ऐसा कहा जाता है कि शस्त्र या विष से तो एक-दो लोगों की ही हत्या की जा सकती है, पर यदि किसी देश के इतिहास को बिगाड़ दिया जाये, तो लगातार कई पीढ़ियाँ नष्ट हो जाती हैं. हमारे इतिहास के साथ दुर्भाग्य से ऐसा ही हुआ. और वर्तमान में हमारी युवा पीढ़ी गलत इतिहास पढ़ रही है, तथा अपने गौरवशाली अतीत से अनभिज्ञ होती जा रही है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता इस भूल को सुधारने में लगे हैं और वास्तविक इतिहास को खोज कर सामने लाने का प्रयास लंबे समय से चल रहा है.
बाबा साहब आप्टे एवं मोरोपन्त पिंगले जी के बाद इस काम को बढ़ाने वाले ठाकुर रामसिंह जी का जन्म 15 फरवरी, 1915 को ग्राम झंडवी (जिला हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश) में श्री भागसिंह एवं श्रीमती नियातु देवी के घर में हुआ था. उन्होंने लाहौर के सनातन धर्म कॉलेज से बीए और क्रिश्चियन कॉलेज से इतिहास में स्वर्ण पदक के साथ एमए की डिग्री हासिल की. वे हॉकी के भी बहुत अच्छे खिलाड़ी थे. एमए. करते समय अपने मित्र बलराज मधोक के आग्रह पर वे शाखा में आये. एमए की डिग्री पूरी होने पर क्रिश्चियन कॉलेज के प्राचार्य व प्रबन्धकों ने इन्हें अच्छे वेतन पर अपने यहां प्राध्यापक बनने का प्रस्ताव दिया, जिसे ठाकुर राम सिंह जी ने नम्रता के साथ ठुकरा दिया.
1942 में खण्डवा (मध्य प्रदेश) से संघ शिक्षा वर्ग, प्रथम वर्ष कर वे प्रचारक बन गये. उस साल लाहौर से 58 युवक प्रचारक बने थे, जिसमें से 10 ठाकुर जी के प्रयास से निकले. कांगड़ा जिले के बाद वे अमृतसर के विभाग प्रचारक रहे. विभाजन के समय हिन्दुओं की सुरक्षा और मुस्लिम गुंडों को मुंहतोड़ जवाब देने में वे अग्रणी रहे. उनके संगठन कौशल के कारण 1948 के प्रतिबन्ध काल में अमृतसर विभाग से 5,000 स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह किया.
1949 में श्री गुरुजी ने उन्हें पूर्वोत्तर भारत भेज दिया. वहां उन्होंने अत्यन्त कठिन परिस्थितियों में संघ कार्य की नींव डाली. एक दुर्घटना में उनकी एक आंख और घुटने में भारी चोट आयी, जो जीवन भर ठीक नहीं हुई. उनका प्रवास क्रम, संघ कार्य के विस्तार के लिये परिश्रम निरंतर जारी रहा. 1962 में चीन के सैनिकों के असम में घुसने की आशंका से लोगों में भगदड़ मच गयी. ऐसे समय में उन्होंने पूरे प्रान्त और विशेषकर तेजपुर जिले के स्वयंसेवकों को नगर और गांवों में डटे रहकर प्रशासन का सहयोग करने को कहा. इससे जनता का मनोबल बढ़ा, अफवाहें शान्त हुईं और वातावरण ठीक हो गया.
1971 में वे पंजाब के सहप्रान्त प्रचारक, 1974 में प्रांत प्रचारक, 1978 में सहक्षेत्र प्रचारक और फिर क्षेत्र प्रचारक बने. इस दौरान उन्होंने दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर का व्यापक प्रवास किया. उन्हें अपनी रॉयल एनफील्ड मोटरसाइकिल पर बहुत भरोसा था. सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा वे इसी से कर लेते थे. बुलन्द आवाज के धनी ठाकुर जी ने इस क्षेत्र से लगभग 100 युवकों को प्रचारक बनाया, जिसमें से कई आज भी कार्यरत हैं.
आपातकाल में ठाकुर रामसिंह जी का केन्द्र दिल्ली था. उन्होंने भूमिगत रहते हुये कार्य किया, और आंदोलन के साथ ही जेल गये स्वयंसेवक परिवारों को भी संभाला. इस दौरान उन्होंने न अपना वेष बदला और न मोटरसाइकिल. फिर भी पुलिस उन्हें पकड़ नहीं सकी. 1984 से वे अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना’ के काम में लग गये. 1991 में वे इसके अध्यक्ष बने.
2002 में स्वास्थ्य के कारण उन्होंने जिम्मेदारी छोड़ दी, पर वे नये कार्यकर्ताओं को प्रेरणा देते रहे. उनके प्रयास से सरस्वती नदी, आर्य आक्रमण, सिकंदर की विजय जैसे विषयों पर हुए शोध ने विदेशी और वामपंथी इतिहासकारों को झूठा सिद्ध कर दिया. 2006 में हमीरपुर जिले के ग्राम नेरी में ‘ठाकुर जगदेवचंद स्मृति इतिहास शोध संस्थान’ की स्थापना कर वे भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन की साधना में लग गये. 94 वर्ष की अवस्था तक वे अकेले प्रवास करते थे. कमर झुकने पर भी उन्होंने चलने में कभी छड़ी या किसी व्यक्ति का सहयोग नहीं लिया. छह सितम्बर, 2010 को लुधियाना में संघ के वयोवृद्ध प्रचारक एवं भारतीय इतिहास के इस पुरोधा का देहांत हुआ. उनकी इच्छानुसार उनका दाह संस्कार उनके गांव में ही किया गया.