रमेश और उनकी पत्नी शांति परमार का नाम पद्मश्री के लिए चयनित हुआ है.
पति की होमगार्ड की नौकरी छूटी, गृहस्थी चलाना मुश्किल था. लेकिन हार नहीं मानी. 1993 में झाबुआ में ही वनवासी गुड़िया बनाने का प्रशिक्षण लिया. 6 महीने में काम सीख लिया, लेकिन गुड़िया बनाने के लिए सामग्री खरीदने के लिए पैसे नहीं थे. कपड़ों सहित अन्य वस्तुएं महंगी आती हैं, तब इसका विकल्प तलाशा और टेलर के यहाँ से डेढ़ रूपये किलो के हिसाब से कतरन खरीदी. इन्हीं से गुड़िया बनाकर शहर में बेचकर परिवार का पोषण किया. सबसे पहले गुड़िया बनाने की शुरुआत तुहर की लकड़ियों पर की, क्रॉस के रूप में बांधकर इसे कपड़े पहनाते थे. इसी तरह शहर – शहर जाकर प्रदर्शनी लगानी शुरू की. लोगों को गुड़िया काफी पसंद आई. अभी भोपाल के अलावा मुंबई, अहमदाबाद से भी गुड़िया के लिए ऑर्डर आ रहे हैं. पूरा परिवार इस काम में हाथ बंटाता है. झाबुआ में ही अब करीब 30 परिवार वनवासी गुड़िया बना रहे हैं और अपना जीवन यापन कर रहे हैं.
वनवासी गुड़िया बनाने के इस काम से जुड़े हुए सुभाष गिदवानी बताते हैं, – करीब 60 साल पहले उस दौरान झाबुआ में ही ट्राइबल विभाग में महाराष्ट्र की दो महिलाएं पदस्थ थीं. उन्होंने जनजातियों को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए गुड़िया बनाने का प्रशिक्षण देना शुरू किया. इसके बाद धीरे-धीरे वनवासी लोग इससे जुड़ने लगे. करीब 15 साल पहले प्रशिक्षण केंद्र बंद हो गया. पर, गुड़िया बनाने का काम नहीं रुका. यहां की बनी वनवासी गुड़िया की मांग अब देश के विभिन्न शहरों में है.