करंट टॉपिक्स

युगांत …!

Spread the love

प्रशांत पोळ

मा. गो. वैद्य जी का जाना यह एक युग का अंत हैं. वे ऐसे अत्यंत बिरले लोगों में हैं, जिन्होंने केंद्रीय स्थान में रहते हुए और कई केंद्रीय दायित्वों का निर्वहन करते हुए संघ के सभी सरसंघचालकों के साथ काम किया. सतहत्तर से ज्यादा वर्षों की संघ आयु. संघ कार्य के सभी उतार–चढ़ावों को निकट से देखने का सौभाग्य उन्हें मिला था.

मा. गो. वैद्य जी को मैं जब कॉलेज में पढ़ता था, तब से जानता हूं. वे तब नागपुर से प्रकाशित ‘दैनिक तरुण भारत’ के संपादक थे और जबलपुर में तरुण भारत का अंक लेकर नियमित पढ़ने वालों में हमारा परिवार भी था. अत्यंत सरल भाषा में लिखे उनके संपादकीय और रविवार के विशेष आलेख हम सब बड़े चाव से पढ़ते थे. किसी बात को तर्कपूर्ण भाषा में बताने की उनकी शैली अद्भुत थी. मेरे स्वर्गीय पिताजी, उनकी लेखन शैली के कायल थे.

सन् १९८५ में, मध्यप्रदेश में फैले ‘आरक्षण विरोधी आंदोलन’ में, आंदोलनकारी छात्र नेताओं को विद्यार्थी परिषद के तत्कालीन महामंत्री (बाद में बिहार के पूर्व उप-मुख्यमंत्री) सुशील कुमार मोदी जी के साथ बैठाने में मेरी भूमिका थी. मेरे घर पर हुई इस बैठक में ‘अर्जुन सिंह द्वारा लागू किया गया अतिरिक्त आरक्षण समाप्त होने पर आंदोलन पीछे लेना’ इस पर सहमति बनी थी. इस विषय पर मैंने एक लंबा सा लेख लिखकर ‘तरुण भारत’ को भेजा. एक सप्ताह के अंदर ही मुझे मा. गो. वैद्य जी का पत्र आया, जिसमें उन्होंने लिखा था कि वे मेरा लेख छाप रहे हैं और मैं आगे भी लिखता रहूँ. मा. गो. वैद्य जी से मेरा वह पहला संपर्क था और उनके द्वारा प्रकाशित आलेख यह मेरे जीवन का, मेरा पहला प्रकाशित लेखन था !

मा. गो. वैद्य संघ समर्पित व्यक्तित्व थे. कुशाग्र बुद्धि, जबरदस्त पठन – पाठन, राजनीति की अच्छी समझ, अनेक विषयों पर पकड़, विशाल लोक संग्रह, अद्भुत और विलक्षण प्रतिभा..! किन्तु सब कुछ संघ समर्पित. सम्पूर्ण जीवन में संघ ने जो कहा, वही किया. संघ की विचारधारा को अत्यंत सहज और सरल भाषा में, सामान्य लोगों तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य उन्होंने किया. वे संघ में पुरानी पीढ़ी के स्वयंसेवक थे, किन्तु ‘पुराने’ नहीं थे. नवाचार के मामले में आगे रहते थे. नए विचारों को, नई कल्पनाओं को हमेशा प्रोत्साहित करते थे. समता और समरसता के प्रबल पक्षधर थे. व्यवहार में भी समरसता का पालन करते थे.

अत्यंत स्पष्ट वक्ता और अपने उसूलों के पक्के ! १९७८ में वे विधान परिषद के सदस्य बने. उन्हें बताया गया कि इस दिनांक को आपको सदन में शपथ लेनी है. किन्तु वैद्य जी ने उसे नकार दिया. उनका कहना था, ‘अमरावती में उनका कार्यक्रम उसी दिन पहले से तय हैं. इसलिए वे उसी तय कार्यक्रम में जाएंगे. कार्यक्रम के बाद ही वे शपथ लेंगे.’

१९६६ में, संघ की सूचना पर वे ‘तरुण भारत’ के संपादक के रूप में कार्य करने लगे. १९८३ में वे संपादक पद से निवृत्त हुए. उन दिनों महाराष्ट्र के सारे केंद्रीय नेता और मंत्री, दिल्ली में महाराष्ट्र के जो समाचार पत्र मंगाते थे, उनमे नागपुर का ‘तरुण भारत’ होता ही था. उन सब को, मा. गो. वैद्य किसी घटना या प्रसंग के बारे में क्या लिखते हैं, यह जानने का कौतूहल होता था. १९८३ में संपादक पद से निवृत्त होने के पश्चात, सन् २०१३ तक, अर्थात पूरे तीस वर्ष, प्रति रविवार वे ‘भाष्य’ यह स्तंभ लिखते थे. अत्यंत वाचनीय एवं जानकारी से भरपूर इस स्तंभ का, पाठकों में आकर्षण होता था.

१९८९ में उनका संभाजीनगर (औरंगाबाद – महाराष्ट्र) में प्रवास हुआ. उन दिनों मैं संभाजीनगर में मेल्ट्रोन के रीसर्च एंड डेवलपमेंट विभाग का दायित्व संभाल रहा था. संघ कार्य भी साथ-साथ चल रहा था. संभाजीनगर से भी ‘तरुण भारत’ का प्रकाशन करने का हम लोग प्रयास कर रहे थे. एक बहुत अच्छी टीम बन गई थी. उन्हीं दिनों संभाजीनगर के विख्यात ‘डॉ. हेडगेवार हॉस्पिटल’ की परियोजना भी आकार ले रही थी. उनके इस प्रवास में मेरा पहली बार उनसे मिलना हुआ, जो बाद में अनेकों बार के संपर्कों का प्रारंभ था. अगले सप्ताह का उनका ‘भाष्य’ यह स्तंभ उनके संभाजीनगर की भेंट पर था और उस आलेख में डेढ़ पैराग्राफ, मेरे पर उन्होंने लिखा था. मेरे लिए यह किसी भी सम्मान से ज्यादा था!

मा. गो. वैद्य जी की विशेषतः यानि विचारों की स्पष्टता. राजनीति के अनेक भिन्न / विभिन्न प्रवाहों पर बेबाक शैली से अर्थपूर्ण टिप्पणी करना उनकी खासियत थी. ठीक दो वर्ष पूर्व, श्री नितिन गडकरी जी की अध्यक्षता में हुए उनके एक सम्मान कार्यक्रम में उन्होंने एक संस्मरण का उल्लेख किया. उन्होंने कहा कि एक बैठक में वाजपेयी ने उनका परिचय संघ के प्रचारक के तौर पर किया था. तब उन्होंने अटल जी की बात को काटते हुए कहा था कि वे “प्रचारक नहीं प्रचारकों के बाप हैं. वाजपेयी जी को शायद जवाब असहज लगा कि कहीं यह अहंकार की बात तो नहीं. तब मैंने उनसे कहा कि मेरे दो पुत्र संघ के प्रचारक हैं.”

मा. गो. वैद्य जी की लेखनी का मैं कायल था. प्रवास में तरुण भारत पढ़ना संभव नहीं होता था. तब रविवार के अंक को ढूंढना और फिर उन्हें पढ़ना, यह मैं अवश्य करता था. उनकी लिखी लगभग सारी हिन्दी – मराठी पुस्तकें मेरे संग्रह में हैं और संदर्भ के लिए उनका विशेष महत्व है. मा. गो. वैद्य जी का मेरे घर में चार – पांच बार आना हुआ. दो बार उनका निवास, घर पर ही था. उनके साथ बातचीत करना, चर्चा करना यह अत्यंत आनंददायक और समृद्ध करने वाला अनुभव होता था. मैं और सुमेधा, उनके साथ किसी भी विषय पर चर्चा कर लेते थे. किसी भी विषय पर अगर अटके, तो बाबुराव जी (मा. गो.) वैद्य यह हक का ठिकाना होता था. मेरी बिटिया ‘निहारिका’ के नाम का सही अर्थ क्या है, यह भी हमने उनसे पत्र लिखकर पूछा था, और उन्होंने भी तत्परता से उत्तर दिया था.

संघ ने नब्बे के दशक में जब प्रचार विभाग प्रारंभ किया, तब उसके पहले अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख, मा. गो. वैद्य ही थे. बाद में उनके सुपुत्र, डॉ. मनमोहन जी वैद्य भी अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख बने. यह एक बिरला और सुखद संयोग था.

मा. गो. वैद्य जी का संघ के वैचारिक प्रवास में मजबूत और सार्थक योगदान है. समय समय पर उन्होंने मार्गदर्शन किया है. उनके जाने से मात्र शून्यक ही नहीं निर्माण हुआ हैं, मात्र निर्वात ही नहीं बना है, वरन एक युग का अंत हुआ है..!

उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि…!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *